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एक ग़ज़ल

मिल कर तुमसे न फिर देर तलक होश आया
जैसा सोचा था, उस से कहीं बढ़कर तुम्हें पाया
 
उस मोड़ से आप तो कर गए 'खुदा-हाफ़िज़' लेकिन

चलता रहा देर तलक साथ मेरे आपका साया

 
तेरे हाथों की खुशबु हो जाये क़ैद मुठ्ठी में

यही सोच, किसी शै को देर तक न मैं छू…
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Added by AjAy Kumar Bohat on June 28, 2012 at 2:34pm — 1 Comment

क्यों अकड़ते है लोग

न जाने क्यों अकड़ते है लोग

जब मालूम होता है सभी को

जाना है एक दिन इस जहां से

प्यार से जीने में क्या जाता है

अकड़ से क्या मिल जाता है

इतने अनजान भी नहीं लोग

बचपन में ही जान जाते है

प्यार से मिलता है प्यार

अकड़ से मिलती है डांट

तब भी न जाने कहां से

जुबान में आ जाती है खटास

इतिहास की बात करता नहीं

खुद देखा है मैंने

कल तक जिन्हें अकड़ते हुए

रूखसत हो गए जहां से

अब वो रहते प्यार से

करते रहते…

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Added by Harish Bhatt on June 28, 2012 at 1:53pm — 2 Comments

सलामे मोहब्बत

ना देख यूँ प्यार से ऐ मेरे हमदम, ये दिल जला है.

हूँ अकेला, ये तेरी नेकी का शिला है.....00
.
कदम क्यों बढाया साथ चलने को,
जब छोड़ना ही था खाक मलने को,
तनहइयो का अब हुआ ऐसा काफिला है,
हूँ अकेला, ये तेरी नेकी का शिला है...०१
.
आँखों का तेरे वो पैगाम अच्छा था.
जहर के प्यालो का, वो इनाम अच्छा था,
उजड़ गई बस्ती, और सुना दिल का किला है,
हूँ अकेला, ये तेरी नेकी का…
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Added by Pradeep Kumar Kesarwani on June 28, 2012 at 1:30pm — No Comments

अर्धांगिनी [लघु कथा ]

आरती और वैभव के बीच  में कल रात से ही झगड़ा चल रहा था ,मुद्दा वही उपर की आमदनी का ,जिसे आरती अपने घर में  कदापि भी खर्च करना नही चाहती थी | वैभव ने अपनी पत्नी  आरती को पैसे की अहमियत के बारे में बहुत समझाया और बताया कि उसके दफ्तर  में सब मिल बाँट कर खातें है लेकिन आरती के लिए रिश्वत तो पाप कि कमाई थी , वैभव के लाख समझाने पर भी जब आरती नही मानी तो गुस्से में उसने आरती से साफ़ साफ़ कह दिया था कि अगर आरती ने इस मुद्दे पर और बहस की तो वह उससे  सदा के लिए सम्बन्ध विच्छेद कर…

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Added by Rekha Joshi on June 28, 2012 at 11:42am — 4 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ४

सूरज चढ़ गया है गर्मी के पहाड़ पे.....

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सूरज फिर चढ़ गया है गर्मी के पहाड़ पे और फेंक रहा है आग के गोले समूची कायनात में. सुबह के आठ बजे हैं, पर दिन इतना पीला हो गया है जैसे कि बस दोपहर होने को है. सड़कों पे लोग आ जा तो रहे हैं मगर दिख रहें हैं कुछ इस तरह जैसे स्लो मोशन में कोई सत्तर के दशक की फिल्म चल रही हो.

 

फेरी वाले की आवाज या ऑटोरिक्शा की घरघराहट किसी आर्तनाद जैसी लगती है…

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Added by राज़ नवादवी on June 28, 2012 at 10:58am — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १८

बुरा करते हैं और कहते हैं बुरा न मानना

बुतोंको सजदे करना है तो खुदा न मानना

 

प्यारकी इब्तिदा होती है इन्कारसे तोफिर

वफ़ा का अव्वल सबक है वफ़ा न मानना

 

तुम्हें क्या खबर कि हम जानतेहैं हालेदिल 

ये उनकी आदत है हमें आशना न मानना 

 

अहसाँ समझके ही दो टुक तो कुछ बोलिए 

भला कुबूल है पे ये क्या, भला न मानना 

 

मैं तो बस इत्तेफाक़से हमराह हो गया था

हमें अपना दोस्त याकि हमनवा न मानना

 

ज़रा संभल के…

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Added by राज़ नवादवी on June 28, 2012 at 10:53am — No Comments

एक ग़ज़ल....

