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Sheikh Shahzad Usmani's Blog (338)

क़सीदे और क़शीदाकारी (लघुकथा)

रंग-बिरंगे मोती एकत्रित हो चुके थे। कुछ पुराने और कुछ नये। कारीगर भी थे और फ़ोटोग्राफ़र भी। शादीशुदा औरतें भी और तलाक़शुदा भी रंग-बिरंगी पोशाकों में। दीग़र ताम-झाम भी इकट्ठे कर लिए गए थे। मंत्री महोदय के पधारते ही सरकार की तारीफ़ में क़सीदे गाये जाने लगे। ख़ास काम निबटा कर मंत्री जी को वापस रवाना होना था।

"कुछ जवान कुंवारी लड़कियों और कुछ जवान तलाक़शुदा औरतों को काम पर बिठा दो!" एक कार्यकर्ता ने दूसरे से कहा।

सिर पर दुपट्टे लपेटे कुछ मुस्लिम लड़कियों और औरतों ने ताने-बाने का सामान…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 10, 2018 at 11:30pm — 14 Comments

आमूल-चूल भूल (लघुकथा)

महाविद्यालयीन कक्षा में छात्रों के अनुरोध पर हिन्दी के शिक्षक उन्हें "भूल, ग़लती, और भूलना" शब्दों में अंतर समझाते हुए बोले - "भूतकाल में अज्ञानता वश किया गया कोई भी कार्य या क्रिया जिसके कारण वर्तमान या भविष्य में हानि उठानी पड़े 'भूल' कहलाती है! 'भूल' का हिन्दी में अर्थ होता है “गलती या दोष”; इस शब्द का इस्तेमाल अक्सर “चूक” शब्द के साथ किया जाता है!" कुछ उदाहरणों सहित समझाने के बाद शिक्षक ने छात्रों से कुछ और उदाहरण प्रस्तुत करने को कहा। 'भूल' पर कुछ जवाब यूं भी रहे :



"जैसे अमर…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 6, 2018 at 8:30pm — 8 Comments

'मदारी अपने-पराये' (लघुकथा) :

आज भी मुहल्ले में  मदारी के डमरू की धुन पर बंदर और रस्सी पर संतुलन बनाती बच्ची के खेल देख कर दर्शक तालियां बजाते रहे। फिर परंपरा के अनुसार कुछ पैसे फेंके गये। फिर भीड़ छंटने लगी। कुछ लोग चर्चा करने लगे :

"कितनी दया आ रही थी उस भूखे बंदर और भूखी कमज़ोर सी बच्ची को देख कर!" एक आदमी ने अपने साथी से कहा।

"हां, कितना ख़ुदग़र्ज़ और दुष्ट मदारी था वह!" साथी बोला।

"पहले तो खेल का मज़ा ले लिया और अब उन पर हमदर्दी जता रहे हो!" तीसरे आदमी ने बीच में आकर उन दोनों के कंधों पर हाथ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 6, 2018 at 1:31am — 7 Comments

देवियां (लघुकथा)

"वाह, नया घर तो बहुत अच्छा है! लेकिन ये खिड़कियां और दरवाज़े हमेशा बंद ही क्यों रखती हो?" दो साल बाद आये भाई ने अपनी बहिन से पूछा।



"तुम्हारे जीजाजी के कहे मुताबिक़ सब करना पड़ता है!" बहिन ने भाई को सुंदर बेडरूम दिखाते हुए कहा।



"बेडरूम में ये डंडा और रॉड क्यों है दरवाज़े के पीछे?" मुआयना करते हुए भाई ने हैरत से पूछा।



"तरह-तरह के लोग आते रहते हैं यहां, उनके अॉफिस के अलावा! मारपीट की गुंजाइश भी रहती है उनके वक़ालत के काम में न!" बहिन कुछ उदास हो कर बोली,…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 24, 2018 at 10:30pm — 5 Comments

दरिया में गोलमाल (लघुकथा)

 वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के दौर में स्वार्थपरक  समझौतों और गतिविधियों के ज़रिये  एक-दूसरे की 'नेकी' और 'दरिया' नये रूप में परिभाषित हो रहे थे। चर्चा चल रही थी :

विकसित देश (विकासशील देश से) - "नेकी कर दरिया में डाल। हम आपके दोस्त हैं!"

