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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (460)

पढ़ सके तू जो अगर - ग़ज़ल (लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

2122    1122    1122    22



खूब परहेज भी करता है दिखाने के लिए

है जरूरत भी मगर प्यार जमाने के लिए /1



सोच मत सिर्फ  बहाना है बहाने के लिए

वक्त है पास कहाँ तुझको मनाने के लिए /2



शौक पाला जो सितम हमने उठाने के लिए

आ गई  धूप  भी  राहों  में सताने के लिए /3



देख हालात को खुद ही तू  जगा ले अब तो

कौन  आएगा  तुझे  और  जगाने  के लिए /4



पढ़ सके तू जो अगर रोज किताबों सा पढ़

है नहीं  बात कोई  मुझ में छुपाने के लिए /5



कैसी किस्मत थी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 29, 2016 at 10:55am — 12 Comments

महज इक आदमी है तू - ग़ज़ल-(लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

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भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग

दिखाई क्यों न देता  है धवल  जो दोस्ती  का रंग /1



सुना  है  खूब  भाता है  तुझे  तो  रंग भड़कीला

मगर जादा बिखेरे है  छटा सुन सादगी का रंग/2



किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें

किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3



महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम

करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4



अगर बँटना ही है तुझको…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2016 at 10:41am — 16 Comments

बरसात के पानी ने -ग़ज़ल (लक्ष्मण धामी मुसाफिर' )

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हर हद को ही  तोड़ा है  बरसात के पानी ने

किस बात  को माना  है बरसात के पानी ने /1



उस वक्त तो सूखा था जीवन क्या हरा होता

अब  गाँव  डुबाया  है  बरसात  के पानी ने /2



ये  जश्न  की  बेला  है  सूखे  की  विदाई की

नदिया को भी  न्योता है बरसात के पानी ने /3



मत खेत की  बोलो तुम भाग्य ही ऐसा  था

घर  द्वार भी  रौंदा है  बरसात  के पानी ने /4



कल रात…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 20, 2016 at 7:00am — 14 Comments

खूब हुई है यार मुनादी-ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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सुख  की  बात  यही  है  केवल  म्यानों  में  तलवारें हैं

बरना  घर  के  ओने  कोने  दिखती   बस  तकरारें  हैं /1



खुद ही जानो खुद ही समझो उस तट क्या है हाल सनम

इस  तट   आँखों   देखी   इतनी   बस  टूटी  पतवारें  हैं /2



रोज वमन  विष का  होता  है  नफरत का दरिया बहता

यार अम्न को  लेकिन  बिछती  हर  सरहद  पर तारें हैं /3



रोज  निर्भया  हो  जाती  है रेपिष्टों  का  यार  शिकार

गाँव  नगर …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2016 at 5:55am — 11 Comments

जतन कछ तो करो पेड़ों भले ही भार जादा अब -(गजल)- लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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सियासत काम कम करती मगर तकरार जादा अब

बुढ़ापा  चढ़  गया  है  या  पड़ी   बीमार  जादा  अब /1



जवानी   क्या   खुदा  ने  दी  फरामोशी  चढ़ी  सर  पर

लगे कम माँ की ममता जो सनम का प्यार जादा अब /2



बहुत था शोर पर्दे में रखे हैं खूब अच्छे दिन

उठा पर्दा तो  ये जाना  पड़ेगी मार जादा अब /3



कहा हाकिम ने है यारो चलेगी सम विषम जब से

हुए खुश यार  निर्माता  बिकेंगी  कार जादा अब /4



जहर लगती है मुझको तो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 30, 2015 at 11:00am — 4 Comments

झील ठहरी है बहुत वक्त से कंकड़ मारो -( ग़ज़ल ) -लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2122    1122    1122    22

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प्यार  कहते  हैं  कि  हर  चाव  बदल  देता है

एक  मरहम  की  तरह   घाव  बदल  देता है /1



अश्क लेकर  भी किसी को न  तू रोते दिखना

कहकहा  आँख  का   बरताव   बदल   देता है /2



झील  ठहरी  है  बहुत  वक्त से  कंकड़ मारो

एक  कंकड़   ही  तो   ठहराव   बदल  देता  है /3



अजनवी  सोच  के   यूँ    दूर  न   बैठो  हमसे  

मिलना  जुलना  ही  मनोभाव  बदल  देता   है /4



माँ की ममता से मिली सीख ये  हमको…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 22, 2015 at 11:55am — 22 Comments

माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने - गजल (लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’)

2212 1211 2212 12

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पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं

कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1

रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम

वैसे  गमों  से  रोज ही  दो   चार  हम भी हैं /2

माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने

तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं /3

तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर

नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /4

जब से  कहा  है आपने  बेताज हो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 21, 2015 at 11:30am — 20 Comments

घाव खोल कर बैठ न जाना -( ग़ज़ल )-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

