वाह रे हिंद के लोकतंत्र ,
सब कुछ दिखा दिया ,
तेरे प्रतिनिधियों में भी ,
अब दिखने लगी एकता ,
हम सब समझते हैं,
कारण ?
लुट सको तो लुट लो ,
सदन में जो एक दुसरे को ,
बोलने नहीं देते ,
बच्चो सा लड़ते ,
मूर्खो सा हरकत करते ,
आज है हाथ मिलाते,
कारण ?
लुट सको तो लुट लो ,
वेतन की बात अच्छी हैं ,
सचिव से ज्यादा चाहिए ,
हम इसकी पहल करेंगे ,
मगर इमानदार बन के दिखाइए ,
आते फकीर, बन जाते अमीर,
कारण ?
लुट सको तो…
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Added by Rash Bihari Ravi on August 19, 2010 at 4:00pm —
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गमन पे उसके एक आवाज़ लगाई न गई |
हाय ये व्यथा, ये कथा जो सुनाई न गई||
लौट जाती वो, मुझे था यकीं, इस बात का भी|
हाय मज़बूरी,ज़बां पे बात ही लाई न गई||
पलों के साथ में कई सदियाँ जी लीं हमने|
एक छोटी बात की अलख, हमसे जगाई न गई||
कह दूँ मैं तो कहीं रुसवा न मुझसे हो बैठे|
ह्रदय की बात मुझसे, उसको बताई न गई||
अब तो मुझसे दूर, बहुत दूर जा चुकी है वो|
'दाग' पर याद की लगी ऐसी की मिटाई न गई||
आशीष यादव "राजा रुपर्शुखम"
Added by आशीष यादव on August 18, 2010 at 7:55pm —
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क्या बोलूँ अब क्या लगता है..
चाहत में घन-पुरवाई है
किन्तु, पहुँच ना सुनवाई है
मेघ घिरे फिर भी ना बरसे तो मौसम ये लगता है.. क्या बोलूँ अब क्या लगता है?!
आस भरा 'थप-थप' चलता था
’ताता-थइया’ उठ गिरता था
आज पिघलती सड़कों पर निरुपाय खड़ा है, लगता है.. क्या बोलूँ अब क्या लगता है?!
ओढ़ गंध बन-ठन जाने का
शोर बहुत है खिल जाने का
लद गई उन्मन डाली भी यों कि अँदेसा लगता है.. क्या बोलूँ अब क्या लगता है?
Added by Saurabh Pandey on August 18, 2010 at 6:00pm —
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कोन कहता ज़िन्दगी इक गम का नाम है
दर्द मैं डूबी हुई दुखों की खान है
मेरी तरह जलो और रोशन करो दुनियां को
फिर देखो यह ज़िन्दगी कितनी हसीन ख्वाब है
दीपक शर्मा कुल्लुवी
09136211486
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 5:47pm —
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मैं
नदी का बहाव नहीं
ना वक्त
मेरी फितरत है
लौटता हूँ
नमी बन
रिसता हूँ
तुम्ही में
***
इधर कविता
पीर की परिधि पर
साकार हो
शब्दों में
भरती रही भाव;
उधर
एक जिंदगी
मेरी कविता को
आकार देती सी
एक
नवजात कविता
आँचल में संजोये,
एक और
नई कविता का
तलाशती धरातल
माथे पे ले तगारी
उतरती
उस गोल घुमावदार
सीढ़ियों से
किसी मौल के
***
Added by Narendra Vyas on August 18, 2010 at 4:27pm —
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ग़ज़ल
تنهى تنهى بيا
तन्हा तन्हा पाया
न उसनें साथ निभाया
न इसने साथ निभाया
जब भी देखा दिल को अपनें
तन्हा तन्हा पाया
कहनें को तो सब थे अपनें
सब तो यही कहते थे
लेकिन जब भी मुड़कर देखा
साथ किसीको ना पाया
कद्र मेरे जज्वातों की
वोह क्या खाक करेंगे
जिनको मुहब्बत नफरत में
फर्क करना ना आया
कोन नहीं चाहता उनकी याद में
बनें ना यादगारें
हमनें अपनी यादों को
सबके दिल…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 3:36pm —
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कितना बदल गया
मेरा शहर कितना बदल गया
मेरे वास्ते अब क्या रहा
मेरा शहर कितना बदल -----
न वोह मंजिलें न वोह रास्ते
जो कभी थे मेरे वास्ते
यहाँ लुट गया मेरा आशियाँ
यहाँ हमसफ़र न कोई रहा
मेरा शहर कितना बदल -----
जो गुजर गया उसे भूल जा
मेरा दिल यह कहता है मान जा
यह वक़्त की सौगात है
मेरा वक़्त अच्छा ना रहा
मेरा शहर कितना बदल -----
अब तो अजनवी सा लगे शहर
रिश्तों में घुल चुका ज़हर
कहने को सब अपनें हैं
अपनापन अब…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 12:41pm —
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अफ़सोस
किनारों पे चलाना मुमकिन नहीं था
