1.
फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फाइलुन
२२ २२ २२ २२ २१२
बहरे मुतदारिक कि मुजाहिफ सूरत
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जब से वो मेरी दीवानी हो गई
पूरी अपनी राम कहानी हो गई
काटों ने फूलों से कर लीं यारियां
गुलचीं को थोड़ी आसानी हो गई
थोड़ा थोड़ा देकर इस दिल को सुकूं
याद पुरानी आँख का पानी हो गई
सारे बादल…
ContinueAdded by Rana Pratap Singh on July 6, 2015 at 7:00pm — 28 Comments
"अपने मज़हब पर मरने का हौसला है कि नहीं?"
"है, लेकिन मेरे अपने धर्म पर, तुम्हारे नहीं|"
"हमारा धर्म तो एक ही है..."
"तुम्हारे पास वहशत फ़ैलाने का हौसला है, मेरे पास न डरने का हौसला, तो फिर हमारे धर्म अलग हुए न?"
यह सुन तीसरा बोला:
"मेरे पास हर धर्म की लाशें सम्भालने का हौसला है|"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 8, 2015 at 10:30pm — 4 Comments
पुलक तरंग जान्हवी,
हरित ललित वसुंधरा,
गगन पवन उडा रहा है
मेघ केश भारती।
श्वेत वस्त्र सज्जितः
पवित्र शीतलम् भवः
गर्व पर्व उत्तरः
हिमगिरि मना रहा।
विराट भाल भारती
सुसज्जितम् चहुँ दिशि
हरष हरष विशालतम
सिंधु पग पखारता।
कोटि कोटि कोटिशः
नग प्रफ़्फ़ुलितम् भवः
नभ नग चन्द्र दिवाकरः
उतारते है आरती।
ओम के उद्घोष से
हो चहुँदिश शांति
हो पवित्रं मनुज मन सब।
और मिटे सब…
Added by Aditya Kumar on June 12, 2015 at 12:48pm — 19 Comments
पत्थर-दिल पूँजी
के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर
कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा
अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर
मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क न पड़ता
चोटी पर हो या खाई में
आसानी से नहीं उखड़ता
उखड़ गया तो
कितने ही मर जाते
इसकी ज़द में आकर
छूट मिली…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 13, 2015 at 4:15pm — 12 Comments
सड़क के बीचो –बीच नन्ही सी कोपल को पैर तले आते देख मनीष सिहर गया था .क्या करने जा रहा था .तपती धरा ,गर्म हवा ,पथरीली जमीन पर पसरा पिघला डामर,अंगुल बराबर हैसियत पर टक्कर इनसब से.सीना ताने उस हरीतिमा की जिजीविषा ने उसे हिम्मत से लबरेज कर दिया कि वह मजबूती से घर में सबसे बोल सके कि गर्भ में बेटी है तो क्या वह उसे पोषित करेगा .जिबह के लिए जाती बकरी सम उसकी पत्नी खिल गयी और कभी जुबान नहीं खोलने वाले बेटे के जुर्रत पर माता पिता थम गए .नेपथ्य में नन्हा अंकुर एक बड़े से फलदार पादप में…
ContinueAdded by Rita Gupta on June 15, 2015 at 5:55pm — 21 Comments
Added by shashi bansal goyal on June 11, 2015 at 8:30am — 26 Comments
पाठ्य पुस्तक में अपनी कविता देखकर कविता बहुत खुश हुई।पर यह क्या,कवयित्री की जगह तो नाम किसी कामिनी देवी का था।उसने कामिनी देवी का पता नोट किया,पता करने पर पता चला कि कामिनी एक बहुत ही लब्ध-प्रतिष्ठ हिंदी साहित्यकार के खानदान से है,जो अब इस दुनिया में नहीं हैं।कविता कामिनी से मिलने पहुँच गयी,बोली-
'तुमसे ऐसी उम्मीद न थी ।तूने मेरी कविता अपने नाम से पाठ्य क्रम में शामिल करा लिया।'
- 'ऐसी उम्मीद तो तुमसे मुझे नहीं थी,तू मेरी कविता को अपनी कह रही।'
-'अच्छा,चोरी और सीनाजोरी?'…
Added by Manan Kumar singh on June 3, 2015 at 5:00pm — 14 Comments
Added by kanta roy on May 23, 2015 at 6:36pm — 15 Comments
जीवन के जिस राग का अनुभव में था ताप l
बिन उसके जीवन वृथा, धन-वैभव या शाप ll
भय वश मैं झिझका रहा प्रेम न फटका पास l
गहरी नदिया पास थी अमिट और भी प्यास ll
मैं क्या जानूं उसे जो, छिप कर करता वार l
जीवन-रस अमृत सही, छलक रहा हो सार ll
कुछ तो फूटा है यहाँ, फैला है अनुराग l
बिन बदली भीगा बदन, ठंढी-ठंढी आग ll
यह सुगंध अनुराग की बढ़ा रही है चाह…
ContinueAdded by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on May 24, 2015 at 6:00am — 8 Comments
स्वप्न-भाव
मुझको सपने याद नहीं रहते
दर्द की कोख से जन्मे एक सपने के सिवा
आत्मीय पहचान का गहरापन ओढ़े
बार-बार लौट आता है वह
पलकों के पीछे के अंधेरों से धीरे-धीरे
जीवन के अंगारी तथ्यों की…
ContinueAdded by vijay nikore on May 24, 2015 at 8:30pm — 16 Comments
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
कहूँ,ओबीओ से में क्या चाहता हूँ
ग़ज़ल की सुहानी फ़ज़ा चाहता हूँ
यही आरज़ू लेके आया हूँ यारो
मैं इस मंच को लूटना चाहता हूँ
ये समझो मुझे कुछ भी आता नहीं है
मैं सब कुछ यहाँ सीखना चाहता हूँ
जुड़े भाई'मिथिलेश' ही सब से पहले
मैं उनसे ग़ज़ल की अदा चाहता हूँ
ये'गिरिराज' तो मेरे हम अस्र ठहरे
मैं उनसे भी लेना दुआ चाहता हूँ
बहुत कुछ मुझे उनसे करना है साझा
मैं 'सौरभ' से इक दिन मिला चाहता…
Added by Samar kabeer on May 24, 2015 at 6:30pm — 67 Comments
Added by दिनेश कुमार on April 21, 2015 at 8:30pm — 24 Comments
"अरे राधेलाल,फिर चाय का ठेला! तुम तो अपना धंधा समेटकर अपने बेटे और बहू के घर चले गए थे।"
"अरे सिन्हा साब!वो घर नही,काला पानी है काला पानी!सभी अपने ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हैं कि न कोई मुझसे बात करता और न कोई मेरी बात सुनता।बस सारा दिन या तो टी वी देखो या फिर छत और दीवारों को ताको।भाग आया।यहाँ आपलोगों के साथ बतियाते और चाय पिलाते बड़ा अच्छा समय बीत जाता है।अरे,आप किस सोच में पड़ गए?"
