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अजनबी इस भीड़ में ढूँढे किसे मेरी नजर (ग़ज़ल 'राज')

2122  2122  2122  212

 

जिंदगी की जुस्तज़ू में आ गई जाने किधर 

अजनबी इस भीड़ में ढूँढे किसे मेरी नजर 



बे-नियाज़ी की यहाँ दीवार कैसे आ गई 

'हम नफ़स अह्ल-ए-महब्बत कुछ इधर हैं कुछ उधर 



साथ साया भी रहेगा जब तलक है रोशनी 

कौन किसका साथ देता बेवजह यूँ उम्रभर 



लौट कर आती नहीं ये खूब जीले जिंदगी 

इक सितारा कह गया यूँ आसमां से टूटकर 



खींच लाई झोंपड़ी को जब महल की रोटियाँ 

एक दिन आकर अना ने ये कहा जा डूब मर 



कोई…

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Added by rajesh kumari on October 5, 2017 at 10:46am — 14 Comments

वफ़ा के साथ यकीनन है वास्ता मेरा

1212 1122 1212 22

अलग है बात रखा नाम बेवफा मेरा ।।

वफ़ा के साथ यकीनन है वास्ता मेरा ।।



मेरे गुनाह का चर्चा है शह्र में काफी ।

तमाम लोग सुनाते हैं वाक्या मेरा ।।



नज़र नज़र से मिली और होश खो बैठा ।

उसे भी याद है उल्फत का हादसा मेरा ।।



वो आसुओं से भिगोते ही जा रहे दामन ।

पढा जो खत है अभी ,था वही लिखा मेरा ।



फ़िजा के पास रकीबों का हो गया पहरा ।

बढ़ा रही हैं हवाएं भी फ़ासला मेरा ।।



गरीब हूँ मैं शिकायत भी क्या करूँ उनकी… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 5, 2017 at 9:23am — 4 Comments

ग़ज़ल -रिश्तों’ का रंग बदलता ही’ गया तेरे बाद

२१२२  ११२२  ११२२  २२(१)/ ११२(१)  ११२२

 

रिश्तों’ का रंग बदलता ही’ गया तेरे बाद

रौशनी हीन अलग चाँद दिखा तेरे बाद |

जीस्त  में कुछ नया’ बदलाव हुआ तेरे बाद

मैं नहीं जानता’ क्यों दुनिया’ खफा तेरे बाद |

हरिक त्यौहार में’ आनन्द मिला तेरे साथ

जिंदगी से हुए’ सब मोह जुदा तेरे बाद |

रात छोटी हो’ गयी और बहुत लम्बा दिन

अब तो’ जीना हो’ गई एक सज़ा तेरे बाद |

साथ आई थीं’ वो’ आपत्तियाँ’, तुझको ले’…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on October 5, 2017 at 8:30am — 4 Comments

ग़ज़ल - मिलते कहाँ हैं लोग भी होशो हवास में

221 2121 1221 212



ठहरी मिली है ज़िंदगी उनके गिलास में ।

मिलते कहाँ हैं लोग भी होशो हवास में ।।



देकर तमाम टैक्स नदारद है नौकरी ।

अमला लगा रखा है उन्होंने विकास में ।।



सरकार सियासत में निकम्मी कही गई ।

रहते गरीब लोग बहुत भूँख प्यास में ।।



बेकारियों के दौर गुजरा हूँ इस कदर ।

घोड़ा ही ढूढता रहा ताउम्र घास में ।।



यूँ ही तमाम कर लगे हैं जिंदगी पे आज ।

रहना हुआ मुहाल है अपने निवास में ।।



कितने नकाब डाल के मिलने… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 4, 2017 at 5:06pm — 13 Comments

लघुकथा - पर्यावरण-प्रेमी

"बधाई हो मिश्रा जी , हार्दिक बधाई आपको । कल के सारे अखबारों में आपकी न्यूज़ थी । सभी अखबारों ने बड़ी प्रमुखता से आपके "एण्टी-पॉलिथीन कैम्पेन " के बारे में छापा है । बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप पर्यावरण के लिए । वाकई पॉलिथीन बहुत खतरनाक है । इससे कई गायें भी काल के गाल में समा रही है ।"

