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लघुकथाः कौआ (रवि प्रभाकर)

कौआ आज फिर प्यासा था। लेकिन अब उसे हर हर रोज़ कंकड़ पत्थर इकट्ठे करते हुए बहुत कष्ट होने लगा था. वह इस रोज़ रोज़ के संघर्ष से मुक्ति चाहता था। फिर एक दिन अचानक ही उसने भगवे वस्त्र धारण कर लिए, माथे पर लंबा सा तिलक लगाया एक बड़ी सी स्टेज सजा कर ‘कांव-कांव’ करने लगा। देखते ही देखते अनगिनत लोग उसके अनुयायी बन उसकी जय जयकार करने लगे । अब वह सयाना कौआ बड़े आराम से दिन भर ‘कांव-कांव’ करता, क्योंकि उसकी ‘भूख’ व ‘प्यास’ का जीवन भर के लिए जुगाड़ हो चुका था।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Ravi Prabhakar on December 17, 2013 at 4:48pm — 12 Comments

अनंग शॆखर छन्द

अनंग शॆखर छन्द =

===============

कभी डरॆ नहीं कभी मरॆ नहीं सपूत वॊ, प्रचंड  वृष्टि बर्फ और ताप मॆं खड़ॆ रहॆ ॥

हिमाद्रि-तुंग बैठ शीत संग तंग हाल मॆं, सपूत एकता अखण्डता लियॆ अड़ॆ रहॆ ॥

प्रहार रॊज झॆलतॆ अशांति कॆ कुचाल कॆ, सदा निशंक काल-भाल वक्ष पै चढ़ॆ रहॆ ॥

अखंड भारती सुहासिनीं सुभाषिणीं कहॆ, सभी अघॊष युद्ध वीर शान सॆ लड़ॆ रहॆ ॥

 

 

कवि-"राज बुन्दॆली"

17/12/2013

पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित रचना,,,,…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 17, 2013 at 4:30pm — 16 Comments

तुमसे

तुम ही कहो अब

क्या मैं सुनाऊँ

सरगम के सुर

ताल हैं तुम से

सारी घटाएँ

बहकी हवाएँ

फागुन की हर

डाल है तुमसे

तुम ही कहो .......

तुम बिन अँखियन

सरसों फूलें

रीते सावन

साल हैं तुमसे

तेरी छुअन से

फूली चमेली

शारद की हर

चाल है तुमसे

तुम ही कहो .......

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by राजेश 'मृदु' on December 17, 2013 at 4:11pm — 14 Comments

रिश्तों की ताप

रिश्तों की ताप

बर्फ सी ठंडी हथेली में, सूरज का ताप चाहिए

फिर बँध जाए मुट्ठी, ऐसे जज्बात चाहिए ।

बाँध सर पे कफन, कुछ करने की चाह चाहिए

मर कर भी मिट न सके, ऐसे बेपरवाह चाहिए।

मन में उमड़ते भावों को,शब्दों का विस्तार चाहिए

शब्द भाव बन छलक उठे,ऐसे शब्दों का सार चाहिए।

पथरा गई संवेदनाएं जहाँ , रिश्तों की ताप चाहिए

चीख कर दर्द बोल उठे,अहसासों की ऐसी थाप चाहिए।

चीर कर छाती चट्टानों…

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Added by Maheshwari Kaneri on December 17, 2013 at 12:30pm — 15 Comments

नवगीत

बर्फ देखो 
पिघलने लगी 
 
साँस पानी की 
जैसे थमी थी 
पत्थरों की  तरह 
जो जमी थी   … 
 
स्थितियाँ अब 
बदलने लगी   … बर्फ देखो। 
 
वो जो उम्मीद-
-जैसे खिला है 
साथ सूरज का 
हमको मिला है 
 
दूरियां पास 
चलने लगी     …बर्फ देखो। 
 
मौसम ने 
बदली है करवट 
पायी…
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Added by AVINASH S BAGDE on December 17, 2013 at 10:30am — 26 Comments

कटाक्ष -हे ईश्वर ...

