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All Blog Posts Tagged 'अतुकांत' (257)

इण्डियाज डॉटर क्या है -- डॉo विजय शंकर

इण्डियाज डॉटर क्या है ,

बी बी सी द्वारा बनाई गयी

एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म है ,

एक गंभीर विषय है, हमारी

व्यवस्था, सोंच , नज़रिये को ,

को झकझोर देने वाला विषय है ,

ख़बरों में है, मगर विचार में नहीं |

हमको हमारे बारे में बताती है,

समझो, कुछ तो , हमें समझाती है ,

एक विचार , एक चुनौती है यह ,

सोचना पड़ेगा , ऐसा है कुछ यह।



एक निवेदन है यह ,

किसी की आशा , पूरी जिंदगी ,

लाज , लज्जा , अस्तित्व है यह।

एक दबाई गई सिसकी है… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 8, 2015 at 12:56pm — 15 Comments

ये नाम-करण कैसे हुआ -- डॉo विजय शंकर

नाम , नाम , नाम ,

नाम से तो यश है,

गौरव है , शान है,

व्यक्ति यशस्वी है,

जीते जी महान है ,

तदोपरांत पूज्य है,

वंदन है , गान है |

कितने नाम हमने दिए ,

कितने महान पैदा किये ,

देव है, पिता है, चाचा है,

भाई जी,ताऊ ,अम्मायें हैं

देवता कितने संख्य हैं,

नेता कितने असंख्य हैं ,

हम सर्वत्र नतमस्तक हैं ,

पर कितने नगणय हैं ,

सब नाम हमारे अपने हैं ,

नामकरण सब अपने हैं ,

मदर इंडिया फिल्म बनी ,

इंडियाज़ डॉटर कौन बनी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 6, 2015 at 1:09pm — 16 Comments

अचानक याद आया --- डॉo विजय शंकर

कहते हैं गुलाब के साथ

कांटे जरूर होते हैं ,

पर कुदरत ने जीता जागता एक गुलाब ,

ऐसा भी बनाया है कि बनाने वाले की माया

कोई समझ नहीं पाया है,

उसको काँटों से बिलकुल मुक्त बनाया है,

इसे कुदरत की मेहरबानी कहें या नाइंसाफी ,

जो जिंदगी देती हैं उसकी ही जिंदगी को

इस कदर कमजोर बनाया है,

हद हो गयी आदमी ने इसी का

हर तरह से बस फायदा ही उठाया है ,

मर्द होने की अपनी जिम्मेदारियों को

बस यह कह कर निभा दिया है ,

कि हमने मेमने को बता दिया ,

घर… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 5, 2015 at 11:09am — 15 Comments

अपने धंधे , अपने तरीके हैं --- डॉo विजय शंकर

धंधे को मान देना ,

धंधे की बात है ।

पेशेवर खिलाड़ियों को मान-ईनाम ,

खुद एक पेशे की बात है ।

सैनिक के शहीद होने को

पेशे से जोड़ना दुःख की बात है ।



लोगों को हिफाजत दे नहीं पाते ,

वो हादसे के शिकार हो जाएँ

तो बड़ी बड़ी शोक सभाएं ,

कैंडल-मार्च निकलवाते हैं ,

और किया तो कोई गली

सड़क उसके नाम करवाते हैं।



प्रतिभा को हम तभी जानते हैं

जब दूसरे कोई विदेशी

पहले उसे पहचानते हैं ,

तब बड़े जोश खरोश से हम

उसे अपना अपना… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 3, 2015 at 10:45am — 20 Comments

हालात आदमी के - डॉo विजय शंकर

कितना होशियार है आदमी ,

हर समय सचेत रहता है ,

बुद्धि को प्रखर करता रहता है,

हर एक के दिमाग को पढ़ता रहता है ,

बस, जब लुटता है तो दिमाग से नहीं,

दिल से लुटता है,पूरे दिल से लुटता है ......