डूब जाएंगे हम यह डर था हमें
खुद हमनें किनारों पे मारी थी ठोकर
आज तलक रास्ता मिला ना हमें
हम अपनीं तवाही के कसूरबार खुद हैं
संभल ही सके ना यह ग़म है हमें
यादों के नश्तर तीखे बहुत हें
यह अपनें ही ग़म हैं मंज़ूर है हमें
देखते हैं आइना जब फुर्सत में हम
सोचते हैं अक्सर हुआ क्या हमें
जलाते रहो यूँ भी 'दीपक' हैं हम
और आपकी फ़ितरत का ईल्म है हमें
दीपक शर्मा कुल्लुवी
09136211486
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 12:26pm —
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हमारी हंसी पे न जाओ यारो
दर्द तो मेरे भी दिल में होता है
लेकिन उनके ग़म की मीठी सी चुभन
रोने भी नहीं देती हमें
DEEPAK KULUVI
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 12:25pm —
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نا کارنگه
ना करेंगे
हम दर्द अपना बाँट कर
कुच्छ कम ना करेंगे
जो लिखा है किस्मत में
उसका ग़म ना करेंगे
मिट जाएँगे हंसते हुए
यह जानते हैं हम
बेरुखी पे आपकी
शिकवा ना करेंगे
आपको भी याद तो
आएगी एक दिन
जब ना लगेगा दिल आपका
'दीपक कुल्लुवी' के बिन
आपको हो ना हो
कोई ग़म नहीं
हम तो आपकी मुहब्बत पे
एतवार करेंगे
दीपक शर्मा कुल्लुवी
داپاک شارما…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 12:22pm —
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सुबह-शाम - वह रोज दिखता । देह पर उसके गन्दे फटे चीथड़े जैसे कपड़े होते । कन्धे से एक झोला नुमा लटक रहा होता । शहर की मुख्य सड़क के बड़े चौराहे पर, जहाँ से सबसे अधिक गाड़ियाँ गुजरतीं अल्ल-सुबह से आधी रात तक वह वहीं दिखता । जैसे ही सिग्नल की बत्ती लाल होती, अपनी इकलौती टांग पर कूद-कूद कर हर रुकने वाली गाड़ी की खिड़की पर हाथ से ठोकता, दयनीय भाव से गिड़गिड़ाता, पेट पर हाथ फिराता और भूखा होने का भाव जताता हुआ गाड़ी वालों से पैसे मांगता । उसकी पसन्द लेकिन बड़ी सेलेक्टेड होती । उसके 'आर्डर आफ…
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Added by Neelam Upadhyaya on August 18, 2010 at 11:51am —
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क्या होगा
जहाँ सैक्स स्कैंडल हाकी में
इंजेक्शन लगता लौकी में
अस देश का यारो क्या होगा
वहां पड़ता सबको ही रोना
ओ-ओ-ओ-ओ-ओ-ओ-ओ
जहाँ चौड़ी छाती चोरों की
मौज है रिश्वत खोरों की
अस देश का यारो क्या होगा
वहां पड़ता सबको ही रोना
ओ-ओ-ओ-ओ-ओ-ओ-ओ
जहाँ मिलता सबकुछ नकली है
और गरीब की हालत पतली है
अस देश का यारो क्या होगा
वहां पड़ता सबको ही रोना
ओ-ओ-ओ-ओ-ओ-ओ-ओ
दीपक शर्मा कुल्लुवी
09136211486
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 10:48am —
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ग़ज़ल
حد
हद
ले लो कुछ मेरे भी गम दोस्तों
कब तलक आपके ग़म उठाऊंगा मैं
बह न जाएँ कभी अश्क डर है मुझे
कब तलक अपनें आसूं छुपाऊंगा मैं
आपकी याद जीने ना देगी मुझे
मोत से खुद को कब तक बचाऊंगा मैं
खुदा तो नहीं मैं भी इन्सान हूँ
ज़ख्म सीने में कब तक दबाऊंगा मैं
ना पीने की हमनें कसम तोड़ दी
आपके ख्यालों से कब तक बहलाऊंगा मैं
दीपक शर्मा कुल्लुवी
دبك شارما كلف
09136211486
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 10:45am —
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ए ग़म कब तलक साथ चलता रहेगा
छोड़ दे मेरा साथ अब खुदा के लिए
ज़र्रा ज़र्रा टूट चुका है मेरा नाजुक सा दिल
माँ ले मेरी बात अब खुदा केलिए
दीपक कुल्लुवी
إ جم كاب طلاق ثاث شلت رهج
شهد د مرة سطح أب خودا ك لي
زارا زارا توت شوكة مرة نازك سى ديل
مان ل مري بات أب خودا ك لي
دبك شارما كلف
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 10:44am —
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सामयिक गीत:
आज़ादी की साल-गिरह
संजीव 'सलिल'
*
*
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
चमक-दमक, उल्लास-खुशी,
कुछ चेहरों पर तनिक दिखी.
