आमदनी घट रही है,होंठों से मुस्कान की तरह.
और खर्चे बढ़ रहे है, चौराहे पे दूकान की तरह.
भले ही रहते है यारों हम आलीशान की तरह.
पर हालत हो गयी है अपनी भूटान की तरह.
अरे किस से सुनाये दर्द,जब सबका यही हाल है.
ये बेबस जिंदगी उधार की,बस जी का जंजाल है.
बड़ी मुश्किल से लोग,हंसने का रस्म निभाते है.
वरना चुटकुले भी आँखों में आंसू भर के जाते है.
खुशिया लगती है सुनी,मातम के सामान की तरह.
और हालत हो गयी है अपनी, भूटान की तरह.
महंगाई के…
Added by Noorain Ansari on September 27, 2012 at 9:30am — 6 Comments
सुना था बुरे वक़्त में
साया भी साथ छोड़ देता है
कमबख्त बुरे वक़्त का साया
मरते दम तक साथ चिपका रहता है
कभी नहीं छोड़ता
गर एक पल भी अच्छा पल मिला
उसने चुपके से आके
यादों की सुई चुभा दी
भूल मत भूल मत
कहता हुआ
मैं हूँ तेरा कल
तेरी परछाई
तेरी तन्हाई का साथी
तेरे बुरे वक़्त का साया
साया जो कभी नहीं छोड़ता साथ
सुखों में
दुखों में हर पल
रहता है पल पल
साथ
सच्चा दोस्त हूँ मैं
बुरे वक़्त का साया…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 27, 2012 at 8:50am — 2 Comments
एक सपना था जो टूट गया फिर,
व्यर्थ का ये प्रलाप है क्यों,
ख़ाबों के टूटने पर भी कभी,
कोई जान देता है भला,…
Added by पियूष कुमार पंत on September 26, 2012 at 10:13pm — 4 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on September 26, 2012 at 8:00pm — 20 Comments
महेश कोचिंग जाने के लिये तैयार हो रहा था कि तभी उसके पिता श्यामल बाबू ने उसे आवाज दी| "जी पिताजी" महेश ने उनके पास जा के पूछा| "हाँ महेश, सुनो मेरा तुम्हारी माँ के साथ झगडा हो गया है, वो कल उसने पकौड़े थोड़े फीके बनाये थे न, इसी बात पर| इसलिए आज सारा दिन तुम घर में बंद रहोगे और बाहर नहीं निकलोगे और यदि तुमने बाहर निकलने की कोशिश की, तो मैं तुम्हारे कमरे को पूरा तोड़-फोड़ दूंगा|" श्यामल बाबू इतना कह के चुप हो गये|
महेश ने हैरानी से अपने पिता को देखते हुए कहा - "पिताजी, यदि…
ContinueAdded by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 26, 2012 at 8:00pm — 6 Comments
जब भी शुभ्रांशु जी के हास्य-व्यंग्य के लेख पढ़ती हूँ ...लगता है कितनी आसानी और सहजता से से वो सब कुछ लिख जाते हैं और हँसा भी देते हैं ......एक दिन अचानक ही लगा दरअसल वो आसानी से लिख नहीं जाते है बल्कि यह लिखना बहुत आसान है l क्यों न मै भी कुछ हास्य व्यंग टाइप की चीज़ लिखूँ .
कविता में तो बड़ी पेचीदगियां है ..... एक कविता लिखने में तो…
ContinueAdded by seema agrawal on September 26, 2012 at 5:00pm — 15 Comments
बादल ने पूछा मानव से :
क्यों वृक्षों को काट दिया ?
धरती माँ का धानी आँचल
सौ टुकड़ों में बाँट दिया !
बन जायेंगे उन पेड़ों से कुछ खिड़की , कुछ दरवाज़े ...
देते रहना फिर बारिश की बूंदों को तुम आवाज़े ...
मानव ! तुमको कंक्रीट के जंगल बहोत सुहाते हैं ,
बोलो , क्या उनमें सावन के मोर नाचने आते हैं ?
बिन बरसे बादल लौटे तो धरती शाप तुम्हें देगी -
तपती , गरम हवा , सूखी नदिया संताप तुम्हें देगी !
