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सदस्य कार्यकारिणी
ढूँढो कहावतें ||दोहे||

कष्ट सहे जितने यहाँ,डाल समय की धूल|

अंत भला सो सब भला ,बीती बातें भूल||

 

विद्या वितरण से खुलें ,क्लिष्ट ज्ञान के राज|

कुशल तीर से ही सधे ,एक पंथ दो काज||

 

कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|

चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||

 

जिसके दर पर रो रहा , वो है भाव विहीन|

फिर क्यों आगे भैंसके,बजा रहा तू बीन|| 

 

सफल करो उपकार में,जीवन के दिन चार|

अंधे की लाठी पकड़ ,सड़क करा दो पार||

  …

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Added by rajesh kumari on December 11, 2013 at 2:30pm — 33 Comments

ठिठुरता मन........

रात का दूसरा पहर 

दूर तक पसरा सन्नाटा और

गहरा कोहरा

टिमटिमाती स्ट्रीटलाइट

जो कोहरे के दम से

अपना दम खो चुकी है लगभग

कितनी सर्द लेहर लगती है

जैसे कोहरे की प्रेमिका

ठंडी हवा बन गीत गाती हो

झूम जाती हो

कभी कभी हल्के से

कोहरे को अपनी बाहों में ले

आगे बढ़ जाया करती

पर कोहरा नकचढ़ा बन वापस

अपनी जगह आ बैठता

ज़िद्दी कोहरा प्रेम से परे

बस अपने काम का मारा

सर्द रात में खुद का साम्राज्य

जमाये है हर…

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Added by Priyanka singh on December 11, 2013 at 10:00pm — 41 Comments

भू पे उतरी चंद्रिका

श्वेत वसना दुग्ध सी, मन मुग्ध करती चंद्रिका।

तन सितारों से सजाकर, भू पे उतरी चंद्रिका।

 

चाँद ने जब बुर्ज से,…

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Added by कल्पना रामानी on December 2, 2013 at 8:00pm — 33 Comments

मैं एकलव्य नहीं (लघुकथा)

परीक्षाएं निकट थीं लेकिन टीचर पिछले कई दिनों से क्लास से गायब थे. पढ़ाई का बहुत हर्जा हो रहा था जिसे देखकर उसे बेहद गुस्सा आता. रह रह कर उसके सामने अपनी विधवा बीमार माँ का चेहरा घूम जाता, जो लोगों के घरों में झाड़ू पोछा कर उसे पढ़ा रही थी. आखिर उस से रहा न गया और वह शिकायत लेकर प्रधानाचार्य के पास जा पहुंचा।

 “उस कक्षा में और भी तो विद्यार्थी है, सिर्फ तुम्हें ही शिकायत क्यों है।”
“क्योंकि मैं एकलव्य नहीं हूँ सर।”

(मौलिक और अप्रकाशित)    

Added by Ravi Prabhakar on December 3, 2013 at 10:00am — 24 Comments

अर्थ

चोटिल अनुभूतियाँ

कुंठित संवेदनाएँ

अवगुंठित भाव

बिन्दु-बिन्दु विलयित

संलीन

अवचेतन की रहस्यमयी पर्तों में

 

पर

इस सांद्रता प्रजनित गहनतम तिमिर में भी

है प्रकाश बिंदु-

अंतस के दूरस्थ छोर पर

शून्य से पूर्व

प्रज्ज्वलित है अग्नि

संतप्त स्थानक 

 

चैतन्यता प्रयासरत कि

अद्रवित रहें अभिव्यक्तियाँ

 

फिर भी

अक्षरियों की हलचल से प्रस्फुटित

क्लिष्ट, जटिल शब्दाकृतियों…

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Added by बृजेश नीरज on December 2, 2013 at 9:00am — 37 Comments

स्मृति

आह ! वह सुख ----

पावसी मेह  में भीगा हुआ चंद्रमुख I

यौवन की दीप्ति से राशि-राशि  सजा 

जैसे प्रसन्न उत्फुल्ल नवल नीरजा I  

 

मुग्ध लुब्ध दृष्टि ----

सामने सदेह सौंदर्य एक सृष्टि I

अंग-प्रत्यंग प्रतिमान में ढले

ऐसा रूप जो ऋतुराज को छले  I

 

नयन मग्न नेत्र------

हुआ क्रियमाण कंदर्प-कुरुक्षेत्र I

उद्विग्न  प्राण इंद्रजाल में फंसे

पंच कुसुम बाण पोर-पोर में धंसे I

 

वपु धवल कान्त…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 22, 2013 at 1:06pm — 32 Comments

जहरीली शराब

टूटी चूड़ियाँ

बह गया सिन्दूर

साथ ही टूटा

अनवरत

यंत्रणा का सिलसिला

बह गया फूटकर

रिश्तों का एक घाव

पिलपिला

अब चाँद के संग नहीं आएगा

लाल आँखें लिए

भय का महिषासुर

कभी कभी अच्छा होता है

असर

जहरीली शराब  का ..