" जी, गुप्ता जी ! मेरा मिशन है पॉलिथीन मुक्त पर्यावरण । चाहता हूँ सरकार इस पर पूरी तरह से बैन लगा दें । बस ! इसी में लगा हूँ । "

" देश को आप जैसे पर्यावरण बचाव योद्धाओं की ज़रूरत है ।"

" गुप्ता जी… Continue

Added by Mohammed Arif on October 4, 2017 at 4:08pm — 16 Comments

ग़ज़ल

221 2121 1221 212



ठहरी मिली है ज़िंदगी उनके गिलास में ।

मिलते कहाँ हैं लोग भी होशो हवास में ।।



देकर तमाम टैक्स नदारद है नौकरी ।

अमला लगा रखा है उन्होंने विकास में ।।



सरकार सियासत में निकम्मी कही गई ।

रहते गरीब लोग बहुत भूँख प्यास में ।।



बेकारियों के दौर गुजरा हूँ इस कदर ।

घोड़ा ही ढूढता रहा ताउम्र घास में ।।



यूँ ही तमाम कर लगे हैं जिंदगी पे आज ।

रहना हुआ मुहाल है अपने निवास में ।।



कितने नकाब डाल के मिलने… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 4, 2017 at 3:38pm — 3 Comments

मेरे  वतन पे  आते हैं सारे जहाँ से लोग - सलीम रज़ा रीवा

221 2121 1221 212

.......

मेरे  वतन  में  आते  हैं  सारे  जहाँ  से लोग.

रहते हैं इस ज़मीन पे अम्न-ओ-अमाँ से लोग.

..

लगता है कुछ खुलुसो  महब्बत मे है कमी.

क्यूं उठ के जा रहे हैं बता दरमियाँ से लोग.

..

तेरा  ख़ुलूस  तेरी  महब्बत  को  देखकर.

जुड्ते  गये हैं आके  तेरे  कारवाँ  से लोग.

..

कैसा  ये  कह्र   कैसी   तबाही   है    खुदा.

बिछ्डे हुए हैं अपनो से अपने मकाँ से लोग.…

Continue

Added by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 9:30am — 26 Comments

पेइंग-गेस्ट और ब्लैकमेलर (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"चाय बनाने को लेकर कलह करते हैं।"

"अच्छा! तो तू चाय मत बनाया कर! उसे ही बनाने दिया कर!"

"झाड़ू-पौंछा और घर संवारने की कह-कहकर कलह करते हैं।"

"अच्छा! तू सब कुछ वैसा ही पड़े रहने दिया कर, तू कोई नौकरानी थोड़ी न है, अपनी सरकारी नौकरी के अलावा तू कुछ मत किया कर। अपने आप को संवारो और बच्चों को संभालो!"

"कहते हैं कि बीवी हो, यह सब भी करना ही होगा!"

"अरे! ऐसे शौहर के होते बीवी तो नहीं, बेवा बनना बेहतर है!"

"विधवा जैसी ही तो जी रही हूं, अम्मी!" अपने-अपने काम, अपने-अपने… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 3, 2017 at 11:14pm — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की- सीने से चिमटा कर रोये,

२२, २२, २२, २२ 

.

सीने से चिमटा कर रोये,

ख़ुद को गले लगा कर रोये.

.

आईना जिस को दिखलाया,  

उस को रोता पा कर रोये.

.

इक बस्ते की चोर जेब में,

ख़त तेरा दफ़ना कर रोये.

.

इक मुद्दत से ज़ह’न है ख़ाली,

हर मुश्किल सुलझा कर रोये.



तेरी दुनिया, अजब खिलौना,

खो कर रोये, पा कर रोये. 

.

सीखे कब आदाब-ए-इबादत,

बस,,,, दामन फैला कर रोये.

.

हम असीर हैं अपनी अना के,

लेकिन मौका पा कर रोये.

.

सूरज…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on October 3, 2017 at 9:00pm — 28 Comments

गजल(रेत कण से...)

