पञ्च चामर छन्द = की विधा मॆं मॆरा
प्रथम प्रयास आप सबकॆ श्री चरणॊं मॆं
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रुदान्त कंठ मातृ-भूमि वॆदना पुकारती,
प्रकॊप-दग्ध दॆश-भक्ति भावना हुँकारती,
वही सपूत धन्य भारती पुकारती जिसॆ,
अखंड सत्य-धर्म साधना सँवारती जिसॆ,
करॊ पुनीत कर्म ज़िन्दगी सँवारतॆ चलॊ ॥
सुहासिनीं सुभाषिणीं सदा पुकारतॆ चलॊ ॥१॥
खड़ा रहा अड़ा रहा डरा नहीं कु-काल सॆ,
डटा रहा नहीं हटा हिमाद्रि तुंग भाल…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 16, 2013 at 4:30pm — 14 Comments
बहर-।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ
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लिपट के आबशारों से तराने खो गए होंगे।
उतर के देवदारों से उजाले सो गए होंगे॥
...
जिन्हें मालूम है दुनिया मुहब्बत की इमारत है,
ग़ुज़र के मैकदे से भी वही घर को गए होंगे।
...
न परियों का फ़साना था न किस्से देवताओं के,
कहानी कौन सी सुन के सलोने सो गए होंगे।
...
उन्हीं की नींद उजड़ी है,उन्हीं के ख्वाब बिखरे हैं,
किसी की आँख के तारे चुराने जो गए होंगे।
...
ज़रा सी चाँदनी छू लें,सितारों की दमक देखें,…
Added by Ravi Prakash on December 16, 2013 at 4:00pm — 13 Comments
ग़ज़ल – २१२२ १२१२ २२
इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या ,
गुलसितां क्या है कहकशां भी क्या |
पीर पिछले जनम के आशिक़ थे ,
यूँ ख़ुदा होता मेहरबां भी क्या |
औघड़ी फांक ले मसानों की ,
देख फिर ज़ीस्त का गुमां भी क्या |
बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,
खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |
ख़ुशबू लोबान की हवा में है ,
ख़त्म हो जायेंगा धुआँ भी क्या |
माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,
ये जमीं क्या…
ContinueAdded by Abhinav Arun on December 16, 2013 at 3:30pm — 22 Comments
''मिश्रा जी, बेटी का बाप दुनिया का सबसे लाचार इंसान होता है. आपको कोई कमी नहीं, थोड़ी कृपा करें, मेरा उद्धार कर दें. बेटी सबकी होती है.' कहते-कहते दिवाकर जी रूआंसे हो गए । मिश्रा जी का दिल पसीज गया ।
अगले वर्ष घटक द्वार पर आए तो दिवाकर जी कह रहे थे
''अजी लड़के में क्या गुण नहीं है, सरकारी नौकर है. ठीक है हमें कुछ नहीं चाहिए, पर स्टेटस भी तो मेनटेन करना है. हाथी हाथ से थोड़े ना ठेला जाता है. चलिए 18 लाख में आपके लिए कनसिडर कर देते हैं और बरात का खर्चा-पानी दे दीजिएगा,…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on December 16, 2013 at 1:30pm — 24 Comments
मिसरों का वज़न - २१२२ १२१२ ११२/२२
रौशनी का भला बखान भी क्या !
दीप का लीजिये बयान भी, क्या.. ?!
वो बड़े लोग हैं, ज़रा तो समझ-- …
Added by Saurabh Pandey on December 16, 2013 at 11:00am — 54 Comments
2122 -1212- 112
कट ही जाये अगर ज़बान भी क्या
फिर मिलेगा हमें वो मान भी क्या
आदमीयत के मोल जो मिली हो
दोस्तो ऐसी कोई शान भी क्या
मेरे पैरों में आज पंख लगे
अब ज़मीं क्या ये आसमान भी क्या
छोड दें गर ज़मीन अपने लिये
ऐसे सपनों की फिर उड़ान भी क्या
और के काम आ सके न कभी
ऐसा इंसान का है ज्ञान भी क्या
भाग के गर मुसीबतों से कहीं
बच ही जाये तो ऐसी जान भी…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 16, 2013 at 10:00am — 40 Comments
“सर! निगम के सी. ई. ओ. के घोटालों की पूरी रिपोर्ट मैंने फायनल कर दी है। प्रिंट में जाये उससे पहले आप एक नज़र डाल लीजिए...” एडिटर इन चीफ ने रिपोर्ट पर सरसरी निगाह डाली और लापरवाही से उसे टेबल के किनारे रखे ट्रे पर डालते हुये कहा – “इसे छोड़ो, इस केस में कुछ नए डेवलपमेंट्स पता चले हैं... उन सब को एड करके बाद में देखेंगे... बल्कि तुम ऐसा करो कि नए आर॰ टी॰ ओ॰ से संबन्धित रिपोर्ट को जल्दी से फायनल कर दो, उसे कल के एडिशन में देना है...”