... नीरज कुमार ‘नीर’

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Neeraj Neer on November 14, 2013 at 8:30pm — 32 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
'तुम' ...................डॉ० प्राची

देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम 

और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'

-जिसे पहचानते हो तुम !

उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा 

एक अभिन्न को-

खामोश मन मंथन की गहराइयों में 

चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में 

पराचेतन की दिव्यता में.....

पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'

क्या पहचान भी पाओगे 

अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-

एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?

(मौलिक और…

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Added by Dr.Prachi Singh on November 11, 2013 at 2:30pm — 39 Comments

|| अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार - 2014 ||

दोस्तो,

अंजुमन प्रकाशन द्वारा 27 अक्टूबर 2013 को लखनऊ के पुस्तक लोकार्पण समारोह में की गयी घोषणा के अनुसार अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार-2014 के नियम एवं शर्त उपलब्ध हैं | युवा शाइरों से निवेदन है कि इस पुरस्कार योजना में शामिल हो कर इसे सफल बनाएँ व इसका लाभ उठायें |…



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Added by वीनस केसरी on November 3, 2013 at 7:30pm — 27 Comments

नव युवा हे ! चिर युवा .................. . (अन्नपूर्णा बाजपेई )

नव युवा हे ! चिर युवा तुम

उठो ! नव युग का निर्माण करो ।

जड़ अचेतन हो चुका जग,

तुम नव चेतन विस्तार करो ।

पथ भ्रष्ट लक्ष्य विहीन होकर

न स्व यौवन संहार करो ।

उठो ! नव युग का निर्माण करो ...............

दीन हीन संस्कार क्षीण अब

तुम संस्कारित युग संचार करो ।

अभिशप्त हो चला है भारत !!

उठो ! नव भारत निर्माण करो ।

नव युवा हे ! चिर युवा ..............................

गर्जन तर्जन  ढोंगियों का

कर रहा मानव मन…

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Added by annapurna bajpai on November 8, 2013 at 7:00pm — 31 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
एक तरही ग़ज़ल

उसकी बातों पे मुझे आज यकीं कुछ कम है

ये अलग है कि वो चर्चे में नहीं कुछ कम है

जबसे दो चार नए पंख लगे हैं उगने

तबसे कहता है कि ये सारी ज़मीं कुछ कम है

मैं ये कहता हूँ कि तुम गौर से देखो तो सही

जो जियादा है जहां वो ही वहीँ कुछ कम है

मुल्क तो दूर की बात अपने ही घर में देखो

'कहीं कुछ चीज जियादा है कहीं कुछ कम है'

देख कर जलवा ए रुख आज वही दंग हुए

जो थे कहते तेरा महबूब हसीं कुछ कम है

कुछ तो…

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Added by Rana Pratap Singh on November 6, 2013 at 11:26pm — 41 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : मतिमूढ़ (गणेश जी बागी)

संता लगभग एक साल बाद अपने गाँव लौट रहा था । बसंता इतना खुश था कि जो भी वेंडर ट्रेन मे आता वो कुछ न कुछ खरीद लेता, माला, गुड़िया, चूड़ी, बिंदी, सोनपापड़ी और भी बहुत कुछ । पैसे देने के लिए हर बार वह नोटों से भरा पर्स खोल लेता । अगल बगल के यात्रियों ने उसे डांटा भी, मगर भोला भला बसंता हँस कर बात टाल जाता ।    



आख़िर वही हुआ जिसका डर था, चलती ट्रेन में किसी ने उसका रुपयों से भरा पर्स निकाल लिया । बसंता ज़ोर ज़ोर से रोने लगा, तब…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 1, 2013 at 9:00pm — 34 Comments

आपका वो मज़ाक अच्छा था

मिले तुम इत्तिफाक अच्छा था ।
हसरते दिल फिराक अच्छा था ।

मुझ से बोला कि प्यार है तुमसे ,
आपका वो मज़ाक अच्छा था ।

पाके खोया तुम्हे तो ये पाया ,
मै तनहा ही लाख अच्छा था ।

नज़रें फेरे जो तुमको देखा तो ,
लम्हा वो दर्द नाक अच्छा था ।

प्यार में मेरे हज़ारों कमियाँ ,
तेरा धोखा तो पाक अच्छा था ।

कस्मे वादे रहीं न रस्में वफ़ा ,
दिल दिल का तलाक अच्छा था ।

मौलिक व अप्रकाशित
नीरज

Added by Neeraj Nishchal on October 29, 2013 at 6:30pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आँखों देखी – 5 आकाश में आग की लपटें

