२२/२२/२२/२२/
कर्म अगर साधारण होगा
कैसे नर...नारायण होगा.
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सच्चाई की राह चुनी है
पग पग दोषारोपण होगा.
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जिस के भीतर विष का घट है
उस पर छद्म-आवरण होगा.
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कठिनाई भी बहुत ढीठ है
इस से जीवन भर रण होगा.
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बस्ती बाद में सुलगाएँगे
पहले प्रेम पे भाषण होगा.
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मन में दृढ़ विश्वास न हो फिर
कैसे कष्ट निवारण होगा.
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दसों दिशाओं में शासन है
शासक .. शायद रावण होगा.
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उजड़ेगा…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 11, 2017 at 3:52pm — 29 Comments
विरहाकुल था दीन यक्ष उसको कुछ समझ नहीं आया
वारिवाह से गुह्य याचना ही करना उसको भाया
लोक-ख्यात पुष्कर-आवर्तक जलधर बड़े नाम वाले
उनके प्रिय वंशज हो तुम हे वारिवाह ! काले-काले
प्रकृति पुरुष तुम कामरूप तुम इन्द्रसखा तुमको जानूं
विधिवश प्रिय से हुआ दूर हूँ तुम्हे मीत हितकर मानूं
तुम यथार्थ परिजन्य मूर्त्त हो मैं…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 11, 2017 at 11:00am — 4 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on October 11, 2017 at 9:00am — 13 Comments
Added by Mohammed Arif on October 10, 2017 at 11:32pm — 16 Comments
जीवन डगर बहुत पथरीली
संभलो मनुज सुजान,
जागे हिंदुस्तान हमारा जागे हिंदुस्तान।
हिन्दू मुस्लिम भाई भाई प्रेम का धागा टूट गया।
न जाने कितनी माँगो का फिर से ईंगुर रूठ गया।
मानवता जब दानवता की चरण पादुका धोती है,
तभी मालदा वाली घटना तभी पूर्णिया रोती है।
धर्म के पहरेदारों बोलो,
कब लोगे संज्ञान।।
जागे--------
संस्कार की नींव हिल गयी बिका हुस्न बाजरों में।
कर्णधार जो बनकर आये लिप्त हुए व्यभिचारों में।
जाति पांति के भेदभाव…
Added by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on October 10, 2017 at 9:30pm — 8 Comments
शुचित यज्ञ सी
मन प्राणों में घोल सुगन्धि,
आँगन में त्यौहार सरीखे मेरे पापा...
थाम अँगुलियाँ जिनकी
हर उलझी पगडण्डी लगी सरल सी,
ज़मी किरचियाँ व्यवहारों की
पिघल हृदय से बहीं तरल सी,
सबकी ख़ातिर बोए पग-पग
गुलमोहर और छाँटे कीकर,
सौंपी सबको ख़ुशियों की प्याली
ख़ुद पी हर व्यथा गरल सी,
फिर भी…
Added by Dr.Prachi Singh on October 10, 2017 at 9:30pm — 7 Comments
Added by Manan Kumar singh on October 10, 2017 at 7:30pm — 6 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 10, 2017 at 6:38pm — 4 Comments
स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविता "You Start Dying Slowly" के हिन्दी अनुवाद से प्रेरित
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
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सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे तुच्छ हों या हों आप महान
आप चाहे पत्थर हों, पेड़ हों
पशु हों, आदमी हों, या कोई साहिबे जहान
आप चाहे बुलंद हों या जोशे नातवान
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे विनीत हों या कोई दहकता…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 10, 2017 at 3:00pm — 10 Comments
Added by Rahila on October 10, 2017 at 2:29pm — 8 Comments
"कल की फोटो देखी मैंने, बहुत सुंदर दिख रही थीं आप", उसने ऑफिस में अपनी कलीग से कहा|
"अरे कल वो व्रत था ना, उसमें तो सजना बनता था", मुस्कुराते हुए वह बोली|
"अच्छा, तो आप भी यह सब मानती हैं, मुझे लगा कि आप आजाद ख्याल की हैं", उसके लहजे में व्यंग्य था या सहानुभूति, वह समझ नहीं पायी|
"ऐसी बात नहीं है, मैं तो बस परंपरा निभाने के लिए ऐसा कर लेती हूँ| वैसे इसी बहाने थोड़ी शॉपिंग भी हो जाती है, पति से गिफ्ट भी मिल जाता है", थोड़ी सफाई सी देती हुए वह बोली|
"मतलब परंपरा की आड़ में सब कुछ…
Added by विनय कुमार on October 10, 2017 at 11:46am — 6 Comments
Added by दिनेश कुमार on October 10, 2017 at 5:33am — 8 Comments
ग़ज़ल २२१ २१२१ १२२१ २१२
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लूटा जो तूने है मेरा, अरमान ही तो है
उजड़ा नहीं है घर मेरा, वीरान ही तो है
वादा खिलाफ़ी शोखी ए खूबाँ की है अदा
आएगा कल वो क़स्द ये इम्कान ही तो है
सीखेगा दिल के क़ायदे अपने हिसाब से
वो शोख़ संगदिल ज़रा नादान ही तो है
नज़रे करम कि हुब्ब के कुछ वलवले…
Added by राज़ नवादवी on October 9, 2017 at 11:31pm — 14 Comments
"हाय मम्मी, कैसी है, तबियत ठीक है ना तुम्हारी और दवा रोज ले रही हो ना", रोज के यही सवाल होते थे सिम्मी के और उसका रोज का जवाब।
"अब वीडियो काल किया है तो देख ही रही है मुझे, मैं एकदम ठीक हूँ। अच्छा अभी कितना बज रहा है वहाँ पर", उसने अपनी दीवाल घड़ी को देखते हुए पूछा।
"रोज तो बताती हूँ, बस साढ़े तीन घंटे आगे चलती है घड़ी यहाँ, अभी शाम के सिर्फ सात ही बजे हैं"।
"मुझे याद नहीं रहता, हमेशा उलझ जाती हूँ कि हमारी घड़ी आगे है या तुम्हारी। और मेहमान आए कि नहीं अभी, छोटू कैसा है", उसने भी…
Added by विनय कुमार on October 9, 2017 at 5:54pm — 12 Comments
Added by SALIM RAZA REWA on October 9, 2017 at 3:30pm — 13 Comments
Added by नाथ सोनांचली on October 9, 2017 at 1:00pm — 11 Comments
१२१२ ११२२ १२१२ २२
सटीक बात की’, आक्षेप बाँधनू क्या है
ये’ बातचीत में’ खरसान बैर बू क्या है?
नया ज़माना’ नया है तमाम पैराहन
अगर पहन लिया’ वो वस्त्र, फ़ालतू क्या है |
हसीन मानता’ हूँ मैं उसे, नहीं शोले
नजाकतें जहाँ’ है इश्क, तुन्दखू क्या है |
किया करार बहुत आम से चुनावों में
वजीर बनके’ कही रहबरी, कि तू क्या है ?
हो’ वुध्दिमान मिला राज, अब करो कुछ भी
उलट पलट करो’ खुद आप, गुफ्तगू क्या…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on October 9, 2017 at 8:30am — 8 Comments
Added by दिनेश कुमार on October 9, 2017 at 6:18am — 20 Comments
Added by shashi bansal goyal on October 8, 2017 at 10:39pm — 4 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 8, 2017 at 10:37pm — 4 Comments
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