फ़ित्ने-नौ यूँ उठाने लगी ज़िंदगी |

आँख उनसे लड़ाने लगी ज़िंदगी ||

ताज़ा दम होने को आए थे बज़्म में,

सूलियों पे चढ़ाने लगी ज़िंदगी ||

होश खाने लगी मौत भी देखिये,

फिर ये क्या गुनगुनाने लगी ज़िंदगी ||

उनकी आवाज़ फिर आईना बन गई,…

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Added by डॉ. नमन दत्त on June 28, 2012 at 8:52am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १७

तेरेही रंगमें रंगी खुदाई दिखती है

दुनिया तमाम तमाशाई दिखती है

 

कोई राहगुज़र नयी नहीं लगतीहै

एक- एक राह आजमाई दिखती है

 

ये कैसा शोर है घरमें नयानया सा

छतपे एक चिड़िया आई दिखती है

 

दूरसे महसूस किया बिछडनेका पर

ज़िंदगानी करीबसे पराई दिखती है 

 

दिल क्यूँ चुप है येतुम क्या जानो 

गरीबकी बस्ती है सताई दिखती है

 

उंगलियां तेरी चार मिसरे रुबाई के

कोई गज़ल तिरी कलाई दिखती…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 4:41pm — 8 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १६

जबहो जुनून सवार मिस्लेअस्प सर में

तब की फर्क पैंदा आबेहयातओज़हर में

 

खुदाभी यही कहता है लौट आओ पास

कितना सुकून है बैठे बैठे अपने घर में

 

कितने तज़ब्जुब से भरा है सफरेज़ीस्त

कोई कल्ब ज्यूँ भटकताहो राहगुज़र में 

 

दुनियामें कुछ नहींहै दीदनी दिखावा है 

तमाम तिलिस्मात बस भरे हैं नज़र में

 

तमाम दुनियामें जो महसूस करे तन्हा

समूची कायनात समाई है उस बशर में

 

कम लोग जाने हैं तामीरेखल्कका…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 4:00pm — 3 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १५

ओबीओ के मित्र जनाब अलबेला खत्री साहेब ने एक शेर मुझसे फर्माया वो ये कि- ‘सबकुछ है इस जहान में तन्हाई नहीं है, अफ़सोस की है बात कि शनासाई नहीं है’

 

इस शेर से मुतास्सिर होके ये पूरी गज़ल लिखी गई है, पेश कर रहा हूँ, मुलाहिजा फरमाइए:  

 

तू नहीं है जिन्दगी में तो लुत्फेतन्हाई भी नहीं है

ये यूँ हैकि आग लगाई नहीं तो बुझाई भी नहीं है

 

ठहरा ठहरा है दरख्तों पे शामका इक तवील साया

शब लिखनेवालेके कलममें जैसे रोशनाईभी नहीं है…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 2:55pm — 3 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १४

तुमको चाहा हमने तो मायूसी मिली

और न पाया तुझे तो जिन्दगी मिली

 

गले मिल के साथ साथ दोनों रोते थे

कल रात मेरे दुखोंसे जब खुशी मिली

 

आह तेरा दीद अश्कसे सूखी आँखोंको

समा न पाए जो इतनी रौशनी मिली

 

दामानेयार की सबा से मरनेवालों को

साअतेमर्ग दो पल की जिन्दगी मिली

 

कलशब कोई आधीरात कहके रोताथा

वफ़ा नीमशबहै मिली पे अधूरी मिली  

 

नसीब देताहै पर क्या ये बात दीगरहै

दिल की लगी चाही पे…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:58pm — 1 Comment

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १३

ज़िंदगी गुज़र न जाए कहीं सवालों में

कि ज़रा शराबभी ढालो रखे प्यालों में

 

तमन्ना है कि अवाम का कहलाऊं मैं

नाम लिया न जाए फक़त मिसालों में

 

कहींतो कोई बात कुछ गलत लगतीहै

तफरका क्यूँ हुआ है तेरेमेरे हवालों में

 

भूख मिटाए ये ताकत नहीं निवालोंमें

आह ये बच्चे गड्ढे हैं जिनके गालोंमें

 

गुबारेख्वाब फूट जाता है ऊँचा हो कर

मंसूबे हमनेभी बाँधे थे कई ख्यालों में  

 

सुनाहै दमेमर्ग नाबीनाभी देख…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:21pm — 1 Comment

औरत की क़ुरबानी

औरत वही जो औरों के हित देती अपनी क़ुरबानी 
नारी जीवन शीतल सा पानी और चंदा सी चांदनी ||
 
औरों के हित रत, खुद का तन तपता रेगिस्तानी 
आदमी का भ्रूण सहर्ष सैहती दे अपनी बच्चेदानी ||
 
औरत  त्याग की मूरत, ढक घूँघट में अपनी…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 27, 2012 at 9:30am — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १२