आँखों देखी – 5 आकाश में आग की लपटें

 

भूमिका :

           पिछले अध्याय (आँखों देखी – 4) में मैंने आपको बताया था कैसे एक तटस्थ डॉक्टर के कारण हम लोग किसी सम्भावित आपदा को टाल देने में सक्षम हुए थे. शीतकालीन अंटार्कटिका का रंग-रूप ही कुछ अकल्पनीय ढंग से अद्भुत होता है.…

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Added by sharadindu mukerji on October 30, 2013 at 2:30pm — 28 Comments

दीपावली : दो

माँ अभी तक काम से नहीं लौटी थी ।आठ साल कि बिरजू , दरवाजे पर बैठी, सामने आकाश में छूटती रंग- बिरंगी आतिशबाजी को मुग्ध भाव से देख रही थी । जिधर नज़र जाती दूर तक दीपों , मोमबत्तियों और बिजली की झालरों की कतारें दिखाई पड़ती थीं । अचानक बिरजू के दिमाग में एक विचार कौंधा। वह उठीं । अपने जमा किये पांच रुपये निकाले और दूकान से कुछ दीये खरीद लायी । झोपड़ी के कोने में बने चूल्हे के पास में रखी बोतल से सरसों का तेल निकाल कर उसने सारे दीयों में भर दिया । खाली बोतल वहीँ छोड़ कर उसने दियासलाई उठाई । तेल भरे…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on November 1, 2013 at 6:00am — 25 Comments

सुनो ऋतुराज- 15

सुनो ऋतुराज- 15 

सुनो ऋतुराज!!

वह एक अन्धी दौड थी 

हांफती हुई 

हदें फलांगती हुई 

परिभाषाओं के सहश्र बाड़ो को 

तोडती हुई

फिर भी वह भ्रम नही टूटा 

जिसे तोडने के लिये संकल्पित थे हम 

ऋतुओं का मौन यूँ ही बना रहा 

सावन बरस् बरस कर सूख गया 

हम अन्धड़ के वेग मे भी तने रहे 

और आसक्ति का वृक्ष सूख गया 

सुनो ऋतुराज 

लमहों का बही खाता 

जब भी खोलोगे 

दग्ध ह्रदय पर लिखा 

शुभलाभ अवश्य दिखेगा …

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Added by Gul Sarika Thakur on November 5, 2013 at 11:30am — 11 Comments

गीत

मधुमति,

मेरे पदचिन्‍हों को

पी लेता है

मेरा कल

और मेरे

प्राची पनघट पर

उग आते

निष्‍ठुर दलदल

ऐसे में किस स्‍वप्‍नत्रयी की

बात करूं मेरे मादल ?

वसुमति,

मेरे जिन रूपों को

जीता है

मेरा शतदल

उस प्रभास के

अरूण हास पर

मल जाता

कोई काजल

ऐसे में किस स्‍वप्‍नत्रयी की

बात करूं मेरे मादल ?

द्युमति,

मेरे तेज अर्क में

घुल…

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Added by राजेश 'मृदु' on October 31, 2013 at 3:39pm — 14 Comments

हल्द्वानी में आयोजित ओ बी ओ ’विचार गोष्ठी’ में प्रदत्त शीर्षक पर सदस्यों के विचार : अंक 9

अंक 8 पढने हेतु यहाँ क्लिक करें…….

आदरणीय साहित्यप्रेमी सुधीजनों,

सादर वंदे !

ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति द्वारा "ओ…

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Added by Admin on October 29, 2013 at 3:30pm — 6 Comments

!!! नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से !!!

!!! नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से !!!
दुर्मिल सवैया - (आठ सगण-112)

तन श्वेत सुवस्त्र सजे संवरें, शिख केश सुगंध सुतैल लसे।
कटि भाल सुचन्दन लेप रहे, रज केसर मस्तक भान हसे।।
हर कर्म कुकर्म करे निश में, दिन में अबला पर ज्ञान कसे।
नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से, मन से अति नीच सुयोग डसे।।

के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 22, 2013 at 6:20pm — 29 Comments

गुलाब और स्वतंत्रता

समतल उर्वर भूमि पर

उग आयी स्वतंत्रता

जंगली वृक्ष की भांति

आवृत कर लिया इसे

जहर बेल की लताओं ने

खो गयी इसकी मूल पहचान

अर्थहीन हो गए इसके होने के मायने .

..

गुलाब की पौध में,

नियमित काट छांट के आभाव में

निकल आती हैं जंगली शाख.

इनमे फूल नहीं खिलते

उगते हैं सिर्फ कांटे.

लोकतंत्र होता है गुलाब की तरह ...

… नीरज कुमार ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Neeraj Neer on October 22, 2013 at 7:30pm — 17 Comments

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