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ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ

...

कभी चाँदनी छूने आया करेगी।

सितारों की ज़ीनत बुलाया करेगी॥

...

बदन की मुलायम तहों में समेटे,

नदी पत्थरों को सुलाया करेगी।

...

भटकता फिरेगा कहीं पे अँधेरा,

कहीं रोशनी गीत गाया करेगी।

...

परिंदों की परवाज़ क्या खूब होगी,

हवा जब उन्हें आज़माया करेगी।

...

नई चूड़ियों से खनकती कलाई,

सवेरे-सवेरे जगाया करेगी।

...

ज़रा सी किसी बात पे रो पड़ूँगा,

कभी ज़िंदगानी हँसाया करेगी।

...

कहूँगा…

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Added by Ravi Prakash on December 23, 2013 at 1:00pm — 26 Comments

वही मै दे पाया ! … नवगीत !

वही मै दे पाया !   … नवगीत !
----------------------------------
जो था मेरे पास 
वही मै दे पाया…
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Added by AVINASH S BAGDE on December 23, 2013 at 11:31am — 30 Comments

ये दुनिया धर्मशाला है (ग़ज़ल )

हैं  कपड़े  साफ  सुथरे  से , पड़ा  काँधे  दुशाला  है

शहर  में भेडि़यों  ने आ, बदल  अब  रूप  डाला है



कहानी  रोज  पापों की, उघड़  कर  सामने  आती

किसी ने  झूठ  बोला था, ये  दुनिया  धर्मशाला है



समझ के आम जैसे ही, आमजन चूसे जाते नित

बनी ये सियासत अब, महज भ्रष्टों  की  खाला है



मथोगे गर मिलेगा नित, यहाँ अमृत भी पीने को

है सिन्धु सम जीवन, कहो मत विष का प्याला है

किया सुबह  शाम झगड़ा , रखी वाणी  में दुत्कारें

'मुसाफिर'…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2013 at 7:30am — 13 Comments

शुभारंभ है नए साल का//नवगीत//कल्पना रामानी

फिर से नई कोपलें फूटीं,

खिला  गाँव का बूढ़ा  बरगद।

शुभारंभ है नए साल का,

सोच, सोच है मन में गदगद।

 

आज सामने, घर की मलिका

को उसने मुस्काते देखा।

बंद खिड़कियाँ खुलीं अचानक,

चुग्गा पाकर पाखी चहका।

 

खिसियाकर चुपचाप हो गया,

कोहरा जाने कहाँ नदारद।

  

खबर सुनी है,फिर अपनों के

उस  देहरी पर कदम पड़ेंगे।

नन्हीं सी मुस्कानों के भी,

कोने कोने बोल घुलेंगे।

 

स्वागत करने डटे…

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Added by कल्पना रामानी on December 22, 2013 at 10:00am — 31 Comments

कुछ ऐसे पुकारा तुमने (अन्नपूर्णा बाजपेई)

कुछ इस तरह पुकारा तुमने

कदम भी मेरे लगे बहकने 

कुछ इस .........

दामिनी दमक उठी नैनो मे

सरगम छनक उठी साँसों मे

हृद वीणा सी  झंकृत कर दी

जागे से लगने लगे सपने 

कुछ .......................

अन्तर्भावों की सुरवलियों मे

उद्गारों की हारावलियों मे

शब्द सुशोभित सज्जित कर दी

मन-कानन सब लगे महकने 

कुछ .....................

अप्रकाशित एवं…

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Added by annapurna bajpai on December 21, 2013 at 9:00pm — 22 Comments

मेरे ख्वाब ....

जाओ तुम और दूर चले जाओ... 

जहां चाहो वहाँ चले जाओ 

मगर जी लो न मन भर 

एक बार मेरे साथ ....

मेरे ख्वाब...  मेरे ख्वाब ... मेरे ख्वाब ....

धीरे से जाना ... 

आहट भी न करना 

नींद न टूटने पाये मेरी 

काँच से नाजुक हैं ये ... 

मेरे ख्वाब .... मेरे ख्वाब ... मेरे ख्वाब .... 

कुछ तुम भी ले जाना 

बहुत हसीन हैं ये 

दुःख में हँसा देंगे ये 

मुझसे भी प्यारे हैं ये ...