दिमाग उस समय भी

उसका चौकन्ना रहता है,

खूब याद रखता है, कि कब कहाँ ,

कैसे-कैसे , कितना-कितना लुटे ,

स्मृति में सब रहता है ,

बार बार , दोहराता रहता है,

सुनाता है अपने लुटने की कहानी,

दूसरों की भी सुनता है कहानी………



और फिर तैयार होता… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 1, 2015 at 11:00am — 21 Comments

शेरों की दुनियाँ---डा० विजय शंकर

शेरों की दुनियाँ अजीब ,

जमाना अजीब होता है,

हर शेर अज़ब होता है,

हर शेर गज़ब होता है,

शेर सवाल, शेर जवाब होता है

शेर का जवाब भी शेर होता है

शेर पर शेर , सवा सेर होता है |



हमको भी शौक चर्राया,

हम भी आ गए शेरों के बीच ,

अपने चूहे बिल्ली लेकर ,

उन्होंने वो हंगमा बरपाया

कि शेर शेर घबड़ाया , बोला ,

अरे ,ये कौन शेर के जंगल में चला आया |



शेरों की अपनी एक तहजीब होती है ,

एक अदब , एक तमीज होती है ,

क़यामत होती है , एक… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 25, 2015 at 10:55am — 24 Comments

हमको हमीं से छुपाता कौन है -- डॉ o उषा चौधरी साहनी

सुनते आये हैं, सारी नज़ाकत 

कायनात को हम नारियों से मिली है ,

बीर बहूटी को मखमल ,

गुलाब को लाली, हमीं से मिली है ,

कायनात खुद कहीं-कहीं बेइंतहा सख्त है ,

चट्टान है, आंधी है , धूल है , तूफ़ान है,

फिर भी गुलाब हैं, तितलियाँ हैं, चाँद है,

चाँदनी है, ठंडी हवाएँ हैं , नदियों में चढ़ाव है.

ये कठोर कायनात की ही करामात है ,

हमारी मासूमियत पर रोज़ ये ग्रहण लगाता कौन है.

हमारी मासूमियत हमसे चुराता कौन है,

बचपन से हमको हरदम डराता कौन है,

ये चेहरे पे…

Continue

Added by Usha Choudhary Sawhney on February 24, 2015 at 10:45am — 18 Comments

कौन सा साहित्य रचते हो ( 2 )--डॉo विजय शंकर

भरा पड़ा है साहित्य ,

ऐसा साहित्य जो,

कभी जुड़ नहीं पाया लोगों से ,

आम आदमी से , सीमित रह गया एक

अत्यंत सूक्ष्म तथाकथित उच्च सभ्रांत वर्ग में |

वेद , गीता , पुराण , भरा-बिखरा पड़ा है ज्ञान ही ज्ञान ,

मिल जाएगा , ढेरों मिल जाएगा , इनसे , उनसे ,

ऋचाओं से , श्रुतियों से , स्मृतियों से , संहिताओं से ,

बस , जुड़ नहीं पाया कभी दाल रोटी की समस्याओं से |

वह सर्वस्व है , वह यहां है , वहां है ,

अन्न अन्न के दाने दाने में है , सर्वत्र है वह ,

वह… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 23, 2015 at 10:08am — 14 Comments

कौन सा साहित्य रचते हो (1)--डॉo विजय शंकर

क्या करते हो,

कौन सा साहित्य रचते हो,

क्यों रचते हो ,

किसके लिए रचते हो ?

स्वान्तः सुखाय ,

कोई पढ़ता है ,

ऐसा लिख देते हो ,

अर्थ ढूंढना पड़ता है ,

जो है ही नहीं वो

निकालना पड़ता है ,

गाय है , घास है,

गाय घास खा चुकी ,

गाय जा चुकी ,

अब कुछ नहीं ,

सब अदृश्य है, पर है ,

समझ से परे है, पर है ,

क्योंकि लिखा है तुमने ,

जिनको दिख जाए , चक्षुवान।

बाकी ,

बाकी के लिए कहाँ लिखते हो तुम ,

तुम तो अपने लिए… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 22, 2015 at 9:52am — 17 Comments

कौन कब किसको रोक पाता है -- डॉo उषा चौधरी साहनी

 
न जाने ऐसा क्यों लगता है , 
किसी एक पल कि सबकुछ 
अपना है, अपने हाथों में है, 
बस , हाथ उठाऊं और ले लूँ , 
समेट लूँ , अपनी बाँहों  में ,
रख लूँ ,सहेज कर अपने पास । 
कितनी खुशियाँ हैं दुनियाँ में , 
सब मेरे लिए , कितनी अपनी हैं ,
पर, दूसरे ही क्षण लगता है…
Continue