"सोच रहा हूँ कि मै तो तुम्हारी तरह चाय का ठेला भी नही लगा सकता।बेटा बहुत बड़ा अफ़सर जो ठहरा।"फीकी हँसी…
Added by Mala Jha on April 25, 2015 at 10:00am — 23 Comments
Added by विवेक मिश्र on April 27, 2015 at 8:30am — 9 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on March 24, 2015 at 9:56pm — 25 Comments
“ माँ! तुम्हे भैया के फ्लेट से आये हुए, यहाँ मेरे पास दो महीने हो गये है. उनका फ्लेट काफी बड़ा भी है, कुछ महीने वहाँ रह आओ. आखिर! उन्हें आपकी कमी भी तो महसूस होती होगी “
अचानक अपने कमरे में से निकलकर छोटे बेटे के इन उदारता भरे शब्दों को सुनकर, माँ को दो माह पहले बड़े बेटे की उदारता याद आ गई. आँखों में नमी लेकर अपने कपड़ो का बेग जमाते हुये उसे मन में दोनों बेटों के फ्लेट, अपनी कोख से बहुत ही छोटे लग रहे थे..
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on March 27, 2015 at 10:52am — 42 Comments
2122—1122—1122—22
रूठ मत जाना कभी दीन दयाला मुझसे
रखना रघुनाथ हमेशा यही नाता मुझसे
हर मनोरथ हुआ है सिद्ध कृपा से तेरी
तू न होता तो हर इक काम बिगड़ता मुझसे
नाव तुमने लगा दी पार वगरना रघुवर
इस भँवर में था बड़ी दूर किनारा मुझसे
जैसे शबरी से अहिल्या से निभाया राघव
भक्तवत्सल सदा यूँ प्रेम निभाना मुझसे
एक विश्वास तुम्हारा है मुझे रघुनंदन
दूर जाना न कोई करके बहाना मुझसे
जानकी नाथ…
ContinueAdded by khursheed khairadi on March 28, 2015 at 11:16pm — 9 Comments
1212 1122 1212 112/22
गई तो रंग बदलता ये शह्र छोड़ गई
घटा बहारों में ढलता ये शह्र छोड़ गई
सबा चमन से गुज़रते हुये महक लेकर
रविश-रविश* यूँ टहलता ये शह्र छोड़ गई *बाग़ के बीच की पगडण्डी
फ़िज़ा ए शह्र तलक आके यक-ब-यक आँधी
यूँ मस्तियों में उछलता ये शह्र छोड़ गई
तमाम रात भटकती वो तीरगी* आखिर *अँधेरा
पिघलती शम्अ पिघलता…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 1, 2015 at 5:30pm — 20 Comments
जल बहता है -
झरनें बनकर, लिए अपनी शुद्धता का बहाव
वन की गहराई को, पेड़, पौधों, बेलों की झूलन को लिए
जानी-अनजानी जड़ीबूटियों के चमत्कारों से समृद्ध होकर
निर्मलता में तैरते पत्थरों को कोमल स्पर्श से शालिग्राम बनाता हुआ
धरती का अमृत बनकर वनवासियों का, प्राणियों का विराम !
जल बहता है -
नदी बनकर, नालों का बोझ उठाती, कूड़ा घसीटती
मंद गति से बहती, अपने निज रंग पर चढी कालिमा को लिए
भटकती है गाँव-शहरों की सरहदों से छिल जाते अपने अस्तित्व को लेकर…
Added by Pankaj Trivedi on April 2, 2015 at 12:30pm — 15 Comments
१२१२/ ११२२/ १२१२/ २२ (सभी संभव कॉम्बिनेशन्स)
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हमें न ऐसे सताओ ख़ुदा का ख़ौफ़ करो
ज़रा क़रीब तो आओ ख़ुदा का ख़ौफ़ करो. …
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 2, 2015 at 2:00pm — 26 Comments
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