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सदस्य टीम प्रबंधन
कुछ हाइकू

कुछ हाइकू
 
१.
है अनासक्त .
निर्मोही सांसारिक .
जीवन-मुक्त .
 
२.
न जीत-हार .
दुआ त्याग करार .
निःस्वार्थ प्यार .
 
३.
संग में खेली .
दूर, फिर भी पास .
सच्ची सहेली .
 
४.
बिम्ब दिखाए .
दोस्ती इक आईना .
अश्रु मुस्काए .

Added by Dr.Prachi Singh on July 24, 2012 at 5:52pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
वर्षा के दो रूप

वर्षा के दो रूप (मदन छंद या रूपमाला पर मेरा पहला प्रयास )

(हर पंक्ति में २४ मात्राएँ ,१४ पर यति अंत में गुरु लघु (पताका) २१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२१   संशोधित मदन छंद )

घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर  डाल|



भीगता आँचल धरा का  ,जिंदगी खुश हाल|   



प्यास फसलों की बुझी अब, आ गए त्यौहार- 



राग मेघ मल्हार सुन-सुन, हृदय झंकृत तार||…

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Added by rajesh kumari on July 24, 2012 at 2:00pm — 12 Comments

"ग़ज़ल"

"ग़ज़ल"



मंजिलों को पा रहा हूँ, दूर खुद से जा रहा हूँ

आइने से रू-ब-रू होकर के धोखा खा रहा हूँ



इश्क हूँ मैं हूँ सनम भी, हू-ब-हू हूँ औ जुदा भी

रूह बनके मैं समाया फिर भी खोजा जा रहा हूँ



दर्द दे ऐ दोस्त मुझको, गमगुसारे यार हूँ मैं

बाँट ले हर दर्द अपना, नज्म मीठी गा रहा हूँ



जिंदगी भर प्यास ले के जी रहा था दीद की मैं

आज मेरा है खुदा वो प्यार उसका पा रहा हूँ



हूँ बड़ा ही भ्रष्ट लोगो, और हूँ मैं…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 24, 2012 at 2:00pm — No Comments

कटाक्ष.....

कटाक्ष
हेलमेट-गुटखा संवाद....अध्याय एक प्रारंभ!!!!!!!!
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सुबह-सुबह हेलमेट और गुटखे की पान की टपरी पे मुलाकात हो गई.

'कैसे हो हेलमेट भाई?'..इधर-उधर आशंका भरी निगाहों से देखते हुये गुटखे ने अपना नकाब सरकते हुये पूछा.
'ठीक  हूँ ' फुरसतिया अंदाज़ में मूंछों पर ताव देते हुये हेलमेट गरियाया .
'यार हमारे तो वांदे है आजकल..फिर से इन तथाकथित समाज के पैरोकारगणों…
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Added by AVINASH S BAGDE on July 24, 2012 at 1:01pm — 1 Comment

सब धर्मो का इक तीर्थ बनाएं भारत में

सब धर्मो का इक तीर्थ बनाएं भारत में

आओ ऐसा नव दीप जलाएं भारत में



अब छेड़ प्रेम की तान मिलाएं हाथ चलो 

रख याद वतन की आन मिलाएं हाथ चलो

अब आपस का ये द्वेष भुलाएँ भारत में



सब धर्मो का इक तीर्थ बनाएं भारत में

आओ ऐसा नव दीप जलाएं भारत में



गंगा यमुना भी भेद नहीं करती लोगो

है सबकी पावन गोद यही धरती लोगो

ये जाति-पाति का रोग मिटाएं भारत में



सब धर्मो का इक तीर्थ बनाएं भारत में

आओ ऐसा नव…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 24, 2012 at 12:00pm — 3 Comments

हिसाब का सिलसिला

हिसाब का सिलसिला 



उधार बेच उगाई करने, जब गया,
बोंला हिसाब मिलाया नहीं अभीतक |
समय हो गया दफ्तर बंद करो, 
बोंला रोकड़ का मेल हुआ नहीं अभीतक |
  
ओबीओ काव्य में कौन…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 24, 2012 at 11:30am — 4 Comments

"गांधी जी के बन्दर"

"गांधी जी के बन्दर"



राहों में चलते जाइए

और चलिए

थोडा और

देखिये

देखिये न

देखा !!!!!!!!!!!!!!!

राम राम !!