ग़ज़ल

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2222    2222    2222    222

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आग लगाई क्या अपनों ने अरमानों के मेले में

बैठ गया जो आँसू  लेकर  मुस्कानों  के मेले में /1



कर के बहाना सब मरहम का दुखती  रग को छेड़ेंगे

घाव खोल कर  बैठ न  जाना  पहचानों  के  मेले में /2



छोड़ गए हैं अपने अकेला एक अपाहिज बोझ समझ

अब्दुल्ला  सा  मन  होता  है  अनजानों  के  मेले में /3



जब तक जेब भरी थी अपनी घर आगन सब अपना था

जेबें   खाली  तो  बदला  सब …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 16, 2015 at 11:43am — 20 Comments

है जनता की समस्या का -( गजल )- लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

नेताई गजल

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1222 1222 1222 1222

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सदन में आप गर आओ वतन की बात मत करना

सहोदर  जैसे आपस में  गबन  की बात मत करना /1



उड़ाए  हमने  चुपके   से  लँगोटों  के  लिए सच है

शहीदों के हों नंगे तन कफन की बात मत करना /2



कभी  तुम  बोल  देते  हो  कभी  हम  बोल  देते हैं

चुनावी बात सबकी ही वचन की बात मत करना /3



दिखा  करते  हैं  फूलों सा मगर फितरत  है शूलों सी

गले आपस में मिलने पर चुभन की बात मत करना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 14, 2015 at 11:36am — 13 Comments

लड़ाई आज सत्ता की -(ग़ज़ल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222    1222    1222    1222



भला सच यार कब  वैसे  चुनावी  आस को होना

चुराकर आम के सपने  सदा गुम खास को होना /1



हकीकत  लोकराजों  की  जो नौकर है तो नौकर है

भले कागज की बातों में है मालिक दास को होना /2



लड़ाई आज सत्ता की  बदलती रंग गिरगिट ज्यों

बहाना  फिर  फसादों  का  वही  इतिहास को होना /3



कहाँ  तक  हम  करें  बातें  बना  सौहार्द्र  जीने की

खपा इतिहास  में माथा  खतम विश्वास को होना /4



सुना कल शीत की बरखा बहाकर ले गई सबकुछ

मगर …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 10:51am — 2 Comments

वक्त का साया रहे जब - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ( ग़ज़ल )

4/

2122    2122    2122    212



खुद के  होने  का  जरा  भी  वो पता देता नहीं

अब किसी  को भी  गुनाहों की सजा देता नहीं /1



देवता  तो थे  बहुत  पर ढल गए बुत में सभी

क्यों कहूँ तुझसे की उनको क्यों सदा देता नहीं /2



मर  रही  इंसानियत  है  और  रिश्ते तार तार

क्यों कयामत  का भरोसा  अब खुदा देता नहीं /3



हर तरफ विष देखता हूँ  सुर असुर सब हैं लिए

क्या समंदर मथ भी लें तो अब सुधा देता नहीं /4



वक्त का  साया  रहे जब  मत निठल्ले बैठना

वक्त…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 7, 2015 at 11:41am — 8 Comments

प्रीत घट में से भला फिर - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ ( ग़ज़ल )

2122    2122    2122    212

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बेसदा  बस्ती  की  रस्मों को निभाना  था हमें

इसलिए  अपनी  जबानों  को  कटाना था हमें /1



या तो कातिल उस नगर में या बचे सब गैर थे

बोझ अर्थी  का स्वयं  की  खुद  उठाना था हमें /2



आग का  दरिया  मुहब्बत ताप आए हम भी यूँ

जो दिलों में जम गया  वो हिम गलाना था हमें /3



भर गए सुनते  थे वो ही चल दिए जो रीत कर

प्रीत घट  में से भला फिर क्या बचाना था हमें /4



रास्ता  यूँ तो  सफर का  जानते …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 6, 2015 at 5:30am — 8 Comments

डरे जो तिमिर से भला क्या मिलेगा - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’(गजल)

122    122    122    122

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डरे जो तिमिर से भला क्या मिलेगा

लड़ो  जुगनुओं  का  सहारा  मिलेगा /1



हमेशा   नहीं   यूँ   अँधेरा मिलेगा

भले  ही रहे कम  उजाला मिलेगा /2



कहावत है तम की जहाँ बस्तियाँ हों

वहीं   दीपकों   का   बसेरा   मिलेगा /3



चलो  ढूँढते  हैं   उसे   रात  भर अब

कहीं तो तिमिर का किनारा मिलेगा /4



भटक जाओ गर तुम गगन को निहारो

बताता  दिशा   इक  वो  तारा  मिलेगा /5



फकत जागने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 5, 2015 at 6:00am — 14 Comments

दोष आरक्षण के अब तो -(गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    212

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बारिशों के  हादसे  जब  दामनों  तक आ गए