विकासशील देश (अपने नेताओं, व्यापारियों और उद्योगपतियों से) - "घोटाले कर और विदेश (दोस्त) में डाल। हम कर्ज़दार हैं।"

नेता, व्यापारी और उद्योगपति (अपने सत्ताधारी राजनैतिक दल से) - "हमसे ले, फिर हमको…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 24, 2018 at 1:00am — 2 Comments

मिज़ाज (लघुकथा)

रंगों से सराबोर गीली साड़ियों से लिपटी कुछ ग्रामीण मज़दूर महिलायें टोली में गली से गुजरीं।


"उधर देखो और बताओ कि उनके अंग-अंग रंगीन हैं या वस्त्र?" एक रंगीन मिज़ाज पुरुष ने अपने साथी से कहा।


"वस्त्र गीले और रंगीन हैं और अंग सूखे और रंगहीन! समझ में नहीं आता तुम्हें?" साथी ने उसकी आंखों के सामने चुटकी बजाते हुए कहा।


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 20, 2018 at 11:30pm — 14 Comments

अगला वेलेंटाइन (लघुकथा)

"बहुत हो गये फोटो! अब मैं तुम्हें बिकनी में देखना चाहता हूं!" अंततः शरीर की भूख उसके शब्दों से ज़ाहिर हो गई थी। दोस्ती से तन तक के फार्मूले से बचकर अगली बार जब उसने मुहब्बत बरसाने वाले शादीशुदा आदमी के साथ वेलेंटाइन डे मनाया तो दो शरीर एक हो ही गये थे और बरसने वाली मुहब्बत चंद दिनों में ही रफूचक्कर हो गई थी। शादीशुदा मर्द से धोखा खाने के बाद इस बार वेलेंटाइन डे पर वह एक साहित्यकार की आगोश में थी।



"तुमने विवाह क्यों नहीं किया?" अपनी लिखी कुछ काव्य रचनाएं सुनाकर साहित्यकार ने…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 10, 2018 at 9:30pm — 7 Comments

पकोड़े (लघुकथा)

गरम कड़ाही में वे नाच रहे थे। नहीं, उन्हें नचाया जा रहा था।‌ उबलते तेल में एक झारे से उन्हें पलटा जा रहा था। रंग बदलते ही उन्हें कड़ाही से बाहर कर थाली में और फिर दीवाने ग्राहकों को दोनों में चटनी के साथ पेश किया जा रहा था। उनमें से एक युवक की निगाहें कभी कड़ाही में, कभी हाथों में थामे गये 'दोनों' पर, तो कभी ग्राहकों के चलते जबड़ों पर जा रहीं थीं, तो कभी झारा चलाते युवा पकोड़ेवाले पर।

"यूं क्या देख रहे हो? क्या सोच रहे हो भाई? आपको कितने के चाहिए?" कुछ पकोड़े थाली में उड़ेलते…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 5, 2018 at 6:00pm — 8 Comments

गेटप्रेम (लघुकथा)

पहली दिल्ली यात्रा के दौरान गन्तव्य की ओर जाते समय टैक्सी इण्डिया गेट के नज़दीक़ पहुंची ही थी कि वहां दर्शकों की भीड़ देखकर उसने टैक्सी चालक से कहा - "यह तो इण्डिया गेट है न! ग़ज़ब की भीड़ है! देखने लायक ऐसा क्या है यहां? लोग तो फोटो भर उतार रहे हैं, सेल्फी ले रहे या खाने-पीने में भिड़े हुए हैं?"



"यह मॉडर्न देशप्रेम है साहब! शहीदों के नामों और कामों से कोई मतलब नहीं इन्हें! ये तो बस लोकेशन और गेटप्रेम है!" टैक्सी-चालक ने उसकी तरफ़ मुड़कर कहा -"वैसे आप कहां ठहरेंगे? आप कहें तो एक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 4, 2018 at 9:00am — 14 Comments

आहत संवेदनायें (लघुकथा)

एक किसान, एक सैनिक से यूं रूबरू हुआ :

"तुम्हारे पास क्या-क्या है?"

"मेरे पास हैं बंदूक, तोप, गोला-बारूद और रक्षा और युद्ध के आधुनिक साजो-सामान! अब तू बता, तेरे पास क्या-क्या है?"

"हमरे पास तो बाबू गैंती-फावड़े, बीज-खाद, और खेती-किसानी के पुराने और आधुनिक साजो-सामान हैं! वैसे अपनी चीज़ों के नाम और रूप भले अलग-अलग हैं, पर काम और नसीब तो अपन दोनों के एक जैसे लगते हैं!"

"हां, दोनों ही अपनी मां के लिए अपना-अपना ख़ून-पसीना और परिवार दांव पर लगा देते हैं!"