Added by Usha Choudhary Sawhney on February 22, 2015 at 9:35am — 9 Comments

आज़ादी --- डॉ o विजय शंकर

उड़ता वो आज़ाद परिंदा

नभ छू लेने की कोशिश

करता है,

ऊंचा , ऊंचा उड़ता है |

बीच बीच में धरती छूने ,

लौट , लौट कर आता है ,

कुछ चुंगता है, कुछ खाता है,

इठलाता है, कुछ गाता है ,

फिर , फुर्र से उड़ जाता है ,

दूर, बहुत दूर , ओझल हो ,

क्षितिज तरफ वो जाता है ,

क्षितिज तरफ वो जाता है ||

यूँ आते - जाते हमको वो

अपने हौसले दिखलाता है ,

और हमको यह बतलाता है,

हौसलों से क्या नहीं हो जाता है,

हौसलों से क्या नहीं हो जाता है… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 18, 2015 at 1:32pm — 25 Comments

आज़ाद कोई नहीं , सब डोर से बंधे हैं --- डॉ o विजय शंकर

बंधे सब डोरियों से हैं,

ये अलग बात है कि

किसकी डोर , मूलतः , किसके हाथ है ।

कोई अपनी डोरी में बस थोड़ी सी ढील चाहता है,

अपने साथ वाले की डोर बस थोड़ी टाइट चाहता है ।

किसी की खींच ली गई , किसी को ढील मिल रही है ,

किसी की फंस गई है , उनकी फंसी थी,निकल गई है ।

अब किसी को क्या कहें , जिस के हाथ अपनी डोर है ,

वही उसे दबाए बैठा है ।



चाहतें ऐसी ऐसी , उसकी डोर मेरे हाथ आ जाए ,

मेरी डोर काश यहाँ से छूटे , उसके पास पहुँच जाए

उनके तो हाल ही… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 15, 2015 at 11:25am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥ ( गिरिराज भंडारी )

॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥

कहने से नहीं

समझाने से नहीं

कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे

कौन रोक सकता है

बातें

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब

 

ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न

 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें

ये दिन , वो दिन

अफसोस होता है

 

पता नहीं क्यों

रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में

राधा-कृष्ण-मीरा को ,…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on February 14, 2015 at 8:55am — 16 Comments

वैलेंटाइन डे

जिंदगी को सब प्यार करते है ,

इसलिए नहीं कि वह हमें जीने का मौक़ा देती है ,

बल्कि इसलिए कि वह हमें प्यार से जीने का मौक़ा देती है,

प्यार करने , प्यार बांटने और प्यार में रहने का मौक़ा देती है ,

प्यार है तो जिंदगी में कोई बोझ बोझ नहीं है ,

प्यार नहीं है तो जिंदगी से बड़ा कोई बोझ नहीं है ,

हम जिंदगी के लिए जीना नहीं चाहते हैं ,

हम प्यार के लिए जीना चाहते हैं,

हम प्यार के लिए जिंदगी चाहते है ,

इसीलिये हम सब जिंदगी को प्यार करते है .



हैपी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 14, 2015 at 1:30am — 20 Comments

प्रकृति में सुकून---डॉ o विजय शंकर

प्रकृति प्रेमी है वह ,

प्रकृति से असीम प्रेम करता है,

पहाड़ों पर, समुद्र-तटों पर, जंगलों में, रेगिस्तान में ,

कहाँ नहीं जाता है वह , कई कई दिन ,

कई कई रातें बिताता है ,

प्रकृति की गोद में ही सुख पाता है ,

वहीं खो जाता है वह ।

बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,

बहुत घबड़ाता है ,

उनसे कुछ दूर ही रहता है वह ,

सर्वोत्तम कृति की प्रकृति , समझ ही नहीं पाता है वह ,

उनकी उष्णता , उदासीनता , विद्वता , कुछ समझ नहीं पाता ,

उनके बीच तो जैसे… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 11, 2015 at 9:17pm — 20 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
॥ मै ईश्वर नहीं ॥ अतुकांत रचना ( गिरिराज भंडारी )