सत्ता-पद-धनवालों की-
किस्मत किसने कहो लिखी?
आम आदमी पूछ रहा
क्या उसकी है कहीं जगह?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
'पट्टी बाँधे आँखों पर,
अंधा तौल रहा है न्याय.
संसद धृतराष्ट्री दरबार
कौरव मिल करते अन्याय.
दु:शासन…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 17, 2010 at 8:00pm —
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मुक्तिका:
कब किसको फांसे
संजीव 'सलिल'
*
*
सदा आ रही प्यार की है जहाँ से.
हैं वासी वहीं के, न पूछो कहाँ से?
लगी आग दिल में, कहें हम तो कैसे?
न तुम जान पाये हवा से, धुआँ से..
सियासत के महलों में जाकर न आयी
सचाई की बेटी, तभी हो रुआँसे..
बसे गाँव में जब से मुल्ला औ' पंडित.
हैं चेलों के हाथों में फरसे-गंडांसे..
अदालत का क्या है, करे न्याय अंधा.
चलें सिक्कों जैसे वकीलों के झाँसे..
बहू…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 17, 2010 at 7:36pm —
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एक लकडहारा था..बेहद गरीब और मासूम.जबतक जंगल में कड़ी मेहनत कर लकड़ी न काटता था और उसे बेच कर कुछ पैसे न कमाता था उसके घर में चूल्हा नहीं जलता था .एकबार कई दिनों तक लगातार मूसलाधार बारिश हुई, लकडहारा जंगल नहीं जा पाया फलस्वरूप उसके घर भुखमरी की नौबत आ गयी ....खैर ..बारिश तो एक दिन थमना था सो थमी ...लकडहारा कुल्हाड़ी लेकर जंगल भागा.संयोग से उसे एक पेड़ सूखा मिल गया..उसने मेहनत से ढेर सारी लकड़ी काटी...किन्तु एक भूल हो गयी थी ..घर से वह रस्सी लाना तो भूल ही गया था ..अब क्या हो ?लकड़ी का ढेर…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on August 17, 2010 at 6:28am —
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अपने दिल को तब धड़कते पाया था
गो कि तुम नहीं... तुम्हारा साया था --
तुम अय्यार थे जो संभल गए जल्दी
मैं अब तलक तुम्हे भूल ना पाया था --
जुल्फों की तारीकियों में गुज़रे वो लम्हे
औ कल तुम दिखीं, जब जूड़ा बनाया था --
बहुत सिकुड़ी शब-ए-वस्ल इन बाहों में
जो हुई सहर तो कोई सपना पराया था --
तेरे दर से लौटा तो फ़कीर सा खुश था मैं
नाउम्मीदियों का पोटला भी भर आया था --
लो अश्क बन गए अब दोस्त मिरे 'ताहिर'
ख़याल-ए-इश्क जो…
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Added by विवेक मिश्र on August 17, 2010 at 1:30am —
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AAKHARI PANNEN
आखरी पन्नें
آخر بن
मेरे आंसुओं के
कद्रदान हैं बहुत
हम रोना नहीं चाहते
वोह बहुत रुलाते हैं
दीपक शर्मा कुल्लुवी
دبك شارما كلف
हमनें किसी के वास्ते
कुछ भी नहीं किया
अब किसको क्या बतलाएं
किस हाल में मैं जिया
दीपक शर्मा कुल्लुवी
دبك شارما كلف
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 16, 2010 at 4:23pm —
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मैं और मेरी शायरी
मुझे अपनी खता मालूम नहीं
पर तेरी खता पर हैराँ हूँ
तकदीर के हाथों बेबस हूँ
अफ़सोस है फिर भी तेरा हूँ
दीपक शर्मा कुल्लुवी
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 16, 2010 at 4:21pm —
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