हे ईश्वर

.

जूते का फीता बांधकर जैसे ही उठा, सामने किसी अपरचित को खड़ा देख मै चौक गया. लगा की मै सालों से उसे जानता हूँ पर पहचान नहीं पा रहा हूँ. बड़े संकोच से मैंने पूछा-" आप--", मै अपना प्रश्न पूरा करता इस-से पहले ही उन्होंने बड़ी गंभीर आवाज़ में कहा -" मै ईश्वर हूँ".

उन की गंभीर वाणी में कुछ ऐसा जादू था की मुझे तुरंत विश्वास हो गया की मै इस पूरी कायनात के मालिक से रूबरू हूँ. मैंने खुद को संभाला और अपे स्वभाव के अनुरूप उन पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on December 17, 2013 at 8:30am — 9 Comments

क्यों चले आए शहर (नवगीत) - कल्पना रामानी

क्यों चले आए शहर, बोलो 

श्रमिक क्यों गाँव छोड़ा?

 

पालने की नेह डोरी,  

को भुलाकर आ गए।

रेशमी ऋतुओं की लोरी,

को रुलाकर आ गए।

 

छान-छप्पर छोड़ आए,

गेह का दिल तोड़ आए,

सोच लो क्या पा लिया है,

और  क्या सामान जोड़ा?

 

छोडकर पगडंडियाँ

पाषाण पथ अपना लिया।

गंध माटी भूलकर,

साँसों भरी दूषित हवा।

 

प्रीत सपनों से लगाकर,

पीठ अपनों को दिखाकर,

नूर जिन नयनों के थे,…

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Added by कल्पना रामानी on December 16, 2013 at 11:00pm — 38 Comments

''अक्सर''

समृद्ध अतीत के माथे पर
अक्सर खिंच जाती हैं लकीरें

चिंतित भविष्य की

फैसलों की फर्श पर

क्यूं अक्सर

बिखर जाते हैं

बदलाव के मोती

खुशियों के आंगन में

टंगे मुस्कुराते गुब्बारों

पर अक्सर कोई चलाता है

गमों की गोलियां

बेवक्त पर काम आने वाला वक्त

अक्सर बदल जाता है आदमी की तरह

जब मौज मौसम की लेने निकलें तो

थम जाती हैं सुहानी हवाएं अक्सर

समझ आती है जब तलक…
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Added by atul kushwah on December 16, 2013 at 10:30pm — 9 Comments

ये कैसी आधुनिकता है ….

ये कैसी आधुनिकता है …. …..

.

उफ्फ !

ये कैसी आधुनिकता है ….

जिसमें हर पल …..

संस्कारों का दम घुट रहा है //

हर तरफ एक क्रंदन है ….

सभ्यता आज ….

कितनी असभ्य हो गयी है //

आज हर गली हर चौराहे पर ….

शालीनता अपनी सभी …..

मर्यादाओं की सीमाएं तोड़कर हर ……

शिष्टाचार की धज्जियां उड़ा रही है //

बदन का सार्वजनिक प्रदर्शन …..

आधुनिकता का अंग बन गया…

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Added by Sushil Sarna on December 16, 2013 at 7:30pm — 17 Comments

आहत माँ का दर्द

मै जीना चाहती हूँ माँ !!



कैसे जियेगी तू मेरी बच्ची ?

समय के साथ ये सब

श्रद्धांजलि और प्रदर्शनों

के आडम्बर शांत हो जायेंगे

सब कुछ भूल, लग जायेंगे

सभी अपने अपने काम में

पर तेरा जीवन नही बदलेगा !!