2122 2122 2122 2

रेत- कण से इक घरौंदा मैं बनाता हूँ

अनछुए सब ख्वाब फिर उसमें सजाता हूँ।1



कोशिशें कितनी हुई हैं चाँद पाने की

हर दफा बिखरा पसीने में नहाता हूँ।2



हर लहर आभार कहकर लौट जाती है

प्यास का मारा हुआ मैं तिलमिलाता हूँ।3



बादलों की बदगुमानी का रहा कायल

बूँद पड़ जाये जरा नजरें गड़ाता हूँ।4



कह गयी बदली हवा अब रुत बदलनी है

मैं लुटा गठरी,हमेशा ही लजाता हूँ।5



सच कहा जाता नहीं, सब लोग कहते हैं,

आँच अंतर की… Continue

Added by Manan Kumar singh on October 3, 2017 at 8:56am — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५४

ग़ज़ल-  १२२२ १२२२ १२२२ १२२२२

मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन

 

मुनासिब है ज़रूरत सब ख़ुदा से ही रजा करना

कि है कुफ़्रे अक़ीदा हर किसी से भी दुआ करना

 

ग़मों के कोह के एवज़ मुहब्बत ही अदा करना

नहीं है आपके वश में किसी से यूँ वफ़ा करना

 

नई क्या बात है इसमें, शिकायत क्यों करे कोई

शग़ल है ख़ूबरूओं का गिला करना जफ़ा करना

 

अगर खुशियाँ नहीं ठहरीं तो ग़म भी जाएँगे इकदिन

ज़रा सी बात पे क्योंकर ख़ुदी को…

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Added by राज़ नवादवी on October 3, 2017 at 12:32am — 17 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५3

ग़ज़ल-  १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

 

किसी ने क्यों कतर डाले हैं परवाज़ों के पर मेरे

फ़रिश्ते भी हैं उक़बा में अज़ल से मुंतज़र मेरे

 

हुजूमे ग़ैर से कोई तवक़्क़ो क्या करूँगा मैं

मेरी क़ीमत न कुछ  समझें ज़माने में अगर मेरे

 

फ़क़ीरी में गुज़ारी है ये हस्ती भी तुम्हारी है  

तेरी ज़र्रा नवाज़ी है कभी आये जो घर मेरे

 

कहूँ क्या हाय शर्मों में छुपी उसकी मुहब्बत को

वो घबरा के जो देखे है इधर मेरे उधर मेरे

 

कहाँ तुझको…

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Added by राज़ नवादवी on October 3, 2017 at 12:21am — 6 Comments

लघुकथा - ज़िद - -

लघुकथा - ज़िद - -

गाँव के सरपंच बंशीलाल के बेटे शुभम  की शादी शहर में रहने वाले परिवार की लड़की सुजाता से हुई।

सुजाता ने गाँव में पहली बार में कुछ  परेशानियों का सामना किया तो गौने पर विदा कराने गये शुभम और उसके साथियों को बैरंग लौटा दिया। कहला दिया कि जब तक घर में शौचालय की व्यवस्था नहीं होगी, वह गांव नहीं आयेगी। शुभम भी गुस्से में धमकी देकर चला आया कि अब वह कभी भी उसे लेने नहीं आयेगा।

लेकिन धीरे धीरे सरपंच जी को अपनी भूल का अहसास हुआ और सामाजिक दबाव के देखते हुए शौचालय…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 2, 2017 at 8:02pm — 10 Comments

उनकी नज़र से पीना कोई मयकशी नहीं - सलीम रज़ा रीवा

221 2121 1221 212

........

नश्शा नहीं सुरूर नहीं बे खुदी नहीं.

उनकी नज़र से पीना कोई मयकशी नहीं.

.

गुलशन में फूल तो है मगर ताज़गी नहीं.…

Continue

Added by SALIM RAZA REWA on October 2, 2017 at 7:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल

1222 1222 122

तिजारत हुक्मरानी हो गई है।
कहीं गुम शादमानी हो गई है।।

न अब गांधी न शास्त्री से हैं रहबर।
शहादत उनकी फ़ानी हो गई है।।

तेरा तो हुश्न ही दुश्मन है नारी।
कठिन इज्जत बचानी हो गई है।।

लगी जब बोलने बिटिया हमारी।
वो घर में सबकी नानी हो गई है।।

हमीं से चार लेकर एक दे कर।
'नमन' सरकार दानी हो गई है।।


मौलिक व अप्रकाशित

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 2, 2017 at 4:00pm — 8 Comments

पॉकिटमेन (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"जी नहीं, आर्मी की यूनीफोर्म जैसी नहीं, मेरी सुविधा के अनुसार ही कुछ जेबों वाली शर्ट और पैंट दिखाइये!" अपने कंधे उचकाते हुए स्मार्टमेन ने दुकानदार से कहा। तुरंत ही उसका स्मार्टसन डिमांड स्पष्ट करते हुए बोल पड़ा - "अंकल जी, अच्छे-खासे ब्रांड की ऐसी ड्रेस हो, जिसमें हमारे मोबाइल या टैबलेट वगैरह अच्छी तरह से समा जायें!"