मेरे ख्वाब .... मेरे ख्वाब .... मेरे…

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Added by Amod Kumar Srivastava on December 21, 2013 at 8:25pm — 8 Comments

दो अक्षरो का *शक'

दो हमसफर

एक छत

रहे अजनबी की तरह

लब खुले तो टकरार

ना साँसे टकराती

ना बिन्‍दीयाँ भाती

ना विदाई

ना स्‍वागत

नजर चुराते

बीती राते

कभी

तन मन साथ

हँसी उमंग चाहत प्‍यार

लगी नजर

बने नदी के

दो किनारे

बीच में

शक

केवल शक

बाँट दिया प्‍यार

एक ना सुनते

एक दूजे की बाते

स्‍वाभिमान

विद्रोह

गुस्‍से की

ज्‍वाला जला रही

प्‍यार…

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Added by Akhand Gahmari on December 21, 2013 at 7:55pm — 12 Comments

नवगीत -- सियासती दावत

नूतन वर्ष में
नये -पुराने ,सपने
सियासती दावत में
फिर परसे जायेंगे  .
 
वह मन को भरमायेंगे
अतीत भुलायेंगे

नये कपडे ,पुराने
तन को पहनाएंगे
 
शक्कर में पगे हुये
शब्द शब्द बनावटी
ललना से फिसलकर 

प्रजा लुभायेंगे 
 
विजय कुरसी मिलेगी
अधर ,मुस्कान खिलेगी 
सिर पर नेताओं के 
श्वेत कलगी…
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Added by shashi purwar on December 21, 2013 at 2:00pm — 15 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
नवगीत - नये साल की धूप // --सौरभ



आँखों के गमलों में

गेंदे आने को हैं

नये साल की धूप तनिक

तुम लेते आना.. .



ये आये तब

प्रीत पलों में जब करवट है

धुआँ भरा है अहसासों में

गुम आहट है

फिर भी देखो

एक झिझकती कोशिश तो की !

भले अधिक मत खुलना

तुम, पर

कुछ सुन जाना.. .

नये साल की धूप तनिक

तुम लेते आना.. .



संवादों में--

यहाँ-वहाँ की, मौसम, नारे..

निभते हैं

टेबुल-मैनर में रिश्ते…
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Added by Saurabh Pandey on December 20, 2013 at 11:30pm — 58 Comments

ग़ज़ल- सारथी || देख लो जी ||

किसी से प्यार करके देख लो जी

हसीं इकरार करके देख लो जी /१

दवा है या मरज़ क्या है मुहब्बत

निगाहें चार करके देख लो जी /२

सनम हैं सर्दियों की धूप जैसी

जरा दीदार करके देख लो जी /३

हमेशा जी-हुजूरी ठीक है क्या ?

कभी इनकार करके देख लो जी /४

बिकेगी धूप चर्चा है गली में

यही ब्योपार करके देख लो जी /५

बहुत है फायदा आवारिगी में

धुआं घर-बार करके देख लो जी /६

यक़ीनन बेशरम हूँ मैं हवा हूँ

खड़ी दीवार करके देख लो जी…

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Added by Saarthi Baidyanath on December 20, 2013 at 10:00pm — 18 Comments

स्कूटर पर जाती महिला

स्कूटर पर जाती महिला

का सड़क से गुज़रना  हो

या  गुज़रना हो

काँटों भरी संकड़ी गली से ,

दोनों ही बातें

एक जैसी ही तो है।

लालबत्ती पर रुके स्कूटर पर

बैठी महिला के

स्कूटर के ब्रांड को नहीं देखता

कोई भी ...

देखा जाता है तो

महिला का फिगर

ऊपर से नीचे तक

और बरसा  दिए जाते हैं फिर

अश्लील नज़रों के जहरीले कांटे ..

काँटों की  गली से गुजरना

इतना मुश्किल नहीं है

जितना…

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Added by upasna siag on December 20, 2013 at 9:00pm — 12 Comments

प्रेम तृणों से .

प्रेम तृणों से  …….

पलक पंखुड़ी में प्रणय अंजन से 

सुरभित संसृति का श्रृंगार करो 

भ्रमर गुंजन के मधुर काल में 

कुंतल पुष्प श्रृंगार करो 

तृप्त करो तुम नयन तृषा को 

मिलन क्षणों को स्वीकार करो 

अपने उर में अपने प्रिय की 

अनुपम सुधि से श्रृंगार करो 

विस्मृत कर…

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Added by Sushil Sarna on December 20, 2013 at 8:00pm — 22 Comments

ग़ज़ल -निलेश 'नूर'-जब कि हर इक फ़ैसला मंज़ूर है

२१२२/२१२२/२१२ 

.

जब कि हर इक फ़ैसला मंज़ूर है,

फिर भी वो कहता हमें मगरूर है.

.

दोष है फ़ितरत का, ज़ख्मों का नहीं,

ज़ख्म जो प्यारा है वो नासूर है.   

.

ख़ासियत कुछ भी नहीं उसमे, फ़क़त,

वो मेरा क़ातिल है सो मशहूर है.

.

नब्ज़ मेरी थम गयी तो क्या हुआ,

जान मुझ में आज भी भरपूर है.

.

जिस्म है बाक़ी हमारे दरमियाँ,

पास है, लेकिन अभी हम दूर है.