वृक्ष धरा का आभूषण हैं , वृक्ष…
Added by Prabha Khanna on September 26, 2012 at 3:30pm — 4 Comments
जीवन निर्झर में बहते किन
अरमानों की बात करूं
तुम्हीं बता तो प्रियवर मेरे
क्या भूलूं क्या याद करूं
भाव निचोड़ में कड़वाहट से
या हृदय शेष की अकुलाहट से
किस राग करूण का गान करूं
क्या भूलूं क्या याद करूं
भ्रमित पंथ के मधुकर के संग
या दिनकर की आभा के संग
किस सौरभ का पान करूं
क्या भूलूं क्या याद करूं
उजड़े उपवन के माली से
प्रस्तुत पतझड़ की लाली से
किस हरियाली की बात करूं
क्या भूलूं क्या याद करूं
Added by राजेश 'मृदु' on September 26, 2012 at 12:30pm — 4 Comments
कौन अपने है कौन पराये
बात हमे ये
भ्रमित और झकजोर
क्यूँ जाए
विरह के जब
मेघ मंडराए
एकल बैठ के
हम अश्रु बहाए
वेदना ने
बेहाल किया जब
असहाए तब
स्वयं को पाए
जग की रीत
है बड़ी पुरानी
हर पीड़ित की
यही कहानी
व्यथा दे जब
हमें सताये
समक्ष स्वयं के
कोई न पाए
जीवन देता
सबक सिखायें
सत्य का तब
बोध करायें
अपना…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on September 26, 2012 at 12:07pm — 2 Comments
"गलती हमारा या हमारे आदमियों का नहीं है रमाकांत बाबू"| बाहुबली ठेकेदार तिवारी जी, डीएसपी रमाकांत प्रसाद को लगभग डाँटते हुए बोले| "हम उसको पहिलहीं चेता दिए थे कि ई रेलवे का ठेका जाएगा तो ठेकेदार दीनदयाल राय के पास जाएगा नहीं तो नहीं जाएगा, लेकिन उ साला अपनेआप को बहुत बड़का बाहुबली समझ रहा था| अब खैर छोडिये, जो हो गया सो हो गया| जो ले दे के मामला सलटता है, सलटाइए|"
"आप समझ नहीं रहे हैं सर| बात खाली हमारे तक नहीं है कि आपका कहा तुरंत भर में कर दें| हमारे ऊपर भी कोई है, उप्पर से ई मीडिया…
ContinueAdded by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 26, 2012 at 11:32am — 2 Comments
क्या लिखूँ अब मैं
सब तो लिख दिया मैंने
अपने दिल की बाते
टूटे ख्वाबों की यादे
सब..............
क्या लिखूँ अब मैं................
सब तो लिख दिया मैंने.............................
जिन्दगी----- कल भी तो ऐसी ही थी
कुछ भी तो नही बदला
कल भी जी रहे थे बिन अपनों के हम
और आज भी तो जी ही रहे है............
कुछ भी तो नही बदला
क्या लिखूँ अब मैं......
सब तो लिख दिया मैंने..............
जब सीखा था अपने दिल को कागज़ पर…
Added by Sonam Saini on September 26, 2012 at 11:00am — 5 Comments
तू एक ऐसा ख़्वाब है
जिस्म में ढलता ही नहीं
मेरा ही हमसाया
जो मेरे साथ चलता ही नहीं !
किस मोम से बना
मेरे ताप से पिघलता ही नहीं
कितना बे असर हो गया
ये दिल जो संभलता ही नहीं !
