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अपनी करनी पार उतरनी , चिड़ी खेत चुग जाये ।

लालच डुबाया । सार छन्द ।

लोभ में कभी क्षोभ होत है , मन पीड़ा भर जाये ।

अपनी करनी पार उतरनी , चिड़ी खेत चुग जाये ।

देख हार फँस जाते लोभी , तब फिर मन पछताये ।

माया मोह काम ना आये , कहीं जान फँस जाये ।

देख आया मेल लंदन से , फौजी लालच आया ।

सौ करोड़ की लाटरी जान , सबका जी ललचाया ।

रिटायर कैपटन था पैसा , भेज अमल फरमाया ।

बैंक अकाउंट मेल भेजा , नाम गाँव मँगवाया ।

सर्विस टेक्स पहले भेजो , फिर पैसा आयेगा ।

बारह लाख नगद मँगवाया , रकम कौन लायेगा ।

जयपुर… Continue

Added by Shyam Narain Verma on November 27, 2012 at 2:25pm — 1 Comment

औरत के पास तो सिर्फ बदन होता है

Muslim_man : Muslim Arabic couple inside the modern mosque Stock Photo stock photo : Young brunette beauty or bride, behind a white veil

मर्द बोला हर एक फन मर्द में ही होता है ,

औरत के पास तो सिर्फ बदन होता है .



फ़िज़ूल बातों में वक़्त ये करती जाया ,

मर्द की बात में कितना वजन होता है !



हम हैं मालिक हमारा दर्ज़ा है उससे ऊँचा ,

मगर द्गैल को ये कब सहन होता है ?



रहो नकाब में तुम आबरू हमारी हो ,

बेपर्दगी से बेहतर तो कफ़न होता है .



है औरत बस फबन मर्द के घर की 'नूतन'

राज़ औरत के साथ ये भी दफ़न होता है…

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Added by shikha kaushik on November 27, 2012 at 1:30pm — 9 Comments

दिल लगाकर प्रीत बढ़ाकर चल दिये..

दिल लगाकर प्रीत बढ़ाकर चल दिये ।
अपना बनाकर दिल चुराकर चल दिये ।


अब जायेगें कब आयेगें दिल है बेकरार ,
वादा करके , गुल खिलाकर चल दिये ।


भूल ना जाये ये कहीं दुष्यन्त की तरह ,
साथ निभाकर दिल लगाकर चल दिये ।


हर किसी से दिल लगाना कितना मुश्किल ,
कभी ना भूलेगे आस दिलाकर चल दिये ।


दिल कहता रहा अब ना जाओ छोड़कर ,
वर्मा देके दिलासा , हाथ मिलाकर चल दिये ।

  • श्याम नारायण वर्मा

Added by Shyam Narain Verma on November 27, 2012 at 11:30am — 3 Comments

मुक्तिका: हो रहे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

हो रहे

संजीव 'सलिल'

*

घना जो अन्धकार है तो हो रहे तो हो रहे।

बनेंगे हम चराग श्वास खो रहे तो खो रहे।।

*

जमीन चाहतों की बखर हँस रही हैं कोशिशें।

बूंद पसीने की फसल बो रहे तो बो रहे।।

*

अतीत बोझ बन गया, है भार वर्तमान भी।

भविष्य चंद ख्वाब, मौन ढो…

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Added by sanjiv verma 'salil' on November 27, 2012 at 9:24am — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
शक्ति धन (कुण्डलिया छंद)

धन से पत्थर पूजते ,मन में लेकर पाप 

ये आडम्बर देखकर ,निर्धन देगा श्राप 

निर्धन देगा श्राप ,उलट फल देगी पूजा 

दीन  धर्म से श्रेष्ठ , कर्म  ना कोई दूजा 

मन में रख सद्भाव ,करो सभी भक्ति मन से 

निर्धन  का हर  घाव , भरो  उसी शक्ति धन से 

********************************************

Added by rajesh kumari on November 27, 2012 at 9:22am — 6 Comments

लघुकथा- 'दिल' और 'दिमाग'

बहुत पहले 'दिल' और 'दिमाग' अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उनका उठना-बैठना, देखना-सुनना, सोचना-समझना और फैसले लेना, सब कुछ साथ-साथ होता था।

फिर इक रोज़ यूँ हुआ कि 'दिल' को अपने जैसा ही एक हमख्याल 'दिल' मिला। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही, धड़कनों की रफ़्तार बढ़ी सी मालूम हुई। मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ रोज़ में, दिलों की अदला-बदली भी हो गयी। अब एक दिल मचलता तो दूसरे की धड़कने भी तेज हो जातीं; एक रोता तो दूजे की धड़कने भी धीमे होने लगतीं। बस एक दिक्कत थी कि दोनों सही फैसले नहीं कर पाते…

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Added by विवेक मिश्र on November 27, 2012 at 2:30am — 15 Comments

रूबाई.......