दुख मेरी तन्हाइयों की बस्तियों तक आ गए /1



याद  मुझको   तो  नहीं  हैं  ठोकरें मैंने भी दी

क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए /2



सोचकर निकले थे  बाहर  कुछ  उजाला ढूँढ लें

घर के तम लेकिन हमारे  रास्तों तक आ गए /3



नाव  जर्जर  और  पतवारें   रहीं   सब  अनमनी

क्या बताएं किस तरह हम साहिलों तक आ गए /4



हो रही है माँग हर शू जाति  क्या औ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2015 at 10:47am — 14 Comments

नहीं मरहम बड़ा कोई ( ग़ज़ल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222  1222  1222   1222

नहीं है धार कोई भी समय की धार से बढ़कर

नहीं है भार कोई भी समय के भार से बढ़कर



भरे हैं   धाव   इसने  ही  बड़े  छोटे  सदा सब के

नहीं मरहम बड़ा कोई समय के प्यार से बढ़कर



उलझ मत सोच कर बल है भुजाओं में जवानी का

न देगा  पीर कोई   भी  समय  की  मार से बढ़कर



अगर दोगे समय को मान…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 12, 2015 at 10:40am — 3 Comments

पीड़ाओं के इस दलदल में - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2222    2222    2222    222

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रोने का तुम नाम न लेना रीत बनाओ हँसने की

रोने धोने में क्या रक्खा  होड़ लगाओ हँसने की /1

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माना पाँव धँसे हैं कब से पार उतरना मुश्किल है

पीड़ाओं के इस दलदल में गंग बहाओ हँसने की /2

******

परपीड़ा में सुख  मत खोजो ये पथ घेरे वाला है

दूर तलक जो ले जाती है राह बताओ हँसने की /3

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पोंछो आँसू बाढ़ में इसकी खुशियों के घर बहते हैं

निर्जन में भी  यारो  बस्ती…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 15, 2015 at 10:30am — 12 Comments

चल उम्मीदें बेच के आएं - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2222    2222    2222    222

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माना केवल रात ढली है  हमको उनका दीद हुए                  दर्शन

पर लगता है सदियाँ गुजरी अपने घर में ईद हुए /1

*******

हमने तो कोशिश की वो भी हमसे जुड़ते यार मगर

रिश्तों के पुल  बरसों पहले  उनसे  ही तरदीद हुए /2        रद्द करना / तोडना 

*******

भीड़ जुटाई…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2015 at 10:54am — 19 Comments

है तमस भरी कि हवस भरी- ( एक तरही ग़ज़ल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

11212     11212     11212      11212

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नई ताब दे  नई सोच दे  जो पुरानी है   वो निकाल दे

रहे रौशनी  बड़ी देर तक  वो दिया तू अब यहाँ बाल दे

***

है तमस भरी  कि हवस भरी नहीं कट रही ये जो रात है

तू ही चाँद है तू ही सूर्य भी  मेरी रात अब तो उजाल दे

***

जो नहीं रहे वो तो फूल थे ये जो बच रहे वो तो खार हैं

मेरे  पाँव भी  हुए  नग्न हैं  मेरी  राह अब  तू बुहार दे

***

न तो पीर दे  न चुभन ही दे मेरे पाँव में  ये…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2015 at 10:46am — 10 Comments

देख जलता रोम नीरो सा बजा मत बंशियाँ - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’



2122      2122     2122     212

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पत्थरों  के  बीच   रहकर  देवता  बनकर  दिखा

दीन मजलूमों के हित में इक दुआ बनकर दिखा

****

कर  रहा  आलोचना  तो   सूरजों   की   देर  से

है अगर  तुझमें हुनर तो  दीप सा बनकर दिखा

****

चाँद पानी में  दिखाकर स्वप्न  दिखलाना सहज

बात तब  है  रोटियों  को  तू तवा  बनकर दिखा

****

देख  जलता  रोम  नीरो  सा  बजा मत बंशियाँ

जो हुए  बरबाद  उनको  आसरा  बनकर दिखा

****

है सहोदर  तो  लखन …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2015 at 10:57am — 9 Comments

गर जाग गया होता अंतस जो अजानों से - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

221  1222  221  1222

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कब  मोह  दिखाती  है  सरकार  किसानों से

मतलब  तो उसे  है बस  दो  चार दुकानों से

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रिश्तों  की  कहाँ कीमत  वो लोग  समझते हैं

है   प्यार  जिन्हें  केवल  दालान  मकानों  से

****

वो  मान   इसे  लेंगे  अपमान   बुजुर्गी  का

तकरार   यहाँ  करना   बेकार   सयानों  से

****

कदमों  को मिला पाए कब साथ नयों का हम

कब  यार  निभाई  है  तुमने  भी  पुरानों  से

****

उस  रोज  यहाँ होगा सतयुग सा  नजारा भी

जिस रोज …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 21, 2015 at 12:16pm — 15 Comments

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