"पर बाबू अपनी इस…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 26, 2018 at 5:00am — 4 Comments

'रिश्तों का बसंत' (लघुकथा)

"ज़्यादा मत उड़ो, ज़मीन पे रहो; घर-गृहस्थी पे ध्यान दो, समझे!"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं बाबूजी, मुझसे क्या ग़लती हुई?"

"ग़लती नहीं, ग़लतियां कर रहे हो मियां!"

" समझा नहीं! क्या मेरी साहित्यिक यात्राओं से आपको कोई कष्ट?"

" मुझे ही नहीं, हम सब को तक़लीफ है! सुना है कि कल फिर तुम दिल्ली से क़िताबें सूटकेश में भर कर लाये हो! पगलिया गये हो क्या?"

"बाबूजी, ये वे पुस्तकें हैं जिनमें मेरी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं या जिन्हें पढ़कर मुझे अपना लेखन सुधारना है!"

"अब बहू ही तुम्हें…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 22, 2018 at 4:34am — 5 Comments

अक़्ल पर ताले (लघुकथा)

शहर की व्यस्ततम सड़क पर रुके वाहनों और उनके हॉर्न्स की आवाज़ों पर किसी धनाढ्य परिवार की बारात का डीजे बैन्ड हावी हो चुका था। लोग लाइट्स से घिरे दूल्हे के नज़दीक चल रहे डांस के मज़े ले रहे थे। दुकानों पर खड़े ग्राहक भी किसी तरह झांक-झांक कर सजे-धजे युवा बारातियों का नृत्य देखने और आँखें सेंकने की कोशिश कर रहे थे। वहीं पास की पान की दुकान पर खड़े एक बुज़ुर्ग ने नज़दीक़ खड़े परिचित युवक से पूछा - "ये कौन से गाने पर डांस कर रहे हैं , मुझे तो बोल समझ में ही नहीं आ पा रहे…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 20, 2018 at 10:35pm — 7 Comments

घर के काज (लघुकथा)

जनवरी की कड़ाके की ठंड। घना कोहरा। सुबह क़रीब पांच बजे का वक़्त। सरपट भागती ट्रेन की बोगी में सादी साड़ियां, पुराने से सादे स्वेटर और रबर की पुरानी से चप्पलें पहनी चार-पांच ग्रामीण महिलाओं की फुर्तीली गतिविधियां देख कर नज़दीक़ बैठा सहयात्री उनसे बातचीत करने लगा।

"ये चने की भाजी कहां ले जा रही हैं आप सब?"

"दिल्ली में बेचवे काजे, भैया!" एक महिला ने भाजी की खुली पोटली पर पानी के छींटे मारकर दोनों हाथों से भाजी पलटते हुए…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 6, 2018 at 7:30am — 4 Comments

चूना लगा (लघुकथा)

"आप मुझसे कब तक प्रेम करेंगे?" समुद्र तट पर पति के साथ प्यार भरे लम्हों में बहुत भावुक होते हुए पत्नी ने कहा।
पति ने उसकी आँखों से आँसू की एक बूंद निकाल कर समुद्र के पानी में डाला और बोला - "इस आँसू की बूंद को जब तक तुम खोजकर नहीं निकालतीं, मैं तब तक तुमसे प्रेम करूँगा ..!"
यह देख समुद्र की भी आँखों में पानी आ गया और उसने कहा - 
"कहाँ से सीखते हो रे तुम लोग ... पत्नी को इतना चूना लगाना…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 4, 2018 at 9:24am — 7 Comments

गऊ ठीक-ठाक नहीं (लघुकथा)

उसे फिर किसी की चीख़ सी सुनाई दी।  उसने सोचा कि पड़ोसी का बच्चा फिर पिट गया होगा स्कूल का होमवर्क समय पर पूरा न कर पाने की वज़ह से या किसी ज़िद की वज़ह से। तभी एक और चीख़ उसे सुनाई दी। उसने अबकी सोचा कि फिर कोई बदज़ुबान बीवी या सास पिट गई होगी या कोई शराबी पति अपनी तेज-तर्रार बीवी से!  अगली चीख से स्पष्ट हो गया था कि चीख़ किसी महिला की ही थी। 

"भाड़ में जाए! करना क्या है? कर भी क्या सकते हैं ? उसकी बस्ती में तो आये दिन ऐसा कुछ न कुछ होता रहता है! रात के बारह बज चुके हैं, अपना भी सोने…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 16, 2017 at 11:28pm — 11 Comments

असलियत (लघुकथा)

"पंडित जी, अब ज़रा गायत्री बिटिया को बुला लो, डाक पावती की इंट्री वग़ैरह करवा दो हमारे मोबाइल में!" कड़क चाय की आख़री घूंट हलक़ में डालते हुए पोस्टमेन नज़ीर भाई ने कहा।

"इस उम्र में तुम्हारा काम भी मॉडर्न हो गया, भाईजान!" पंडित जी ने चुटकी लेते हुए बिटिया को पुकारा और कहा, "इनको तो बहुत टाइम लगेगा! गायत्री तुम ही कर दो इन्ट्री!"