रूबाई
.....................................
कुछ कहते हैं परिधान बदल कर देखो।
कुछ कहते हैं पकवान बदल कर देखो।
लेकिन मैं तो भगवान से ये कहता हूँ।।
भगवान ये इन्सान बदल कर देखो।। सूबे सिंह सुजान

Added by सूबे सिंह सुजान on November 26, 2012 at 11:41pm — No Comments

चाँद को भी हम कब तलक देखें

चाँद को भी हम कब तलक देखें
न देखें तुम्हे तो क्या फलक देखें

खुद चला आया जो आफताब आँखों में
फिर क्या किसी शम्मा की झलक देखें

आने का यकीं दे चले थे मुस्कुरा के वो
कुछ और हम ये तनहा सड़क देखें

वो न देखें मेरे ये लडखडाये से कदम
देखना है तो मेरी आँखों में चमक देखें

क्या देखते हैं आप यूं काफियों को घूर कर
मिल जाए जो जहां बस सबक देखें

-पुष्यमित्र उपाध्याय



Added by Pushyamitra Upadhyay on November 26, 2012 at 10:36pm — 7 Comments

मुक्तिका : अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है

टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है

अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है

 

परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर

लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है

 

गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे

झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है

 

उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन

उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है

 

आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें

इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है

 

जितना कम…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 26, 2012 at 9:30pm — 11 Comments

ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-रविकर

2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2

टिप्पणी भी अब नहीं छपती हमारी ।
छापते हम गैर की गाली-गँवारी ।

कक्ष-कागज़ मानते कोरा नहीं अब-
ख़त्म होती क्या गजल की अख्तियारी ।

राष्ट्रवादी आज फुर्सत में बिताते -
कल लड़ेंगे आपसी वो फौजदारी ।

नाक पर उनके नहीं मक्खी दिखाती-
मक्खियों ने दी बदल अपनी सवारी ।

ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।

Added by रविकर on November 26, 2012 at 8:00pm — 12 Comments

बूढ़ा बैल । ताटंक छन्द ।

बूढ़ा बैल । ताटंक।

तड़प रहा हूँ भूख प्यास से , बँधा खूँटे में कसाई ।

मालिक ने ही जब बेच दिया , अंजान कब दया आई ।

देखकर ही ताकतवर बदन , बेचा कीना जाता था ।

जो भी ले गया काम कराया , स्नेह से वो खिलाता था ।

दम ना रहा जब बदन में तब , कोई साथ नहीं देता ।

बूढ़ा कह कर मजाक उड़ाते , कुढ़ कर ही मैं सुन लेता ।

खान पान को कौन पूछता , पास कोई न आता है ।

दिन बीते कड़ी मेहनत में , रहा न कोई नाता है ।

थका बदन आँखें ना देखें , किसी को रहम न आये ।

भूल गये सब दुनिया… Continue

Added by Shyam Narain Verma on November 26, 2012 at 5:00pm — 9 Comments

ना जाने कितने कसाब?

आखिरकार कसाब मारा गया! एक लम्बा चला आ रहा विरोध और इंतज़ार ख़त्म हुआ! इस मृत्यु से उन सभी शहीदों जिन्होंने कि देशरक्षा के लिए अपने प्राण निस्वार्थ अर्पण कर दिए के परिजनों को मानसिक शांति तो मिली होगी किन्तु उन्होंने जो खोया उसकी भरपाई नहीं हो सकती|

  कसाब को मारना सिर्फ एक कदम था निष्क्रियता से उबरने के लिए, हालांकि ये बहुत जरुरी भी था| मगर सवाल ये उठता है कि क्या कसाब को मार देना ही उन शहीदों के लिए श्रृद्धांजलि होगी? क्या कसाब ही अंतिम समस्या थी? शायद नहीं! कसाब उस समस्या का सौंवा हिस्सा…

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Added by Pushyamitra Upadhyay on November 26, 2012 at 4:49pm — 1 Comment

तबादला

तबादला

तबादला कोई खौफ नहीं,

नियमित घटना है,

रहो सदा तैयार इसके लिए,

यह नौकरी का हिस्सा है ।

 

कभी पसंद का,तो कभी मुश्किल का होता है,

कभी सुख तो कभी दुख देता है,

परिवर्तन संसार का नियम है यारो,

तबादले को खुशी से अपनालों यारो ।

 

बेमौसम तबादले तकलीफ़ देते हैं,

पत्नी…

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Added by akhilesh mishra on November 26, 2012 at 3:00pm — 3 Comments

