होली के शुभ कामनाओं और बधाई सहित
रंग की उमंग में है या है भंग की....... तरंग,
मौसम की चाल में है लहरें...........गज़ब की…
Added by seema agrawal on March 22, 2013 at 7:46pm — 11 Comments
हल्की फुलकी ग़ज़ल पेश है दोस्तों
बर्फ दिल में जब जमी होती,
तभी आँखों में नमी होती।
धुँआ उठता जब आग जलती,
हवा चलती कब थमी होती।
फकत मिलते हाथ हाथों से,
दिलों में दूरी बनी होती।
हसीं मौसम देख मत इतरा,
ख़ुशी गम की भी सगी होती।…
Added by rajinder sharma "raina" on March 22, 2013 at 5:30pm — 2 Comments
कपोल पुष्प
अधर पंखुडियां
मनमोहिनी
तोतली बोली
नटखट,चंचल
मन मोहक
खिलखिलाता
बिगड़ता बनाता
बच्चे प्यारे है…
Added by ram shiromani pathak on March 22, 2013 at 5:04pm — 1 Comment
याद है
वो अपना दो कमरे का घर
जो दिन में
पहला वाला कमरा
बन जाता था
बैठक !!
बड़े करीने से लगा होता था
तख्ता, लकड़ी वाली कुर्सी
और टूटे हुए स्टूल पर रखा…
Added by Amod Kumar Srivastava on March 22, 2013 at 4:30pm — 4 Comments
काग़जी
सारी कवायद
बोल में
रेशम-तसर है
*गुंजलक में
कै़द वादों
से हकीकत
मुख्तसर है
खोखले नारे उठाए ...............
*कर्दमी
लोबान जलते
टापता
दूभर डगर है
बेरूखी
कहती हवा की
फाग कितना
बेअसर है
खोखले नारे उठाए ...............
स्तब्ध
चंपा, नागकेसर
बर्खास्त सेमल
की बहर है
बिलबिलाते
नीम, बरगद
*भवदीय भौंरा
ही निडर…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on March 22, 2013 at 1:43pm — 5 Comments
Added by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 22, 2013 at 11:49am — No Comments
दीदार का बस तेरे अरमान रहा अक्सर
इस प्यार से तू मेरे अनजान रहा अक्सर
बाजार में दुनिया के हर चीज तो मिलती है
तेरे हबीबों में भी धनवान रहा अक्सर
जिस वक्त दुनिया में था घनघोर कहर बरपा
उस…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on March 22, 2013 at 11:29am — 12 Comments
फा+गुन का मौसम
फा=फाल्गुन खेलते
गुन=गुनगुनाने का मौसम
-लक्ष्मण लडीवाला
ऋतुओं में ऋतू राज बसंत,
बसंत में फाल्गुन मास-
माह में भी होली ख़ास,
गाँव गाँव खिलते, महकते
चहुँ ओर खेतो…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 22, 2013 at 10:00am — 12 Comments
बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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भिनभिनाने से तेरे कौन बदल जाता है
अब तो मक्खी यहाँ कोई भी निगल जाता है
यूँ लगातार निगाहों से तू लेज़र न चला
आग ज्यादा हो तो पत्थर भी पिघल जाता है
जिद पे अड़ जाए तो दुनिया भी पड़े कम, वरना
दिल तो बच्चा है खिलौनों से बहल जाता है
तुझ से नज़रें तो मिला लूँ प’ तेरा गाल मुआँ
लाल अख़बार में फौरन ही बदल जाता है
थाम लेती है…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2013 at 12:14am — 8 Comments
जब तुम बुझा रहे थे अपनी आग,
मै जल रही थी.
मैं जल रही थी पेट की भूख से,
मैं जल रही थी माँ की बीमारी के भय से,
मैं जल रही थी बच्चों की स्कूल फीस की चिंता से .
जब तुम बुझा रहे थे अपनी आग,
मै जल रही थी.
*******
मैं बाहर थी
जब तुम मेरे अंदर प्रवेश कर रहे थे
मैं बाहर थी
हलवाई की दुकान पर.
पेट की जलन मिटाने के लिए
रोटियां खरीदती हुई.
मैं बाहर थी ,
दवा की दुकान पर
अपनी अम्मा के…
ContinueAdded by Neeraj Neer on March 21, 2013 at 10:31pm — 10 Comments
Added by Vindu Babu on March 21, 2013 at 10:13pm — 12 Comments
दोस्तों देखिये ग़ज़ल का मिजाज
जी रहे डरते डरते,
थक गये मरते मरते।
बात किस्मत की है,
हम गिरे चढ़ते चढ़ते।
खत्म अक्सर होता है,
आदमी लड़ते लड़ते।
है तमन्ना मरने की,
काम कुछ करते करते।
झड़ गये इक दिन सारे,
बाल ये झड़ते झड़ते।
जिन्दगी इक पुस्तक है,
याद हो पढ़ते पढ़ते।
डूब जाते सागर में,
हम कभी बढ़ते बढ़ते।
वक्त लग जाता…
ContinueAdded by rajinder sharma "raina" on March 21, 2013 at 7:30pm — No Comments
Added by बृजेश नीरज on March 21, 2013 at 6:30pm — 10 Comments
घोर कलियुग आ गया
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 21, 2013 at 5:26pm — 2 Comments
भोला संग चली भवानी
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 21, 2013 at 3:58pm — 6 Comments
व्यथित गंगा ज्ञानि से संबोधित है.
गंगा की व्यथा ने ज्ञानि के हृदय को झजकोर दिया है. गंगा उसे बताती है मनुष्य की तमाम विसंगतियों, मुसीबतों, परेशानियों का कारण उस का ओछा ज्ञान है जिसे वह अपनी तरक्की का प्रयाय मान रहा है.
इस ज्ञान ने उसे…
ContinueAdded by Dr. Swaran J. Omcawr on March 21, 2013 at 1:30pm — 7 Comments
लूट अकूत मची सगरे अरु ,छोड़त नाहि घरै अपना !
आपस में झगड़ाइ रहे सब ,पावत कौन रहा कितना !!
खीचत छीनत मारत पीटत,धोइ रहे जइसे पिटना!
होड़ मची इक दूसर से बस ,कौन बनावत है कितना !!
राम शिरोमणि पाठक "दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on March 21, 2013 at 12:52pm — 8 Comments
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on March 21, 2013 at 12:43pm — 6 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 21, 2013 at 12:42pm — 5 Comments
वातायन निर्वाक प्रहरी था,
बाहर मस्त पवन था
अंदर तो ‘बाहर’ निश्चुप था,
अंतर में एक अगन था.
कितने ही लहरों पर पलकर,
कितने झोंके खाकर
कितने ही लहरों को लेकर,
कितने मोती पाकर –
मैं आया था शांत निकुंज में.
मैं आया था शांत निकुंज में,
एक तूफ़ाँ को पाने
एक हृदय को एक हृदय से,
एक ही कथा सुनाने.
पर निकुंज की छाया में
थी तुम बैठी उद्भासित सी,
थोड़ी सी सकुचायी सी
और थोड़ी सी घबरायी सी.
स्तब्ध रहे कुछ पल
हम दोनों, पलकों…
Added by sharadindu mukerji on March 21, 2013 at 3:47am — 11 Comments
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