वह अपने चेम्बर में बैठ कर आर॰ टी॰ ओ॰ से संबन्धित…
Added by Sanjay Mishra 'Habib' on December 16, 2013 at 10:00am — 8 Comments
प्राण-समस्या
सहारा युगानयुग से
फूलों को बेल का, पाँखुरी को फूल का
पत्तों को टहनी का
अब मुझको .... तुम्हारा
बहुत था
बाहों को साँसो के लिए ....
कुछ भी तो नहीं माँगा था
तुमने मुझसे
न मैंने तुमसे .... इस पर भी
स्नेह का अनन्त विस्तार
अभी भी बिछा है बिना तुम्हारे
बारिश की बूँदों में बारिश के बाद
आँगन की सोंधी मिट्टी में
कि जैसे .... तुम आ गए
हर खुला-अधखुला…
ContinueAdded by vijay nikore on December 16, 2013 at 7:00am — 20 Comments
धैर्य रखो मत हो विकल,सुन लो मेरी बात!
अल्प दिवस हैं कष्ट के ,होगी स्वर्ण प्रभात!!
लोभ कपट को त्यागकर,मीठी वाणी बोल!!
यह जीवन का सार है,सहज वृत्ति अनमोल!!
अपनापन गोठिल जहाँ,वहाँ परस्पर द्वंद !
पापा कहते थे वहाँ ,बढ़ते दुःख के फंद!!
भ्रष्ट आचरण त्यागकर,करना मधुरिम बात !
होगी वर्षा नेह की,प्यार भरी सौगात !!
पापा कहते थे सदा,सुन लो मेरे लाल!
जीवन में होना सफल ,बहके कदम सँभाल!!
सत्कर्मों से ही…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on December 15, 2013 at 11:00pm — 15 Comments
मन अशांत चेहरा शान्त
आँखे शुन्य में निहारती
चारो तरफ था शोर था
मेरी गोद में सोया
मेरा सुहाग था
जीवन का उजाला
बच्चों का पालक
मेरा साहस मेरा श्रृंगार था
आज बीमार था
यहाँ मौत से थी जंग
वहाँ हड़तालियों की
वार्ता सरकार के संग
रोके थे गाड़ीयों के पहिये
आवाज साथीयों साथ रहीये
आती थी हिचिकियाँ बार बार
मौत का मौन निमंन्त्रण
मैं लाचार,कैसे चले पहीये
मेरा बच्चा जो चुप…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on December 15, 2013 at 9:00pm — 7 Comments
चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा
देख हताशा की मिट्टी मन में लिपटी है
स्वार्थ सिद्धि में लिप्त भावना भी सिमटी है
ले आओ तूफान के मिट्टी ये उड़ जाए
मन का दिव्य प्रकाश देख तम भी घबराए
कब तक अनुमानों के दुनिया मे खोएगा
चिर निद्रा से जाग युवा कब तक सोएगा
स्वाभिमान खो गया तुम्हारा क्यूँ ये बोलो
तनमन से नंगे होकर तुम जग भर डोलो
संस्कार मर्यादाओं का भान नहीं है
यकीं मुझे आया के तू इंसान नहीं है
जन्म…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 15, 2013 at 8:45pm — 4 Comments
वो हँसना, वो रोना
वो दौड़ना, वो भागना
वो पतंगे, वो कंचे
जने कहाँ छूट गए...
अरे...... हम तो बहुत दूर आ गए...
वो खेला, वो मेला
वो संगी, वो साथी
वो गुल्ली, वो डंडा
वो चोर, वो सिपाही
जाने कहाँ छूट गए ....
अरे...... हम तो बहुत दूर आ गए...
वो खुशी, वो हंसी
वो खो-खो, वो कबड्डी
वो आईस-पाईस, वो ऊंच-नीच
जाने कहाँ छूट गए....
अरे...... हम तो बहुत दूर आ गए...
अम्मा की रोटी, उनकी…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on December 15, 2013 at 8:30pm — 4 Comments
कह पथिक विश्राम कहाँ
मंजिल पूर्व आराम कहाँ
रवि सा जल
ना रुक, अथक चल
सीधी राह एक धर
रह एकनिष्ठ
बढ़ निडर .
अभी सुबह है,
बाकी है अभी
दुपहर का तपना.