.

बात अब उनसे मुहब्बत की न कर,

लोग समझेंगे, नशे में चूर है.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2013 at 5:00pm — 27 Comments

माँ – बाप (क्षणिकाएँ )

(1)

हमारे सपने लेते रहे आकार

बड़े और बड़े

महानगर की इमारतों की तरह

भव्य और विशाल

हमारे सपने

बढ़ते रहे

आगे और…

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Added by नादिर ख़ान on December 20, 2013 at 12:30pm — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
"अपने ख़्वाबों को खिलाऊँ क्या, पिलाऊँ क्या बताओ " - गज़ल - ( गिरिराज भंडारी )

2122    2122    2122     2122

 

गुम्बदों से क्यों कबूतर आज कल डरने लगे हैं

दूरियाँ रख कर चलेंगे फैसले करते लगे हैं

 

पतझड़ों की साजिशों से, अब बहारों में भी देखो

हर शज़र मुरझा गया, पत्ते सभी झड़ने लगे हैं

 

अपने ख़्वाबों को…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 20, 2013 at 7:30am — 41 Comments

सब हमामों के चरित्तर (ग़ज़ल )

2112     2112   2112    112

**********************************************

दाग  चंदा   को  लगे  हैं, सूरज  का  क्या गया

ढूँढ  लेगा रात  को  वो, फिर से  कोई घर नया



बादलों  को  थी  मनाही ,  कैसे   करते  बारिसें

उसके  सूखे  दामनों  पर, आँसुओं  ने  की दया



कौन बोले, किसको बोले, इस सियासत में बुरा

सब  हमामों  के चरित्तर, शेष  किसमें  है हया



बाज  के  थे  सहायक  चील ,  कौवे  औ’ उलूक

फिर अकेली  बाज से, कब   तलक लड़ती बया



सोच…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2013 at 7:00am — 8 Comments

मुझसे मोहब्बत ये ज़माने से छुपाते हो

ख्वाबों में मेरे आकर खुद ही तो बताते हो

है मुझसे मोहब्बत ये ज़माने से छुपाते हो

बढ़ जाती है क्यूँ धड़कन कभी दिल से ये पूछा है

रुक जाते हो क्यूँ मिलकर कभी दिल से ये सोचा है

फिर भी मेरा ये इश्क क्यूँ किताबी बताते हो

ये दिल का मसअला है , दिल से ही ये सुलझेगा

ज़ज़्बात की बातों से , ये और भी उलझेगा

उलफत भी है मुझसे और मुझको ही सताते हो

महफ़िल में हज़ारों की , तन्हाई में रहते हो

कहते हो नही फिर भी क्या-क्या…

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Added by ajay sharma on December 19, 2013 at 11:24pm — 9 Comments

दो कवितायेँ

(1)

आयो मेरे पास आयो

.

देश मेरा उजड़ रहा है

आओ मेरे पास आओ

कितने ही दुख भोग रहा है

आओ मेरे पास आओ

एक तरफ चाकू है चलता

दूसरी तरफ नरसंहार है

आतंकवाद है उससे ऊपर

सबसे ऊपर बलात्कार है

कितनों के दिल तोड़े इसने

घर कितनो के उजाड़े हैं

आँख के तारे छीने इसने

माँग के सिंदूर उजाड़े हैं

पाप की नगरी से डर लगता

आकर मुझको गले लगाओ

तुमसे बिछड़ न जाऊँ कहीं मैं

 आयो मेरे पास…

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Added by NEERAJ KHARE on December 19, 2013 at 9:00pm — 7 Comments

शान ज्यों माणिक मुक्ता

कुण्डलियां-1


कुत्ता प्यारा जीव है, वफादार बलवान।
घर की  नित रक्षा करे, रख पौरूष अभिमान।।
रख पौरूष अभिमान, गली का शेर कहाए।
चोर और अंजान, भाग कर जान बचाए।।
द्वार रहे गर श्वान, शान ज्यों माणिक मुक्ता।
पर मानव मक्कार, अहम वश कहता कुत्ता।।


के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on December 19, 2013 at 7:00pm — 23 Comments

दर्द का सावन

दर्द का सावन ……

.

दर्द का सावन तोड़ के बंधन

नैन गली से बह निकला

मुंह फेर लिया जब अपनों ने

तो बैगानों से कैसा गिला

 

जो बन के मसीहा आया था

वो बुत पत्थर का निकला

मैं जिस को हकीकत समझी थी

वो रातों का सपना निकला

है रिश्ता पुराना कश्ती का

सागर के किनारों से लेकिन

जब दुश्मन लहरें बन जाएँ

तो कश्ती से फिर कैसा…

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Added by Sushil Sarna on December 19, 2013 at 7:00pm — 18 Comments

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