चुल्लू भर पानी
चिलचिलाती धूप मे भी तेरह –चौदह वर्षीय किशोर सिर पर मलबे से भरी टोकरी उठाए बहुमंज़िली इमारत से नीचे उतर रहा था । उतरते उतरते उसे चक्कर आने लगा उसने सुबह से कुछ खाया नहीं था । उसके घर मे कोई बनाने वाला नहीं था , उसकी माँ बहुत बीमार थी उसके लिए दवा का बंदोबस्त जो करना था उसी के वास्ते वह काम करने आया था । चक्कर आने पर वह वहीं सीढियों पर दीवाल से सिर टिका कर…
ContinueAdded by annapurna bajpai on June 3, 2013 at 6:30pm — 5 Comments
तपते रेगिस्तान मे पानी की बूंद जैसी,
उफनती नदी के बीच कुशल खिवैया सी ।
ससुराल मे तरसती बहू के लिए माँ सी ,
तमाम गलतियों के बीच समाधान सी ।
…
ContinueAdded by annapurna bajpai on June 3, 2013 at 4:30pm — 11 Comments
विधान : महभुजंगप्रयात सवैया - यगण (।ऽऽ) X 8
नहीं पुत्रियाँ क्या रहीं पुत्र जैसी उठा चिन्तनों में यही प्रश्न भारी
यही सोचते रात्रि बीती हमारी समाधान पाया नहीं बुद्धि हारी
पढ़ा सत्य है पुत्रियाँ हैं नहीं पुत्र जैसी कभी भी न होतीं विकारी
न मारो इन्हें गर्भ में पुत्र से श्रेष्ठ हैं मान लो शक्ति है मात्र नारी
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डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on June 3, 2013 at 3:30pm — 13 Comments
लैब से स्टूडेंट जा चुके थे . मनोज वर्मा प्रैक्टिकल रिकॉर्ड चेक कर रहा था .
‘अरे जयराम , यार तुम्हारे यहाँ गाय-भैस तो होगी ही , बढ़िया शुद्ध घी का इंतजान करो यार’ (मनोज मुस्कुराता हुआ अपने लैब सहायक से बोला)
‘है तो साहब , लेकिन घरही में पूर नाय पड़त’ .
‘अरे जुगाड़ करो यार कही से , पैसे की कोई बात नहीं है’ (जोर देते हुए मनोज बोला )
‘उ तो ठीक है साहब , देखित है’.
(कुछ सेकंड के मौन के बाद)…
ContinueAdded by DRx Ravi Verma on June 3, 2013 at 2:30pm — 3 Comments
वह शौक से मेरी जान लेगा,
हर कदम पे मेरा इम्तेहान लेगा,
पिघलेगा एक दिन मोम की तरह,
वह संगदिल मुझे जब पहचान लेगा,
गिर ही जायेँगी दीवारेँ नफरतोँ की,
मोहब्बत से काम जब इंसान लेगा,
मिलेगी 'आबिद' यहां मंजिल उसी को,
हौसलोँ से अपने जो भी उड़ान लेगा!
(मौलिक व अप्रकाशित)
_______आबिद
Added by Abid ali mansoori on June 3, 2013 at 1:30pm — 11 Comments
(नई कविता) अतुकान्त
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तपतॆ हुयॆ,
रॆत कॆ भूगॊल मॆं,
पढ़ रही हूं
तुम्हारी यादॊं का,
इतिहास,
और,,
गढ़ रही हूँ,
उम्मीदॊं कॆ,
विज्ञान की,
नई प्रयॊगशाला,
समाज-शास्त्र कॆ,
दु:सह नियम,
जकड़ॆ हुयॆ हैं,
मर्यादाऒं की बॆड़ियाँ,
फिर भी,,,,
विश्वास का गणित,
कह रहा है,
एक दिन,…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on June 3, 2013 at 9:30am — 9 Comments
उफ़ ! वह रात... आँखों देखी – 3
भूमिका : मैं इससे पहले आपको बता चुका हूँ कि भारत के अंटार्कटिका अभियान की सूचना कब और क्यों हुई. अंटार्कटिका का सूक्ष्म परिचय भी मैंने आपको दिया है लेकिन यह एक ऐसा विशाल विषय है कि इस पर किसी भी आलोचना या विचार विमर्श का अंत मुझे नहीं दिखता.
आप सब जानते हैं कि अंटार्कटिका एक महाद्वीप है जिसको घेरकर दक्षिण महासागर (Southern Ocean ) का रहस्यमय साम्राज्य है. यह महाद्वीप पृथ्वी के दक्षिण छोर पर होने के कारण यहाँ दिन-रात का चक्र कुछ दूसरे ही नियम से चलता…
Added by sharadindu mukerji on June 3, 2013 at 1:30am — 6 Comments
आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।
2122, 2122, 2122, 212
चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही
याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही
सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on June 2, 2013 at 7:30pm — 54 Comments
बाल सभी झड़ गये,बुढ्ढा अब दिखता हूँ !
हमउम्र औरतें भी,चाचा कह देती हैं !!
पत्नी भी मारे है ताना,भाग्य मेरे फूट गये !
कभी कभी वो भी मुझे,बुढ्ढा कह देती है !!
अपने ही जब कभी,अपना मज़ाक ले लें !