   

जो बच गई

जीवन तेरा और भी नर्क हो जाएगा

तू जब भी निकलेगी घर से

तेरी तरफ उठेंगी सौकड़ों आँखे  

तू भूलना भी चाहेगी तो

दिखा – दिखा उंगुली    

लोग तुझे भूलने नही देंगे

जानना चाहेंगे सभी ये कि  

कैसे हुआ ये…

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Added by Meena Pathak on December 16, 2013 at 7:00pm — 36 Comments

श्रद्धा

रिटायरमेंट के छह महीने बाद कैंसर से पीड़ित बाबूजी के देहांत होने पर परिवार के सभी लोग दुखी थे. किंतु सबसे ज़्यादा दुखी उनका बेटा माखन था, रो रोकर उसका बुरा हाल था इसलिए नही कि उसका बाप मर गया था बल्कि वो यह सोच रहा था कि जब मरना ही था तो नौकरी मे रहते क्यूँ न मरे उसे उनकी जगह नौकरी मिल जाती; उसकी जिंदगी संवर जाती वर्ना लम्बा जीते ताकि उनकी पेंशन से उसका परिवार पल बढ़ जाता.तभी अचानक पड़ोसी ने पूछा दाह संस्कार किस रीति रिवाज़ से करेंगे. माखन अपने मरे बाप का कम से कम पैसे में अंतिम संस्कार करना…

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Added by NEERAJ KHARE on December 16, 2013 at 7:00pm — 11 Comments

पञ्च चामर छन्द=

पञ्च चामर छन्द = की विधा मॆं मॆरा

प्रथम प्रयास आप सबकॆ श्री चरणॊं मॆं

==========================

 रुदान्त कंठ मातृ-भूमि वॆदना पुकारती,

प्रकॊप-दग्ध दॆश-भक्ति भावना हुँकारती,

वही सपूत धन्य भारती पुकारती जिसॆ,

अखंड सत्य-धर्म साधना सँवारती जिसॆ,



करॊ पुनीत कर्म ज़िन्दगी सँवारतॆ चलॊ ॥

सुहासिनीं सुभाषिणीं सदा पुकारतॆ चलॊ ॥१॥



खड़ा रहा अड़ा रहा डरा नहीं कु-काल सॆ,

डटा रहा नहीं हटा हिमाद्रि तुंग भाल…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on December 16, 2013 at 4:30pm — 14 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ

...

लिपट के आबशारों से तराने खो गए होंगे।

उतर के देवदारों से उजाले सो गए होंगे॥

...

जिन्हें मालूम है दुनिया मुहब्बत की इमारत है,

ग़ुज़र के मैकदे से भी वही घर को गए होंगे।

...

न परियों का फ़साना था न किस्से देवताओं के,

कहानी कौन सी सुन के सलोने सो गए होंगे।

...

उन्हीं की नींद उजड़ी है,उन्हीं के ख्वाब बिखरे हैं,

किसी की आँख के तारे चुराने जो गए होंगे।

...

ज़रा सी चाँदनी छू लें,सितारों की दमक देखें,…

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Added by Ravi Prakash on December 16, 2013 at 4:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल - इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या - अभिनव अरुण्

ग़ज़ल – २१२२ १२१२ २२

इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या ,

गुलसितां क्या है कहकशां भी क्या |

पीर पिछले जनम के आशिक़ थे ,

यूँ ख़ुदा होता मेहरबां भी क्या |

औघड़ी फांक ले मसानों की ,

देख फिर ज़ीस्त का गुमां भी क्या |

बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,

खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |

ख़ुशबू लोबान की हवा में है ,

ख़त्म हो जायेंगा धुआँ भी क्या |

माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,

ये जमीं क्या…

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Added by Abhinav Arun on December 16, 2013 at 3:30pm — 22 Comments

हाथी हाथ से नहीं ठेला जाता (लघुकथा)