दुकानदार आंखें फाड़कर उन दोनों और उनके पहनावे को घूरने लगा। फिर चार-पांच महंगी शर्ट्स दिखाते हुए बोला -"वैसे कितने मोबाइलों के लिए किस-किस पोजीशन पर जेबें चाहिए… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 2, 2017 at 2:42pm — 6 Comments

मैं हुआ बूढ़ा मगर अनुभव हुआ कुछ भी नहीं (तरही ग़ज़ल)

अरकान- फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन



हर तरफ शिक़वा गिला है औऱ क्या कुछ भी नहीं

रात दिन की दौड़ में आख़िर मिला कुछ भी नहीं ||



इक नियम बदलाव का यारों सनातन सत्य है,

कल मिला है आज से पर राब्ता कुछ भी नहीं



ज़ीस्त का सच देख गोया बन्द मुट्ठी खुल गयी,

साथ अपने अंत में वह ले गया कुछ भी नहीं



बचपना लिपटा रहा ता---उम्र मुझसे इस क़दर,

मैं हुआ बूढ़ा मगर अनुभव हुआ कुछ भी नहीं



दूर होगी मुफ़लिसी यह सोचना तू छोड़ दे,

ये सियासी ख़्वाब… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 2, 2017 at 5:04am — 21 Comments

एक ख्वाहिश

एक ख्वाहिश पूरी कर दे तू इबादत के बगैर

वो आ कर गले लगा ले मेरी इजाजत के बगैर

ऐ खुदा हुस्न और दौलत तो तेरी कुदरत है

मैं मानूँ अगर वो अपना ले मुझे इनके बगैर

बोल कर इज़हार क्यों करूँ अपने इश्क़ का

मैं मानूँ अगर वो जान जाये इशारे किए बगैर

यूँ तो आदत नही किसी को देखूं मुड़ कर

पर दिल करता है देखूं तुझे पलकें गिरे बगैर

शौक लगा उसी दिन मुहब्बत का मुझे यारों

दिल खो गया था जिस दिन खोये बगैर

कोई उम्मीद,दिलासा दे दे मुलाकात…

Continue

Added by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on October 1, 2017 at 10:26pm — 4 Comments

शरद्पूर्णिमा (कविता)

ज्यों खटक जाता है

किसी चित्रकार को

स्वरचित सफल चित्र पर

अचानक रंगो का बिखर 

जाना !

.

ज्यों खटक जाता है

ज्येष्ठी धूप में तपे प्यासे मानव को

सम्मुख आ सजल पात्र का

अकस्मात ही लुढ़क जाना !.

ज्यों खटक जाता है

प्रणयी युगल को

मधुर प्रणय मिलन 

के मध्य

किसी अन्य का

अप्रत्याशित आ जाना !

.

त्यों ही खटक रहा है मुझको

शरद्पूर्णिमा के चंद्र पर

निगोड़े मेघो का छा जाना !! …



Continue

Added by नन्दकिशोर दुबे on October 1, 2017 at 9:00pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इस ज़माने से कई राज़ छुपा रक्खे हैं (ग़ज़ल 'राज')

बहरे रमल मुसम्मिन मख़बून महजूफ़ मक़तूअ--    

2122   1122  1122  22 

एक चेह्रे पे कई चेह्रे लगा रक्खे हैं 

इस ज़माने से कई राज़ छुपा रक्खे हैं 



अश्क आँखों में लिये और हँसी चेह्रे पर 

दर्द हमने कई सीने में दबा रक्खे हैं 



टूट जाएँ न कहीँ अश्क जमीं पर गिरकर 

अपनी पलकों पे करीने से सजा रक्खे हैं 



इस ज़माने को कभी ख्वाब मेरे रास आएँ 

सोचकर…

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Added by rajesh kumari on October 1, 2017 at 1:31pm — 15 Comments

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