(आज से सत्रह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
वे दिन फिर आयेंगे.....
अनखिली कलियों के वैभव भी
सृजित होंगे कभी किन्हीं जन्मों में
अनकहे शब्दों के अर्थ
और अनसुनी बातों के अभिप्रेय भी
अनिभृत होंगे हमारे मन में
पनप रही मृदुल आशाओं के उत्कर्ष भी
विदित होंगे जीवन में..
जो सानिध्य अधूरा है
और जो सामीप्य अप्राप्य
वे भी नहीं रहेंगे सदैव ऐसे
इन अपरिचित देशों में....
पौष की काली…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:51pm — No Comments
(आज से सत्रह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
आरोप....
तुम्हारी मृदा में उपजे हैं
ये शूल मेरे स्वार्थ के
तुम्हारी हवाओं ने रूक्ष किया है
मेरे अकिन्चन स्पेशों को
तुम्हारे प्रसंगों की कठोरताओं ने
मेरी संरचना को भार दिया
मेरे उच्चारों के प्रपंच
तुम्हारी छलनाओं से ही निगमित हुए हैं.
परिवर्तन की जिस प्रक्रिया ने मुझे
तुमसे एकरूपता दी है
जीवन का जो क्रम
और मूल्यों के जो अर्थ
अब…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:47pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
मैं सोचता था.......
मैं सोचता था-
वे दीये बुझ चुके हैं
जिनसे रौशनी नहीं आती
जिनके दरवाज़े बन्द हो चुके हैं
और खिड़कियाँ नहीं खुलीं बरसों से
उन घरों में कोई नहीं रहता
जो गीत होटों पे खेले नहीं मुद्दत से
और जिन सुरों का आलाप किया नहीं सालों से
वे सर्फ हो गये न दीखने वाले
वक्त के बियावानों में
मैं सोचता था-
वे दीये बुझ चुके…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:41pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
कब तक...
स्वप्न की इस दीर्घ निशा में
कब तक यूँही
अपनी अभीप्साजनित कल्पनाओं के
निराकार सत्त्व को
तुम्हारा नाम देता रहूँ
कब तक कहता रहूँ
अपने विषण्ण मन को
व्यग्र आग्रहों की निविड़ प्राची से
जब तुम्हारे नयन
अनिमेष देखेंगे मुझे
व्यथा भार से क्लांत
कांतिविहीन
तब रक्तांशुक किरणें बन
तुम्हारी स्निग्ध दृष्टि का…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:36pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
तुम्हें भूल सकता हूँ .......
मैं सोचता तो हूँ
परिस्थितियों से हार जाऊँ,
तुम्हें भूलजाऊँ;
मैं चाहता तो हूँ
तनावों के असंपादित अध्यायों से
दूर निकल जाऊँ,
कहीं एक शब्द, एक वाक्य बनकर
इस निस्सीम व्योम में
किन्हीं वायव्य माध्यमों से उच्चरित होकर
अपनी अस्मिता की समिधा जलाऊँ;
मैं चाहता तो हूँ
कि क्रिया-अनुक्रिया…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:32pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
प्रेम का वक्तव्य...
प्रेम का वक्तव्य छुपाते-छुपाते
मैंने अपनी आँखों में
अनुभूतियों का जो मौन
लिख डाला है
मुझे भय है वो
किसी निर्मेघ आकाश सा
अनिभृत न हो जाए तुमपे
और यदि खोकर भी
उस मौन आमंत्रण का
अस्फुट संवाद
मैं तुम्हारी स्निग्ध दृष्टि का
एक सलज्ज उन्मेष भी न पा सकूँ
तो फिर से
प्रेम की वंचना का बोझ
किस प्रकार ढो…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:18pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
शून्य से आपादित जीवन में.....
अनुभूतियों की शिराओं में
तुम्हारे प्रेम की आँच अब भी शेष है
और
संवेदनाओं की धमनियाँ अब भी
तुम्हारे आकर्षण का आस्वाद
अहर्निश ढोती हैं
जीवन की विषमताओं का गरलपान करते हुए
तुम्हारी अनेकश: उपेक्षाओं का प्रहार सहते हुए
मन के कोने में
प्रेम का जो इक दीप जला रक्खा है
उसने सदैव
संध्यानुगामी, क्लान्त, विषण्ण…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:14pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
एक घर मेरा भी होगा......
सोचा था
चाँद की उपत्यका में
एक घर मेरा भी होगा
जहाँ और न होंगे इस धरा के तनाव
जहाँ और न होगा
मानवी संबंधों का छुपाव
जहाँ शब्द
समय के परिप्रेक्ष्य में न देखे जाएँगे
जहाँ निरभ्र आकाश सा होगा
निरायाम, अतल जीवन
संवेदनाओं की उर्मियों में जहाँ
कोई न होगा अन्येतर बल
हाँ , बस होगा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 1:34pm — No Comments
(आज से बारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
तुम्हारे नाम की कविता...
शब्दों के टूटते बिखरते झरने में बह जायेंगे
मेरे प्यार के अनकहे बोल,
नहीं रोक पाऊँगा अब और
जो मैंने लिखी थी इन अबाध धाराओं में
तुम्हारे नाम की इक कविता।
समय तो अविरल है
अनन्तताओं में बहता रहता है
यह हृदय नहीं जो कभी कुछ कहता है
और कभी / यूँ ही ख़ामोश रहा करता है
कदाचित् , एक शाश्वत गीत है यह समय
जिसे हर…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 1:28pm — No Comments
(आज से बारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
काव्य भी एक प्रसव है...