ये राम को क्यूँ याद किया…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 24, 2012 at 10:55am — No Comments

चार कह-मुकरियां

मुख मण्डल उसका सतरंगा

सबका भेद करे वह नंगा

आज हि काम का कल बेकार

क्या वह टीवी ? नहीं अखबार



देह है भूरी मुख है लाल

पिछवाड़े से मुँह में डाल

बारिश में हो जाती चीड़ी

क्या वह कीड़ी ? नहिं भाई बीड़ी



रोज़ रात को मुँह में डालूं

चूस चास के पूरा खा लूँ

हाय वो मीठे रस की खान

क्या रसगुल्ला ? नहिं भई पान



गुड़ से ज़्यादा मीठी लागे

उसके पीछे मनवा भागे

नूरी नूरी रौशन रौशन

क्या वह सजनी ? नहीं पड़ोसन …

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Added by Albela Khatri on July 24, 2012 at 10:00am — 10 Comments

रिश्ते...

उगते रिश्ते ,ढलते रिश्ते ;

रुकते रिश्ते चलते रिश्ते .

मन के रिश्ते मन से रिश्ते

तन के रिश्ते तन से रिश्ते

अपने रिश्ते बनते रिश्ते

सपने रिश्ते तनते रिश्ते .

उसके रिश्ते इसके रिश्ते

रिसते रिश्ते ,घिसते रिश्ते .

शासक रिश्ते शासित रिश्ते ,

बेदम रिश्ते ,बा-दम रिश्ते .

रिश्ते नीरज ,नीरस रिश्ते

रिश्ते सुधा कहीं गरल रिश्ते .

आंगन रिश्ते उपवन रिश्ते ,

हैं धरा जलद गगन रिश्ते .

रिश्ते पूनम क़ा चाँद भी हैं ,

तारे नयनाभिराम भी…

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Added by DEEP ZIRVI on July 24, 2012 at 6:30am — 2 Comments

व्याजोक्ति [लघु कथा ]

आलोक की बहन रीमा के पति के अचानक अपने घर परिवार से दूर पानीपत में हुए निधन के समाचार ने आलोक और उसकी पत्नी आशा को हिला कर रख दिया |दोनों ने जल्दी से समान बांधा ,आशा ने अपने ऐ टी म कार्ड से दस हजार रूपये निकाले और वह दोनों पानीपत के लिए रवाना हो गए ,वहां पहुंचते ही आशा ने वो रूपये आलोक के हाथ में पकड़ाते हुए कहा ,''दीदी अपने घर से बहुत दूर है और इस समय इन्हें पैसे की सख्त जरूरत होगी आप यह उन्हें अपनी ओर से दे…
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Added by Rekha Joshi on July 23, 2012 at 10:48pm — 25 Comments

सावन का सवैया

सावन का सवैया

(प्रस्तुत रचना "सिंहावलोकन सवैया" में रचित है,जिसे सवैया के सभी प्रकारों में लिखा जा सकता है(मेरी रचना मदिरा सवैय पर आधारित है)।सिंहावलोकन सवैया जिन वर्णों और शब्दों से प्रारम्भ किया जाता है,उसी पर अन्त भी किया जाता है।चरणान्त के शब्द चरण के आगे के शब्द होते हैं।)

*****************************

सावन में गरजे बदरा,

मन मोर नचै वन कानन में।

कानन में मनमोह छटा,

घनघोर घटा घिरि गागन में॥

गागन में चमके बिजुरी,

सिकुरी सुनरी निज आंगन में।

आंगन… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 23, 2012 at 9:47pm — 5 Comments

चल चंदा उस ओर

चल चंदा उस ओर,

जहां नहाती प्रिया सुन्दरी थामें आंचल कोर ।

 

स्वच्छ चांदनी छटा दिखाना,

भूलूं यदि तो राह दिखाना।

विस्मृत हो जाये तन सुध तो,

देना तन झकझोर.........................।

 

मस्त बसंती हवा बहाना,

उसको प्रिय का पता बताना।

हवा तनिक भूले पथ जो,

कर देना उस ओर........................।

 

देख निशा गहराती जाती,

बुझती लौ घटती रे बाती।

लौ तनिक तेज करना,

भरना सुखद अजोर....................।

 

सनी नीर…

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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 23, 2012 at 8:00pm — 19 Comments

॥एक औरत॥

खुले शहरों में मेरी मुस्कराहट अदा है।
बंद शहरों में हमारी अदा ही कजा है॥
खुले शहरों में भी खिलखिलाना मना है।
यही सवाल मेरा इसकी क्या वजा है॥
यूं तो मेरे चाम से मुहब्बत है सबको।
फिर छोटा सा ये क्यों मेरा आसमां है॥
यह तो मुझे बताओ दिल पे हाथ रखकर।
तेरे खुदा से बदतर क्या मेरा खुदा है॥
क्या उसी गुम खुदा की मैं कुदरत नहीं।
गर मेरा नहीं तो क्या तुम्हारा पता है॥
दोगली दुनिया से हम और क्या कहें।
हर सुबूत पेश फिर भी पूछता कहां है॥

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 23, 2012 at 7:44pm — 2 Comments

गजल

छोड़ देना मत मुझे मेरे खुदा मझधार में.