डाक-विभाग के मोबाइल पर डाक के विवरण भरवाने के साथ ही मंदिर का प्रसाद लेकर नज़ीर भाई विदा लेते हुए साइकल तक पहुंचे ही थे कि पंडित जी की घूरती…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 14, 2017 at 3:30am — 8 Comments

ज़हनियत (लघुकथा)

"फाइनली ख़ुदकुशी करने का इरादा है क्या? सुसाइड नोट लिखने जा रही हो?"

"मैं! मैं ऐसी बेवक़ूफी करूंगी! कभी नहीं!"

"तो फिर सोशल मीडिया के ज़माने में काग़ज़ पर क्या लिखना चाहती हो?" कोई कविता, शे'अर या कथा?"

"वैसी वाली मूरख भी नहीं रही अब मैं! जो मुझे चैन से जीने नहीं देते, उन्हें भी चैन से जीने नहीं दूंगी अब मैं!"

"तो क्या एक और फ़र्ज़ी ख़त लिख रही हो अपने मायके और वकील मित्रों को झूठे ज़ुल्मो-सितम बयां करके!"

"कुछ तो इंतज़ाम करना पड़ेगा न! पता नहीं मेरा शौहर कब तलाक़ दे दे…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 9, 2017 at 7:32pm — 9 Comments

गणितज्ञ (लघुकथा)

तमाम अटकलों के बीच आयुषी की आकस्मिक मौत मीडिया, पुलिस और जांच एजेंसियों के लिए रोमांचक और रोमांटिक विषय बन चुकी थी। छान-बीन में जब उसकी ख़ास सहेली तसनीम का ख़ास ख़त खोजियों के हाथ लगा तो वह भी मीडिया में वायरल हो कर सार्वजनिक हुआ :



अज़ीज़म आयुषी,



हर बार किसी न किसी इशारे से आत्महत्या के इरादे ज़ाहिर करती हो। दुःख होता है तुम जैसी होनहार सहेली की ऐसी नकारात्मक सोच पर, इसलिए सोचा कि मैं अपनी आपबीती सुनाकर काश तुम्हें इस घोर अवसाद से बाहर ला सकूं।

मर्द जाति के 'उस'… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 4, 2017 at 1:30pm — 5 Comments

केक के बोलते टुकड़े (लघुकथा)

इस बार उसकी ज़िद पर उसके जन्मदिन पर उसकी फ़रमाइश मुताबिक ख़ास लोगों को आमंत्रित किया गया था। तीन दिन लगातार छुट्टियां होने के बावजूद ताऊजी, चाचा-चाची या उनके बच्चे... कोई भी नहीं आया था। हां, दादा-दादी आये थे और आज सुबह वापस भी चले गए थे। आज उसे स्कूल जाना था, लेकिन मम्मी-पापा के समझाने के बावजूद आज वह स्कूल नहीं गया।

"बहुत हो गया गुड्डू! अब चुपचाप पढ़ने बैठ जाओ, घर पर ही तुम्हारी क्लास लगेगी आज!" मम्मी के सख़्त आदेश पर वह पढ़ने तो बैठ गया, लेकिन अतीत में खोया रहा अपने ताऊजी, चाचा-चाची और… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 2, 2017 at 1:04pm — 9 Comments

बस बहस ही वश में (लघुकथा)

"शुक्र है कि हमारा हाल पड़ोसी मुल्क जैसा नहीं है! हमारा लोकतंत्र जवां है, सदाबहार है!"

"हां, परिपक्व हो रहा है!"

"आप दोनों ग़लत कह रहे हैं! 70 साल से ऊपर का हो गया है अपना लोकतंत्र; तज़ुर्बेदार तो है, लेकिन अब सठिया गया है!"

"लोकतंत्र नहीं, लोग सठिया गए हैं । ख़ुदगर्ज़ी, होड़बाज़ी, अंधी नकल, अंधानुकरण और जुगाड़बाज़ी ने बंटाधार कर दिया है, बुद्धियों का, इस पीढ़ी का!"

"हां, सच कह रहे हो! इसी चक्कर में बच्चे कम उम्र में बड़े और युवा बूढ़े हो रहे हैं!"

"... और बूढ़े… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 25, 2017 at 7:16am — 7 Comments

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