काव्य भी एक प्रसव है
जिसकी पीड़ाओं से ही जन्म लेते हैं मेरे गीत ।
शब्दों में गूँथकर, और भावनाओं में पिरोकर
काग़ज़ पे जिन्हें उतारता हूँ
वो गीत,
तुम्हारे ही श्रृंगारित प्रणय की स्मृतियों से उदभूत हुए हैं
तुम्हारी ही अथक कल्पनाओं ने
कायिक आयाम दिया है उन गीतों को
जो गीत प्राणों से उठकर
और मेरी आँखों में लहराकर
मेरे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 1:22pm — No Comments
Added by Dr.Prachi Singh on June 29, 2012 at 11:46am — 4 Comments
यकीन उठ जाने के बाद,
झूटे रिश्तों की अनचाही लाश
ढोते रहते है कंधे झुक जाने तक
Added by Iti Sharma on June 29, 2012 at 10:57am — No Comments
ओ सर्वव्यापी , ओ सर्वशक्तिमान
जब सब में है तू विद्यमान
तो इस दुनियाँ में ये
ऊँच-नीच का अंतर क्यों है ?
कोई कहे तुझे खुदा , कोई कहे तुझे भगवान्
करते जब सब तेरा ही गुणगान
तो इस मृत्युलोक में
तेरे नाम में ये अंतर क्यों है ?
ओ सर्वरक्षक , सर्वगुणों की खान
कैसा है तेरा विधान
जब सब तेरे बनाये हुए हैं
तो ये गोरे काले का अंतर क्यों है ?
तू है सबका प्यारा , तू है सबसे महान
कोई पढ़े गीता यहाँ , कोई पढ़े कुरआन…
Added by Yogi Saraswat on June 29, 2012 at 10:00am — 10 Comments
Added by Neelam Upadhyaya on June 29, 2012 at 10:00am — 1 Comment
मेरे सर पर ,'सुख की छाया ' का पता , प्रभु आप थे .
उस रूप को शत शत नमन जब आप मेरे बाप थे .
सारा जग था आप से आरम्भ , और था आप तक .
आप आप आप प्रभु जी हर तरफ बस आप थे .
आप के सीने से आती वो पसीने की महक .
आप के सीने पे सर था मेरे सीने आप थे .
आपकी आई नही थी , आई बेशक थी मेरी .
मैं गया था इस…
ContinueAdded by DEEP ZIRVI on June 29, 2012 at 8:30am — No Comments
चाहिए थोडा सा प्यार
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 29, 2012 at 5:41am — No Comments
अब हवा न हो हमारे दरम्यां;
एक मन हैं ;एक तन हों ,एक जां.
तेरी जुल्फों में जो टांगा फूल तो ;
देर तक महकी हैं मेरी उंगलीयां .
तुम मिले होते न हम को गर सनम
मैं समझता जिंदगी है राए-गां.
एक नगमा बन गई हैं जिंदगी ;
कह रही मुझ को तू आ के गुनगुना .
पारसाई तेरी रास आने लगी ;
कर रही है तेरा मुझको निगेह -बाँ.
इश्क ने सब को सिखाई बन्दगी ;
वरना मेरी काविश गई थी राए -गां .
दीप जीरवी
Added by DEEP ZIRVI on June 29, 2012 at 12:00am — No Comments
यूं तो
मिलते हैं
बिछड़ते हैं
कई लोग मुझसे ;
तेरी बात और है तुम ने
सिर्फ
मुझसे
हाँ मुझ से
मुहब्बत क़ी है
...मेरी झोली में डाले हैं
मुहब्बत के सच्चे मोती ...
...मेरी मुहब्बत क़ी देवी
तुम ने मुझ पे ये
ख़ास इनायत की है .
आती जाती हुई साँसों में
बसी तू तू तू ही ...
...तेरी नजरे करम ने
मेरी ये हालत क़ी है .
सौ जन्म लेकर भी
पा ना पाता हीरा तुम सा ...
... भर के अपनी मुहब्बत से
मेरी झोली
...इनायत क़ी है
. तू…
Added by DEEP ZIRVI on June 28, 2012 at 11:30pm — No Comments
{भाव निर्झर }
कितना भोला कितना सादा ;
देखिये पंजाब है .
कटता आया बंटता आया ,
देखिये पंजाब है.
भोलेपन की इंतिहा है ,
सोच के देखे कोई ;
लीडरों की घर की मुर्गी ,
देखिये पंजाब है.
अन्नदाता देस क़ा
खुद फांकता सल्फास है
डालरों की धौंस सहता ,
देखिये पंजाब है..
फिल्म टी वी में दिखे
जो हर चरित्र मसखरा
उनमें पागल दिखने वाला ;
देखिये पंजाब है.;
इन शहीदों की कभी लिखे
अगर कोई किताब
हर जगह पंजाबियों क़ा…
Added by DEEP ZIRVI on June 28, 2012 at 11:30pm — 1 Comment
थाम कर तुम्हारी उँगलियाँ
जब ये चलेगा
मोहब्बत की एक नयी इबारत
लिखी जाएगी,
पहली मुलाक़ात की
'निशानी'
अपना कलम मैं तुमको दे आया हूँ
जो भी लिखोगे इस से
वो तकदीर मेरी
बन जाएगी.......
Added by AjAy Kumar Bohat on June 28, 2012 at 4:38pm — 1 Comment
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