॥ मै ईश्वर नहीं ॥

**********

मै ईश्वर नहीं

किसी ईश्वरीय व्यवहार की उम्मीदें न लगायें

मै तो क्या कोई भी चाहे तो ईश्वर नहीं हो सकता

बस दूसरों में ईश्वरीय गुण खोजने में लगे रहते हैं

हम , आप , सब

इसलिये, आज

ये ऐलान है मेरा ,

मुझमें केवल इंसानी गुण ही हैं

अच्छों से उनसे अधिक अच्छा

बुरों से भरसक बुरा

उनके व्यवहार के प्रत्युत्तर में भेज रहा हूँ

कुछ दिल से निकली मौन गालियाँ

कुछ आत्मा से निकली बद…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 10:00am — 21 Comments

कुर्सी को जानों -----डॉ o विजय शंकर

कुर्सी को जानों

कुर्सी को पहचानों ,

कुर्सी है तो जीवन है, जान है.

कुर्सी है तो भोंडापन भी ज्ञान है ,

अन्यथा क्या ज्ञान है, क्या विज्ञान है ,

डिग्रियों के लिए कूड़ेदान है।

कुर्सी है तो आस है ,

अपना चतुर्दिश विकास है |



तख़्त उलटते रहे होंगें ,

सिंहासन डोलते रहे होंगें ,

कुर्सी न उलटती है, न डोलती है ,

न उसे कोई ऐसा ख़तरा होता है ,

हाँ , कुर्सी पर जो बैठा हो

वो औरों के लिए जरूर ख़तरा होता है |

कोई कहता है ताक़त बन्दूक से… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 9, 2015 at 11:37am — 17 Comments

कह गए थे तुम वापस आओगे-- डॉ o उषा चौधरी साहनी

कह कर गए थे तुम

आओगे वापस ,

जरूर आओगे ।

आस में तुम्हारी ,

लगे युग बीत गए जैसे ,

पर न आये तुम ,

न आये तुम्हारे खत ,

ना ही कोई संदेश ,

कहाँ खो गए तुम ,

भटक गए किस देश ?

जिन राहों पर दूर ,

बहुत दूर तक , चले थे ,

खोये , इक दूसरे में हम,

उन्हें, अब ये आँखें तकती हैं,

ढूंढती हैं तुम्हें , शायद कभी

लौटों तुम उन पर ढूंढते हुये

कि तुम्हारा भी

कुछ रह गया वहां पर ,

कुछ खो गया वहां पर ,

और मैं पा लूँ तुम्हें… Continue

Added by Usha Choudhary Sawhney on February 8, 2015 at 7:30pm — 14 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : हिंसा (गणेश जी बागी)

मारते हो पशु

फैलाते हो हिंसा

'नीच' जाति के हो न

असभ्य कहीं के

कभी नहीं सुधरोगे

इतिहास गवाह है...



मारते तो तुम भी हो

'शिकार' के नाम पर

तुम तो 'नीच' न थे

याद है ?

वो शब्द भेदी बाण

जो असमय वरण किया था

अंधों के पुत्र का,

भागे थे हिरण के पीछे

चर्म चाहिए था न

इतिहास गवाह है...



हिंसक तो तुम दोनों ही हो

एक शौक के लिए

तो दूजा भूख के लिए

हाँ जी हाँ, बिलकुल

इतिहास गवाह है…

Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 7, 2015 at 4:30pm — 28 Comments

संतुष्टि कहाँ है...? (अतुकांत)

धीमी-धीमी सी

हवाओं में

दीपों की टिमटिमाती लौ

दे जाती है

अंतर को भी रोशनी

बे-समय आँधियों ने

कब किया है, रोशन

बस! बुझा दिया

या फूंक दिए है जीवन

उन्ही दीपों से.

अथाह तेज बारिशों ने भी

बहा दिए हैं, जीवन

नदियों के मटमैले

जल से

प्यासा, प्यासा ही रहा

वैसे ही, जैसे

वैशाख-ज्येष्ठ की धूप में

बैठा हो

शुष्क किनारों पर

जीवन को तो

उतनी ही…

Continue

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on February 7, 2015 at 1:03pm — 23 Comments

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