सर झुकाए हूँ खडा मैं तेरे ही दरबार में.

राह में बिकते खड़े हैं मुल्क के सब रहनुमा,

रोज ही तो देखते हैं चित्र हम अखबार में.

देश की गलियाँ जनाना आबरू की कब्रगाह,

इक इशारा है बहुत क्या क्या कहें…

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Added by Sanjay Mishra 'Habib' on July 23, 2012 at 7:00pm — 7 Comments

श्रावणी हाइकू.

फिर लो आया

झीनी फुहारें लाया

सावन आया.

:

लो फूल खिले

कलियाँ भी…

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Added by Ashok Kumar Raktale on July 23, 2012 at 2:09pm — 6 Comments

‘मुग्ध नयनों से निहारे’

मदन-छंद या रूपमाला

****************************************

है मदन यह छंद इसका, रूपमाला नाम.

पंक्ति प्रति चौबीस मात्रा, गेयता अभिराम.

यति चतुर्दश पंक्ति में हो, शेष दस ही शेष,

अंत गुरु-लघु या पताका, रस रहे अवशेष..

****************************************

चाँदनी का चित्त चंचल, चन्द्रमा चितचोर.

मुग्ध नयनों से निहारे, मन मुदित मनमोर.

ताकता संसार सारा, देख मन में खोट.  

पास सावन की घटायें, चल…

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Added by Er. Ambarish Srivastava on July 23, 2012 at 1:30pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रचयिता

झींगुर की रुन झुन

रात्रि में घुंघरू का

मुगालता देती हैं

बदरी की चुनरी चंदा पर

घूंघट का आभास कराती है

नीर भरी छलकती गगरी

सागर का छलावा देती हैं

अल्हड शौख किशोरी

के गुनगुनाने का

भ्रम पैदा करते हैं

बारिश की टिप- टिप

संगीत सुधा बरसाती हैं

दामिनी की चमक

श्याम मेघों की गर्जना

विरहणी के ह्रदय की

चीत्कार बन जाती है

अन्तरिक्ष में सजनी साजन

के मिलन की कल्पनाएँ

मिलकर करती हैं जो…

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Added by rajesh kumari on July 23, 2012 at 1:00pm — 8 Comments

इक तरफ - इक तरफ

इक तरफ सुन्दर, जग-जमाना,

इक तरफ लुटता, मैं खज़ाना,

इक तरफ प्याला, है मदहोश,

इक तरफ लब, मेरे खामोश,

इक तरफ बिजली, हैं बादल,

इक तरफ आशिक, मैं पागल,

इक तरफ सागर, है गहरा,

इक तरफ खाली, मैं ठहरा,…

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Added by अरुन 'अनन्त' on July 23, 2012 at 11:22am — No Comments

दुख से अपना गहरा नाता

दुख से अपना गहरा नाता,

सुख तो आता है, और जाता.

दुख ही अपना सच्चा साथी,

हरदम ही जो साथ निभाता.



जब से जग में आंखें खोली,

सुनी नहीं कभी मीठी बोली.

दिल को तोड़ा सदा उसी ने,

जिसको भी समझा हमजोली.



जिम्मेदारी का बहुत सा,

बोझ उठाया कांधे पर.

जिसको भी दिया सहारा.

मार चला वो ही ठोकर.





तेरा मेरा कभी न सोचा,

सारे जग को अपना माना.

अपनी खुशियों से बढ़कर,

औरों की खुशियों को जाना.



हाय नियति! फ़िर भी… Continue

Added by Pradeep Bahuguna Darpan on July 23, 2012 at 10:29am — No Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
वक़्त (कुछ दोहे)

वक़्त (कुछ दोहे)

**************************************************
वक़्त चिरैया उड़ रही , नित्य क्षितिज के पार l 
राग सुरीले छेड़ती , अपने पंख पसार ll
**************************************************
वक़्त परिंदा बाँध ले , बन्ध न ऐसो कोय l
थाम इसे जो उढ़ चले , जीत उसी की होय ll
**************************************************
बीते पल की थाप पर , मूरख नीर बहाय l
खुशियों को ढूँढा…
Continue

Added by Dr.Prachi Singh on July 23, 2012 at 10:00am — 30 Comments

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