''मिश्रा जी, बेटी का बाप दुनिया का सबसे लाचार इंसान होता है. आपको कोई कमी नहीं, थोड़ी कृपा करें, मेरा उद्धार कर दें. बेटी सबकी होती है.' कहते-कहते दिवाकर जी रूआंसे हो गए । मिश्रा जी का दिल पसीज गया ।

अगले वर्ष घटक द्वार पर आए तो दिवाकर जी कह रहे थे

''अजी लड़के में क्‍या गुण नहीं है, सरकारी नौकर है. ठीक है हमें कुछ नहीं चाहिए, पर स्‍टेटस भी तो मेनटेन करना है. हाथी हाथ से थोड़े ना ठेला जाता है. चलिए 18 लाख में आपके लिए कनसिडर कर देते हैं और बरात का खर्चा-पानी दे दीजिएगा,…

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Added by राजेश 'मृदु' on December 16, 2013 at 1:30pm — 24 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ग़ज़ल - आसमानों को संविधान भी क्या // --सौरभ

मिसरों का वज़न - २१२२  १२१२  ११२/२२

 

रौशनी का भला बखान भी क्या !

दीप का लीजिये बयान भी, क्या.. ?!

 

वो बड़े लोग हैं, ज़रा तो समझ--  …

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Added by Saurabh Pandey on December 16, 2013 at 11:00am — 54 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
फिर मिलेगा हमें वो मान भी क्या(ग़ज़ल)

2122 -1212- 112

कट ही जाये अगर ज़बान भी क्या

फिर मिलेगा हमें वो मान भी क्या

 

आदमीयत के मोल जो मिली हो

दोस्तो ऐसी कोई शान भी क्या

 

मेरे पैरों में आज पंख लगे

अब ज़मीं क्या ये आसमान भी क्या

 

छोड दें गर ज़मीन अपने लिये

ऐसे सपनों की फिर उड़ान भी क्या

 

और के काम आ सके न कभी

ऐसा इंसान का है ज्ञान भी क्या

 

भाग के गर मुसीबतों से कहीं

बच ही जाये तो ऐसी जान भी…

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Added by शिज्जु "शकूर" on December 16, 2013 at 10:00am — 40 Comments

डेवलपमेंट्स

“सर! निगम के सी. ई. ओ. के घोटालों की पूरी रिपोर्ट मैंने फायनल कर दी है। प्रिंट में जाये उससे  पहले आप एक नज़र डाल लीजिए...” एडिटर इन चीफ ने रिपोर्ट पर सरसरी निगाह डाली और लापरवाही से उसे टेबल के किनारे रखे ट्रे पर डालते हुये कहा – “इसे छोड़ो, इस केस में कुछ नए डेवलपमेंट्स पता चले हैं... उन सब को एड करके बाद में देखेंगे... बल्कि तुम ऐसा करो कि नए आर॰ टी॰ ओ॰ से संबन्धित रिपोर्ट को जल्दी से फायनल कर दो, उसे कल के एडिशन में देना है...”



वह अपने चेम्बर में बैठ कर  आर॰ टी॰ ओ॰ से संबन्धित…

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Added by Sanjay Mishra 'Habib' on December 16, 2013 at 10:00am — 8 Comments

प्राण-समस्या .... (विजय निकोर)

प्राण-समस्या

 

सहारा युगानयुग से

फूलों को बेल का, पाँखुरी को फूल का

पत्तों को टहनी का

अब मुझको .... तुम्हारा

बहुत था

बाहों को साँसो के लिए ....

 

कुछ भी तो नहीं माँगा था

तुमने मुझसे

न मैंने तुमसे .... इस पर भी

स्नेह का अनन्त विस्तार

अभी भी बिछा है बिना तुम्हारे

बारिश की बूँदों में बारिश के बाद

आँगन की सोंधी मिट्टी में

कि जैसे .... तुम आ गए

 

हर खुला-अधखुला…

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Added by vijay nikore on December 16, 2013 at 7:00am — 20 Comments

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