सबों से दिल की मुश्किलों का सबब क्या कहिए 

मगर जब अपनेही पूछें येसवाल तब क्या कहिए



वक्त क्यूँ ढाता है मासूमों पर गजब क्या कहिए

कहाँ जाती है नेकी -ए-कायनात अब क्या कहिए 



रूठकर खो गई जो अज्दाहामे फिक्रेदौराँ में कभी 

होती है अबभी उन निगाहोंकी तलब क्या कहिए 



बहुत एहतियात से हुस्न की नजाकत संभालिए

रहिए फिक्रमंद कि तबक्या और अबक्या…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:11am — 5 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ११

दो घूँट पिला दे साकी तो कोई बात बने 

तेरे गेसुओं से बुन के आज की रात बने



दो किनारे हैं समंदरके कहाँ मिल पाते हैं

कोई सूरत कमरओमेहरकी मुलाक़ात बने 



आओ कर लें दुआ इन्केलाबे तगय्युर की 

अज़- सरे- नौ अब आईन्दा कायनात बने



गर तेरी निगाह है बादा तो दुआ करता हूँ

देखने वालों के सीने में एक खराबात बने



ख़्वाब कामिलहो, मनचाही…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:07am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १०

अब और जी के जहाँमें क्या कर लेंगे 

चलो हम आलमेबालामें नया घर लेंगे



ये कहाँ आ गए, किस मोड़पे हो तुम 

मंजिल नहीं हो तो क्यूँ राहगुज़र लेंगे 



न जाओ तुम मेरी बेफ़िक्रीओमस्ती पे 

होश खो दोगे कभू हम जो संवर लेंगे 



इन परीरूओं के दामसे बच कर रहना 

इक हंसी देंगे तो बदले में जिगर लेंगे 



सब्र करिए कि सब्र का फल मीठा है 

लेंगे…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:04am — 1 Comment

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९

मकते का शेर दरअसल इस बात के पसेमंज़र कहा गया है कि मेरे ख्यालों की उड़ान, मेरे मिजाजोतबीयत की रुझान और मेरी मआशी (आजीविका से जुडी) ज़िंदगी में कोई मेल नहीं है और मैं अक्सरहा खुद को गलत जगह पाता हूँ. 



खुदा के बंदे हैं खुदा के बन्दों से क्यूँ डरें

आओ प्यारसे एक दूसरेको बाहोंमें भरलें 



अगर तुम मिल जाओ किसी साअत मुझे 

सुबहें भी बस थमी रहें, शामें भी ना ढलें 



ज़मानेको कहाँ नसीब मेरे ख्यालोंकी…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:03am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८

कोई हसीन नज़ारा नज़र को चाहिए 

बसएक दरीचा दीवारोदर को चाहिए 



लो फ़ैल गई किसी जंगलकी आगसी

अफवाहों की तेज़ी खबर को चाहिए 



थोड़ी ज़मीन और थोड़ा आबो रौशनी

बस यही दौलत बेखेशज़र को चाहिए



दो जामा एक चारपाई माथे पर छत

और दो जूनकी रोटी बशरको चाहिए 



क्यूँ दिल को तेरा ख़याल हर साअत

और तेरे मूका दीदार नज़रको चाहिए



तेरी…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:00am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७

ना करो कोई तफरका लड़के और लड़की में 

तुख्मेखल्क बराबर है औरत और आदमी में 



जो तुम मार डालोगे अपनीही कोखका जना

तोफिर क्या फर्क रहेगा इंसान और वहशीमें



बेटियाँ तो गुलपाश हैं गुलिस्ताने कुनबा की

फैलतीहैं ये बनके मुश्केबू हज़ार ज़िन्दगी में



ए ज़हालतमें भटकेहुए बिरादर संभल जाओ

तारीकीएतआस्सुबसे निकल आओ रौशनी में 



बेटेतो बड़े होके बसा लेते हैं अपना घोंसला 

बेटियाँ पोछतीहैं आपके आंसूं खुशीओगमीमें 



न होती मरियम तो कहाँ होते…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:57pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६

ज़माने भर की सताइश भी बहुत कम है 

जोतेरे दहनपे मेरी तारीफ़का एक ख़म है 



इक मुहब्बतथी जावेदां वोभी नहीं नसीब 

इस आलमे फना में क्या दूसरा अलम है 



कहानी नई नहीं अजअज़ल यही दास्ताँहै 

दिल है तो दर्द है, मुहब्बत है तो गम है 



आओ बताएं क्याक्या है बागेमुहब्बत में 

जुल्म है ज़ोर है ज़ब्र है जफा है सितम है



ज़िंदगी एकसी है दर्द एक इन्केशाफ एक 

आँखों को जैसे अश्क गुलों को शबनम है



ये कायनात कोई ख्वाब बीदा परीज़ादी है …

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:54pm — 2 Comments

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