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March 2014 Blog Posts (163)

ग़ज़ल-चादनीं तुम मेरी बनीं हो क्या

दूर है चाँद बंदगी हो क्या

दिल की बस्ती में रौशनी हो क्या 

 

और के ख्वाब को न आने दिये

ख्वाब में ऐसी नौकरी हो क्या 

 

मुड़के देखा हमें न जाते हुये

तल्ख़ इससे भी बेरुखी हो क्या 

 …

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Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on March 31, 2014 at 6:00pm — 16 Comments

चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?

चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?

 

तुम सुंदर हो , तुम भोले हो

नटखट तुम हो बहुत सलोने ।

रूठ - रूठ जाते क्यूँ मुझसे ?

छुप छुप कर बादल के कोने ।

तुम बादल से झांक झांक कर, अपना रूप दिखाते क्यूँ हो

चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?

मुझसे स्नेह नहीं है, मानूँ –

तुम छुप जाओ नज़र न आओ ।

चंद्र बदन ढँक लो तुम अपना

मेरी बगिया नज़र न आओ ।

आँख मिचौली खेल खेल कर, रह रह मुझे रिझाते क्यूँ हो

चाँद मुझे…

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Added by S. C. Brahmachari on March 31, 2014 at 5:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल

साकी तो  हो गिलास भी हो क्या !

घूँट-दो -घूँट ये प्यास भी हो क्या  !

--

दूर-दूर यूँ रहकर पास भी हो क्या !

मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या !

--

क्यूँ लगता है डर सा अंधेरों को ?

मुझसे कह दो उजास भी हो क्या !

--

ढँक रही हो  मुझको  शिदद्त  से,

मेरी हमनफ़स लिबास भी हो क्या !

--

दूध जैसी निर्मल…

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Added by AVINASH S BAGDE on March 31, 2014 at 4:47pm — 3 Comments

बना खूब सरताज (दोहे) -ओबीओ की चौथी वर्षगाँठ के शुभ अवसर पर

1 अप्रैल 2014 को ओबीओ की चौथी वर्षगाँठ है। चार वर्षो में इस मंच ने मुझ जैसे सैकड़ों लेखको को तैयार किया है | इस अवसर पर दोहों के रूप में सभी सदस्यों में सहर्ष पुष्प समर्पित है ।-

 

 

मना रहे सब साथ में, उत्सव देखो आज

चार वर्ष कर पूर्ण ये, बना खूब सरताज |

 

बागी की ही सोच से, बिछ पाया यह साज

योगराज…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 31, 2014 at 3:30pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
लगे है धूप भी -ग़ज़ल

1222- 1222- 1222

मुसीबत साथ आई हमसफर की तरह

लगे है धूप भी अब राहबर की तरह

 

सहे जाता हूँ मौसम की अज़ीयत मैं                     अज़ीयत =यातना

बियाबाँ मे किसी उजड़े शजर की तरह

 

झुलसने लगता है मन सुब्ह उठते ही

हुये दिन गर्मियों की दोपहर की तरह

 

घुटन होने लगी है इन हवाओं मे

जहाँ लगने लगा है बन्द घर की तरह

 

हिसारे ग़म से बाहर लाये कोई तो                    हिसारे ग़म= ग़म का घेरा

मुसल्सल…

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Added by शिज्जु "शकूर" on March 31, 2014 at 8:08am — 29 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना

आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना

 

05 दिसम्बर 1986 के दिन पहली बार जहाज “थुलीलैण्ड” के साथ हम लोगों का रेडियो सम्पर्क स्थापित हुआ. अभी भी नये अभियान दल को अंटार्कटिका पहुँचने में लगभग तीन सप्ताह का समय लगना था, लेकिन मन में कितने ही मिश्रित भाव उमड़ने लगे. जहाज मॉरीशस के इलाके में था. एक साल पहले वहाँ से गुजरते हुए हम लोगों को जहाज से उतरने की अनुमति नहीं मिली थी. क्या वापसी यात्रा में हम मॉरीशस की धरती पर उतरेंगे ? कौन जाने ! फिलहाल जहाज के आने की प्रतीक्षा है – उसमें…

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Added by sharadindu mukerji on March 31, 2014 at 1:30am — 17 Comments

जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं

जो बुत हैं मौन मंदिर में उन्हें सब सर झुकाते हैं

 

जिकर होता है जिसका दोस्तों हर सांस में मेरी

मेरे दुश्मन का लेके नाम वो मेंहदी रचाते है  

 

जहाँ भी चाहते दिल फेंकते आदत है ये उनकी

नजर जब हमसे मिलती है तो वो कितना लजाते हैं

 

सजाये थे गुलाबी पांखुरी से पथ मगर अब क्या

जो पल्लू झाड़ियों में खुद ही अब उलझाये जाते हैं

 

गुलाबों की भी किस्मत आशु…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on March 30, 2014 at 1:00pm — 19 Comments

नवगीत-----झील चुप सी.......!

नवगीत--झील चुप सी.......!