अभी शाम कहाँ,
मंजिल पूर्व आराम कहाँ.
चलना तेरी मर्यादा
ना रुक, सीख बहना
अवरोधों को पार कर
मुश्किलों को सहना
आगे बढ़ , बन जल
स्वच्छ, निर्मल
अभी दूर है सिन्धु
अभी मुकाम कहाँ
मंजिल पूर्व आराम…
ContinueAdded by Neeraj Neer on December 15, 2013 at 7:00pm — 10 Comments
हजज मुरब्बा सालिम
१२२२/१२२२
हूँ प्यासा इक महीने से
मुझे रोको न पीने से
पिला साकी सदा आई
शराबी के दफीने से
पिला बेहोश होने तक
हटे कुछ बोझ सीने से
न लाना होश में यारो
नहीं अब रब्त जीने से
उतर जाने दो रग रग में
उड़े खुशबू पसीने से
जिसे हो डूबने का डर
रखे दूरी सफीने से
हुनर आता है जीने का
है क्या लेना करीने से
गिरा न अश्क उल्फत में
ये…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 15, 2013 at 11:30am — 14 Comments
मेरी दादी बताती थी कि ये सब मोह माया है,
कोई परियों की रानी है ये नानी ने बताया है।।
शिवपुरीवासियों दुगनी मोहब्बत से सुनो मुझको,
कटे हैं पंख पंछी के ये अब तक उड न पाया है।।
नहीं जब मानता था बात थप्पड मार देती थी,
मेरी मां ने मुझे रोते हुए हंसना सिखाया है।।
घमंडी मत बनो दौलत का पीछा मत करो इतना
जो अपने पास होता है वो भी सब कुछ पराया…
Added by atul kushwah on December 14, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
मोहब्बत में तुम्हारा ही लबों पर नाम आया है,
भ्रमर की गुनगुनाहट का कली पर रंग आया है।
यहां हर बज्म तेरे नाम से गुलजार होती है,
तुम्हारी मुस्कुराहट को गजल हमने बनाया है।।
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दिवाली लब से बोलो तो अली का नाम आता है
जनम भर सिर झुकाने का सलीका काम आता है,
मुल्क में धर्म को लेकर उपद्रव पालने वालों
लिखो और फिर पढो रमजान में भी राम आता है।।
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कली जब फूल बन जाए, भ्रमर तब…
ContinueAdded by atul kushwah on December 14, 2013 at 9:30pm — 6 Comments
सीमित संसाधनों के साथ
महती भौतिकता वादी प्यास की तृप्ति
शायद प्रेरित करती है तुम्हे सतत
बेच देने के लिए अपना जमीर ......
शराब और शबाब में मस्त
अपने दांतों से खींचते हुए
रोस्टेड चिकेन की टाँगे
भूलते रहे हो तुम अपने शक्ति और अधिकार ...
फिर समाज में रुतवा कायम करने की;
एक अच्छा पिता और पति कहलाने की ;
तुम्हारी ख्वाइश ने भी जी भर हवा दी है
अधिक से अधिक धनोपार्जन की तुम्हारी प्यास को
जायज या नाजायज
किसी…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on December 14, 2013 at 4:29pm — 7 Comments
साँसें लम्हों का क़र्ज़ मुझे बाँटती रहीं
ज़ख़्मों पे ख्वाहिशों के दर्द टाँकती रहीं
सोचा था कोशिशों को मिलेगी तो कहीं छाँव
क़िस्मत की मुठ्थियाँ ये जलन बाँटती रहीं
बच्चों की तरह बिल्कुल मिट्टी की स्लेट पर
हाथों की लकीरें भी वक़्त काटती…
Added by ajay sharma on December 13, 2013 at 10:34pm — 5 Comments
ग़म ए दौरा से बेख़बर हूँ मैं
निरंतर बह रहा हूँ समंदर हूँ मैं
सफ़र का बोझ उठाए हुए परिंदों की
थकन जो बाँट ले वो खंडहर हूँ मैं
ले ले इम्तहाँ मेरा कोई तूफ़ा भी अगर चाहे
ज़ॅमी पे सब्र की ज़िद का इक घर हूँ मैं
गमों के काफिलों की राह मैं "अजय"
उम्मीद का इक पत्थर हूँ मैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by ajay sharma on December 13, 2013 at 9:30pm — 6 Comments
1)
आपस के संवाद में, कितने ही मंतव्य !
कुछ तो हैं संयत-सहज, अक्सर हैं वायव्य
अक्सर हैं वायव्य, शब्द से चोट करारी
वैचारिक …
Added by Saurabh Pandey on December 13, 2013 at 2:00am — 55 Comments
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