जाओ तूती

नक्‍कारों में

गूंज रही फिर

तूती की आवाज

नहीं जागना

आज पहरूए

खुल जाएगा राज



लाचार कदम

बेबस जनता के

होते ही

कितने हाथ

आधे को

जूठी पत्‍तल है

आधे को

नहीं भात



अकदम सकदम

जरठ मेठ है

और भीरू

युवराज

भव्‍य राजपथ

हींस रहे हैं

सौ-सौ गर्धवराज



आओ खेलें

सत्‍ता-सत्‍ता

जी भर खेलें

फाग

झूम-झूम कर

आज पढ़ेंगें

सारी गीता

नाग



जाओ

इस नमकीन शहर से

तूती अपने…

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Added by राजेश 'मृदु' on November 26, 2012 at 12:30pm — 2 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
मैं वही हूँ

देखा है

क्रूर वक़्त को,

पैने पंजों से नोचते

कोमल फूलों की मासूमियत

और बिलखते बिलखते

फूलों का बनते जाना पत्थर,

 

देखा है

पत्थर को गुपचुप रोते

फिर कोमलता पाने को

फूल सा खिल जाने को

मुस्काने को, खिलखिलाने को,

 

देखा है

अटूट पत्थर का

फूल बन जाना

फिर कोमलता पाना

महकना, मुस्काना, इतराना,

 

देखा है

सब कुछ बदलते

आकाश से पाताल तक

फिर भी मैं वही हूँ…

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Added by Dr.Prachi Singh on November 26, 2012 at 9:38am — 10 Comments

इक पुरानी ग़ज़ल

इक पुरानी ग़ज़ल से आप सब के साथ मैं भी अपने पुराने दिनों की याद कर रहा हूँ, ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

कर्म के ही हल सदा रखती है कन्धों पे नियति 

पर कभी फसलें मेरी बोनें नहीं देती मुझे 
मेरी देहरी ही बड़ा होने नहीं देती मुझे 
पीर पैरों के खड़ा होने नहीं देती मुझे 
फिर वही आँगन की परिधि में बँट…
Continue

Added by ajay sharma on November 26, 2012 at 12:00am — 3 Comments

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम

छुपा के होठों से गम को अपने

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

बना लो गीतों को मेय का प्याला

छलकती बूंदों ही को कहो तुम |

 

ये गम की तड़पन से लिपट लो,

हवा दो आग को जितनी भी तुम |

सुख को हौले से फिर भी छू लो ,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

 

मंजिल पे जख्मों को तो न देखो,

मंजिल को छू लो नयनों से अपने |

बसा के आँखों में कल के सपने,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

 

आसान नहीं खुद को पहचान…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:17pm — 6 Comments

भारत माता की आरती

तेरे नयनों में भर आये नीर तो, लहू मैं बहा दूं माँ,

न्योच्छार तुझपे जीवन करूँ, क्या जिस्म क्या है जाँ |

 

तू धीर गंभीर हिमाला को

मस्तक पे धारण करे |

तू चंचल गंगा जमुना का

प्रतिक्षण वरण करे |

विविध भी एक हैं , देख ले चाहे जहां |

 

जब उठा के लगा दें

हम मस्तक पे धूल |

बसंत है चारों तरफ

खिले मुस्कान के फूल |

नफरत भी बन जाती है, प्रेम का समाँ |

 

तेरे बेटों की ओ माँ

बस यही है आरजू…

Continue

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:16pm — 5 Comments

हर दुःख मुझे देता है प्रेरणा

हर दुःख मुझे देता है प्रेरणा

संघर्ष को और बढाने की |

हर हार मुझे देती है आशा

जय को करीब लाने की |

 

बिखर जाये जब मन मेरा

मैं उसके मोती चुन लेता हूँ |

निराशा के हर अंगारे को

मैं अमृत समझ के सहता हूँ |

 

ये निराशा मेरे प्रेम की भाषा

जल्दी ही बन जाने की |

हर दुःख मुझे देता है प्रेरणा.....

 

पतझर में जो झर गये पत्ते

आने पे सावन खिल जायेंगे |

मनुष्य यदि प्रयास करे तो

बिछड़े क्षण…

Continue

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:14pm — 4 Comments

जाने कब क्या हो जाये

इस ज़िंदगी के किस पल में

जाने कब क्या हो जाये |

मिल कर सारे जहाँ की ख़ुशी,

ज़िंदगी ही खो जाये |

 

खुशियों के दर्पण के पीछे,

हम दीवाने हो जाते हैं |

दीवानगी में ये ना सोचे,

अक्स ही हमें सुहाते हैं |

सुख के हर इक अक्षर को, दुःख जाने कब धो जाये |

 

सुख तो इक आज़ाद पंछी,

पिंजरे में न रह पायेगा |

दिल का सूना पिंजरा भरने,

दुःख ही फिर से आ जाएगा |

जाने कब गम का आंसू, दामन को भिगो जाये…

Continue

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:00pm — 6 Comments

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