झील चुप सी राह तकती,

नाव डगमग

भाव भर कर

राज सारे पूछती है।

रेत फिसली

तट सॅवर कर,

हाथ पल पल

धो रही नित,

मल घुला जल

विष भरे तन

मीन प्यासी कोसती है।।1



सूर्य किरनों से

पिए नित रक्त

नदियों के बदन का,

धर्म की

पतवार भी अब

तीर सम तन छेदती है।।2



वन-सरोवर

तन उचट कर

छॉंव गिर कर

दूर जाती।

प्रेम का

सम्बन्ध रचकर

सांझ तक मन सोखती…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 30, 2014 at 8:53am — 17 Comments

ग़ज़ल: जां कभी ये जहान लेता है

जां कभी ये जहान लेता है

और कभी आसमान लेता है



सब्र का इम्तेहान लेता है

हिज़्र का पल भी जान लेता है



रिंद आबे हयात पी आया 

और वाइज़ बयान लेता है



लोग कहते हैं सर कटा ले तू

और वो बात मान लेता है



पैरवी कर के वो लुटेरों की

रोज मुफ़लिस की जान लेता है



लो ग़ज़ल बन गयी ये कहते हैं

जब वो कहने की ठान लेता है



वो मुझे राज़दार है कहता 

और शमशीर तान लेता है



धार आ जाती है हवाओ में

ख्वाब जब भी उड़ान…

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Added by भुवन निस्तेज on March 30, 2014 at 12:00am — 10 Comments

दोहे.....................मानव !

मानव

मानव इस संसार का, स्वयं बृह्म साकार।

दंगा आतंक द्वेष को, खुद देता आकार।।1

मानव मन का दास है, पल पल रचता रास।

अन्तर्मन को भूल कर, बना लोक का हास।।2

तंत्र-मंत्र मनु सीख कर, चढ़ा व्यास की पीठ।

करूणाकर सम बोलता, इन्द्रराज अति ढीठ।।3

स्वर्ग जिसे दिखता नहीं, वह है दुर्जन धूर्त।

मात-पिता के चरण में, चौदह भू-नभ मूर्त।।4

पाठ पढ़े हित प्रेम का, कर्म करे विस्तार।

ज्ञान सुने ज्ञानी बने, भाव भरें…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 29, 2014 at 8:30pm — 8 Comments

कह मुकरियाँ

कह मुकरियाँ

(ये मेरा पहला प्रयास है )

प्रेम बूँद वो भर भर लाते

तपित हिये की प्यास बुझाते

मन मयूर मेरा उस पर पागल

क्या सखि साजन्, ना सखि बादल

 

कभी पेड़ों के पीछे से झाँके

कभी खिड़की से झाँक मुस्काए

हँस हँस के डाले है वो फंदा

क्या सखि साजन्, ना सखि चंदा

 

उम्मीदों की किरण जगाता

स्फूर्ति नई वो भर भर लाता

शुरु होता जीवन उससे मेरा

क्या सखि साजन्, ना सखि…

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Added by Maheshwari Kaneri on March 29, 2014 at 1:00pm — 4 Comments

बहाकर अश्क भी यारो - ग़ज़ल

1222    1222     1222     1222

****

सिखाते  क्यों  हमें  हो  तुम वही इतिहास की बातें

दिलों में  घोलकर  नफरत  नये  विश्वास  की बातें

*

बताओ  घर   बनेगा  क्या  हमारा   आसमानों  में

जमीनें  छीन   के   करते  सदा  आवास  की  बातें

*

कहाँ  से  हो  कठौती  में   हमारे   गंग  की  धारा

बिठाई  ना  मनों  में जब  कभी रविदास  की बातें

*

बहाकर  अश्क  भी  यारो  कहाँ  दुख  दूर  होते हैं

गमों  से  पार  पाने  को  करो   परिहास  की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 29, 2014 at 7:30am — 29 Comments

ये ग़ज़ल नहीं है देश का बयान है

ये  ग़ज़ल नहीं है देश का बयान है, 

डूबते जहाज की ये दास्तान है।

लुट रही है कहकहाें के बीच अाबरु, 

धर्तीपुत्र अाज माैन, बेजुबान है।

गर्व था उन्हें कि बन गये जगतपिता, 

गर्भ में ही मर चुका वाे संविधान है। 

हम ताे नेक हैं ये बाेलता है हर काेई, 

हर काेई कहे कि मुल्क बेइमान है। 

घर ताे बन गया मगर वाे साे नहीं सके, 

बेघराें के बीच घर जाे अालिशान है। 

लाेग पूछते हैं कैसे खण्डहर बना…

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Added by Krishnasingh Pela on March 29, 2014 at 12:30am — 14 Comments

जीवंत बने

मित्र !

आओ जीवंत बने|

देहधारी चेतना हम

कार्य-कारण को समझ

प्रत्येक क्षण-

स्मित-अधर या

सजल नयन हो

माने

'परम' प्रदत्त है

हर क्षण का सामंत बने|

गत क्षण से

आगत क्षण तक

यूँ गुथ

क्षण मणिमाल आत्म बल जाग्रत करें

कि

अंतर-जलद

संवेदना झर

प्यास हर

उर शांत बने|

आत्म कल्याण करें

क्षण-क्षण लोकहिताय रत

कर्मनिष्ठ जीवन-पर्यंत बने|

मित्र !