किससे कहूँ कितनी,पीड़ा मुझे होती है…
Added by ram shiromani pathak on June 2, 2013 at 1:30pm — 25 Comments
एक अँधेरी गली
सुनसान
वीरान
पथिक व्यथित
हलाकान
न कोई
हलचल
न कोई
आवाज
न साज
पथिक व्यथित
उदास
गहन अँधेरा
कालिमा का बसेरा
ह्रदय के स्पंदन
स्वर में बदल रहे हैं
चीत्कार
स्वयं की
बस स्वयं की
वर्षों सुनसान
गली में
चलते चलते
स्वयं से
परिचर्चा करते करते
कभी थाम लेता था
हाथ
स्वयं का दिलासा…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on June 2, 2013 at 12:00pm — 21 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।
विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।
लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े हैं सीढ़ियाँ,
शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।
भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,
दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।
बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,
दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।
खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,
अब हलक की…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on June 2, 2013 at 12:00pm — 27 Comments
शहर की तंग गलियों से निकलना चाहती हूँ,
मैं अपने गाँव के अंचल में जाना चाहती हूँ .
वो मौसम आम के ,डालियों से झूलना मेरा,
उन्हीं शाखों पे फिर झूम जाना चाहती हूँ .
बहुत ही याद आती हैं मेरे गांव की सखियाँ,
उन्हीं सखियों के संग खिलखिलाना चाहती हूँ .
बड़ी रफ़्तार वाली है शहर की ज़िन्दगी लेकिन,
मैं फुर्सत के वे लम्हे फिर चुराना चाहती हूँ .
चढ़ती ही जाऊं आस्मां की सीढ़ियाँ लेकिन,
जमीं पे ही अपना घर बसाना चाहती हूँ .…
Added by sanju shabdita on June 2, 2013 at 11:30am — 13 Comments
मेरे वास्तविक भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार में माता पिता और पांच भाई हैं . छोटे तीन भाई जो तिडुआ हैं, मुझसे ५ साल छोटे .
रौशन और जलज बी. टेक कर रहे है और पवन बी. ए. अंतिम वर्ष में है ..
होली के बहाने सब इकट्ठा हैं.
माँ (पवन से) – कल तुम फिर खा पी कर आये थे . खाना ख़राब हुआ . पहले बता नहीं पाते हो की ढूस के आओगे ?
पवन कुछ नहीं बोला ..
माँ (लगभग मुझे सुनाते हुए )- कल गेट नहीं खोल पा रहा था . पता नहीं ये लड़के क्या करेंगे ? रोज पार्टी , रोज दारू .
पवन कुछ…
ContinueAdded by DRx Ravi Verma on June 2, 2013 at 11:00am — 6 Comments
बहर : २१२२ १२१२ २२
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बाजुओं की थकान जिंदा रख
जीतने तक उड़ान जिंदा रख
आँधियाँ डर के लौट जाएँगीं
है जो खुद पे गुमान जिंदा रख
तेरा बचपन ही मर न जाय कहीं
वो पुराना मकान जिंदा रख
बेज़बानों से कुछ तो सीख मियाँ
तू भी अपनी ज़बान जिंदा रख
नोट चलता हो प्यार का भी जहाँ
एक ऐसी दुकान जिंदा रख
जान तुझमें ये डाल देंगे कभी
नाक, आँखें व कान…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 1, 2013 at 11:32pm — 29 Comments
साथ जिसकी हर निशानी आज भी
हूँ न उस को राजधानी आज भी।।
काम में खटता है बचपन देश का
भूख से मरती जवानी आज भी।।
प्यासा पन्छी ढूँढता है हर तरफ
सूखी नदिया में रवानी आज भी।।
फूल सूखे पुस्तकों में कह रहे
नेह की बिसरी कहानी आज भी।।
जन के सेवक ठाठ करते देश में
बनके राजा और रानी आज भी।।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2013 at 10:00pm — No Comments
माहिया पंजाब से उपजा है। जो कि शादी-ब्याह में गाया जाता रहा है।
माहिया का छन्द है मात्रायें- तीन चरणों में पहले में 2211222 दूसरे में 211222 तीसरे में 2211222
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माहिया-1.
कजरा ये मुहब्बत का,
तुमने लगाया है,
आँखों में कयामत का।
2.
कजरा तो निशानी है,
अपनी मुहब्बत की,
चर्चा भी सुहानी है।
3.
आँखों से बता देना,
तुमने कंहाँ सीखा,
ये तीर चला…
ContinueAdded by सूबे सिंह सुजान on June 1, 2013 at 10:00pm — 9 Comments
दिल में उठता पीर देखो
द्रोपदी का चीर देखो
मोल जिसका खो गया है
आँख का वो नीर देखो
दिल में जो सीधे लगे बस
शब्द के वो तीर देखो
फिर हुआ बलवा कहीं पे
खो गया जो वीर देखो
थी कभी नदियाँ यहाँ पर
बह गया जो छीर देखो
सांवरे को भूल कर के
आज राँझा हीर देखो
अनुराग सिंह "ऋषी"
मौलिक व अप्रकाशित रचना
Added by Anurag Singh "rishi" on June 1, 2013 at 6:00pm — 6 Comments
आशंकित सशंकित इंसान
लगा है निज आवरण बचाने में
जो बनाता रहा जीवन पर्यंत
कभी चाहे , कभी अनचाहे
जुटा है अपनी केंचुल बचाने में…
ContinueAdded by DRx Ravi Verma on June 1, 2013 at 11:55am — 13 Comments
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