नम हो गया अंश वक़्त का
हाथ से फिसलता ही नहीं
जम गए नासूर वफ़ा के
अब मरहम फलता ही नहीं
************************
Added by rajesh kumari on September 26, 2012 at 10:30am — 16 Comments
Added by Neelam Upadhyaya on September 26, 2012 at 10:30am — 2 Comments
निस्बतें यूँ बढ़ीं हमसे ज़माने की हौले हौले
खुलती गईं सब तहें अफ़साने की हौले हौले
हस्रतें मरने लगी हैं घर बसानेकी हौले हौले
कीमतें कुछ यूँ बढ़ीं आशियानेकी हौले हौले
बस्तियोंमें भी नशा-सा होने लगा है सरेशाम
दीवारें टूटने लगी हैं मयखाने की हौले हौले
फर्क मिट गए हस्पतालों और होटलोंके अब
सूरतें बदल गईं हैं शिफाखाने की हौले हौले
ये कोई प्यार नहीं हैकि दफअतन हो जाता
आदतें आईं दुनिया से निभाने की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 26, 2012 at 8:42am — 6 Comments
कवि का काम है।
जो नहीं कहा गया हो,
अब तक जमाने में,
वो कहा जाये।
पिछला कहा हुआ
सच रहे,बचा रहे।
उससे आगे कुछ कहा जाये।।
आदमी बोलता रहे
आदमी चुप न होने पाये।
पानी से पत्थर को काटा जाये।
खुद को बार-बार डाँटा जाये।।
दूसरों से प्यार किया जाये
आदमी को आदमी ही रहने दिया जाये।
आदमी बहुत बेहतर है।
मशीन भी बनाई जाये।
लेकिन ज्यादा न चलाई जाये।
अपनी आँखों में ही,
सबकी आँखों को लाया जाये।
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।सुजान
Added by सूबे सिंह सुजान on September 25, 2012 at 11:30pm — 3 Comments
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
सूरज की आँखों में कोहरे की चुभन रही
धुप के पैरो में मेहंदी की थूपन रही
शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को
समझ गए रिक्शे भी भीड़ के इशारों को
बच्चो के खेल सब कमरों में गए बिखर
ठिठक गए चौराहे भी खम्भों के इधर उधर
सुलग उठे हल्के हल्के बल्बों के मन उदास
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का…
Added by ajay sharma on September 25, 2012 at 11:30pm — No Comments
मासिक वेतन मीत है पेंसन है सम्बन्ध |
जीवन अंधी खोह है न सूरज न चंद |
इअमाई लोन का है वेतन पर राज | |
टीडीएस इस कोढ़ को बना रहा है खाज|
कन्याये है कैजुअल लड़के अर्जित आवकाश | |
इक तरसती मोह को दूजा देता त्रास | |
काम सभी छोटे बड़े जब लगते है खास |
आकस्मिक की छुटिया करती है उपहास ||
आकस्मिक , अर्जित सभी जब हो गयी उपभोग |
मना रहे है छुटिया बना बना कर रोग | |
महगाई के बोझ से बोनस गया लुकाय |
ऐसे में एस्ग्रीसिया मरहम…
Added by ajay sharma on September 25, 2012 at 10:30pm — 1 Comment
वो लोगों के दिलों में झाँकता है |
वो कुछ ज्यादा ही लंबी हाँकता है ||
चला रहता है, वो कुछ खोजने को |
वो नाहक धुल-मिटटी, फाँकता है ||
न जाने, किस जहाँ में, है वो रहता |
वो अपनी, हद कभी न लाँघता है ||
परखता है, न जाने, किस तरह वो |
कसौटी कौन सी, पे जाँचता है ||
वो साँसों कि तरह, लेता है आहें ||
वो जब चादर, ग़मों कि, तानता है ||
वो कहता है कि, हर बन्दा, खुदा है |
खुदा को, कब खुदा, वो मानता है ||
'शशि' कुछ मशवरा, उस से ही ले लो |…
Added by Shashi Mehra on September 25, 2012 at 8:30pm — 1 Comment
रखा जो आपने रुख पे नकाब हल्का हल्का सा
चमकता चाँद दिखता आफताब हल्का हल्का सा
झुकी पलकें उठी दीदाबराई करने के खातिर
हया छलकी बढाने को शबाब हल्का हल्का सा
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 25, 2012 at 11:34am — 2 Comments
कभी कभी इस दिल में सिसक उठती थी,
की शायद वो दिन भी आयेंगे जब हम भी अपना घर बनायेंगे !
या फिर यूँ ही किराये के मकान में अपना सारा जीवन बिताएंगे !!
माता-पिता की जिम्मेदारियां इतनी थी की ऐसा ख्वाब भी उन्हें नसीब न था..
कभी हम भी यही सोचा करते थे की क्या हम भी कभी उनका हाथ बटा पाएंगे !!
जिम्मेदारियों के साथ-साथ बढ़ती महंगाई का साया था..
चाहते हुए भी कभी घर का सपना बुनना शायद सपने की परछाई थी !
माँ की बीमारियों के साथ, पढाई का खर्च भी उठाना था…
Added by Mukesh Sharma on September 24, 2012 at 11:06pm — 4 Comments
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