आओ जीवंत बने|

प्रमोद श्रीवास्तव, लखनऊ|

(मौलिक और…

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Added by PRAMOD SRIVASTAVA on March 28, 2014 at 11:30pm — 4 Comments

फिर आया मौसम चुनाव का - अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

फिर आया मौसम चुनाव का, वोट की कीमत जानो।                                                                 

पाँच बरस फिर अवसर दे दो, सेवक को पहचानो॥                                                             

लोकतंत्र मजबूत बनेगा, संशय मन में न पालो।                                                                  

भई, वोट मुझे ही डालो।                                                                                                                                          …

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Added by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on March 28, 2014 at 7:30pm — 11 Comments

एक कोशिश - ग़ज़ल

(2212 2212)

********************

थे साथ मेरे जो कभी

मेरे नहीं थे वो कभी

कुछ दर्द कम तो हो मिरा, 

ये घाव सी डालो कभी

जी को ज़रा ख़ामोश कर,

इन आँसुओं को रोक भी

कबतक दुखों से काम लूँ?

कोई ख़ुशी भी दो कभी

मैं ही सदा पलटा करूँ?

तुम भी मुझे रोको कभी

जिनका नहीं कोई कहीं,

उनके लिए भी रो कभी

जो मैं सही हूँ, 'दाद' दे,

जो मैं ग़लत हूँ, टोक भी

माँ ही…

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Added by Zaif on March 28, 2014 at 5:30pm — 9 Comments

बदला हुआ नजारा क्यूँ खुद आप सोचिये

२२१२ १२२२ २२१ २१२

वो बज्म में यूं तनहा क्यूँ खुद आप सोचिये

वो मैकदे मैं प्यासा क्यूँ खुद आप सोचिये

 

सूरज फलक पे आता है हर रोज वक़्त पर

फिर भी रहा अँधेरा क्यूँ खुद आप सोचिये

 

बचपन जवान होने से पहले ज़वाँ हुए

है बात इक इशारा क्यूँ खुद आप सोचिये

 

भरपूर तेल बाती भी दमदार थी मगर

किस ने दिया बुझाया क्यूँ खुद आप सोचिये

 

कांधा जो देने आया था हर शख्स गैर था

खुद को ही यूं मिटाया  क्यूँ खुद आप…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on March 28, 2014 at 4:00pm — 12 Comments

स्व के पार ... (विजय निकोर)

स्व के पार ...

 

हाथ से हाथ छूटने की

तारीख़ तो सपनों को पता है

हाथ फिर कभी मिलेंगे ...

तारीख़ का पता नहीं

 

तुम्हारे चले जाने के बाद

मेरे दिन और रात

उदास, चुपचाप, कतरा-कतरा

बहते रहे हैं

 

मेरे वक्त के परिंदे की पथराई पलकें

इन उनींदी आँखों की सिलवटों-सी भारी

उम्र के सिमटते हुए दायरों के बीच

थके हुए इशारों से मुझसे

हर रोज़ कुछ कह जाती हैं

और मैं रोज़ कोई नया बहाना…

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Added by vijay nikore on March 28, 2014 at 4:34am — 20 Comments

विरोध और गुंडई

इतना दंभ

इतना घमंड

इतनी आतुरता

इतनी व्यग्रता

इतनी उद्दंडता

ठीक नही बन्धु

अभी जियादा दिन नही हुए

गए अंग्रेजों को

भूल गये हाड-मांस के

नंगे-बदन, लंगोटी धारी

उस महामानव को

जिसने ऐसी चलाई थी आंधी

कि उखड गये थे पाँव

उनके जिनके साम्राज्य में

डूबता नही था सूरज.....

मैं जानता हूँ

कि विरोध सहना तुमने सीखा नही

कि विरोध करने और गुंडई करने के बीच

एक बड़ी दीवार है

गुंडई विरोध नही

गुंडई इन्किलाब… Continue

Added by anwar suhail on March 27, 2014 at 8:23pm — 3 Comments

घातक हैं नाजायज रिश्ते

जिन्दगी कब अपने रंग दिखा दे कुछ कहा नही जा सकता समय समय पर जिदगी में धुप और छाव का मौसम आता जाता हैं। एक लड़की की जिन्दगी भी ना जाने कितने मौसम लेकर आती हैं जब एक तरह के मौसम के साथ अब्यस्त होने लगती हैं तो मौसम का दूसरा रंग बदल जाता हैं और वोह घूमती रहती हैं अपने आप को सम्हालती हुयी तो कभी भिगोती हुयी । भावनाओं का अतिरेक भी उनकी संवेदनशीलता पर हावी होकर बहा ले जाता हैं उनको समंदर में जहाँ दिर डूबना होता हैं बाहर निकल आने का कोई रास्ता नही होता और यह जब रिश्तो के…

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Added by Neelima Sharma Nivia on March 27, 2014 at 6:53pm — 4 Comments

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