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कर्ज़- एक मर्ज़

कर्ज़ का मर्ज़ होता है कैसा

समझ कभी ना पाया था

जब तक कर्ज में नहीं था डूबा

ऋणकर्ता का मजाक बनाया था

समय बदलते देर ना लगती     

अपनी मूर्खताओ की वजह से

मैं भी जब बाल-बाल बंधवाया

तब समझ में आया था ||

 

माँ कहती थी कर्ज ना लेना

गरीबी में तुम रह लेना

मुँह छोटा ओर पेट बड़ा

कर्ज का होता है बेटा

आसानी से ये नहीं चुकता

अच्छे-अच्छे को ले डूबता

पर आसानी से नहीं चुकता

इतना समझ लेना बेटा…

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Added by PHOOL SINGH on September 5, 2019 at 5:00pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तू शिक्षक है़ या रक्षक है़

आदरणीय योगराज जी , आदरणीय सौरभ जी , आदरणीय समर भाई जी , तथा जिस मित्र ने भी कभी भी मेरा मार्ग दर्शन किया सभी को  समर्पित  ,करती हूँ ये रचना .

जीवन निर्माता भाग्य विधाता सब दुःख हरता ईश्वर है़

तृण तृण परिभाषित राह प्रदर्शित पग- पग करता गुरुवर है़



गिर जाने पर हाथ बढ़ाना

हर मुश्किल में पार लगाना



गहन तमस में घिर जाने पर

भटकों को यूँ राह दिखाना



तेरी अनुकंपा के आगे

कष्टों की धुंध का छट जाना



पतझड़ के मारे तरुओं पर

हरित हरित…

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Added by rajesh kumari on September 5, 2019 at 4:30pm — 6 Comments

-गुरु दिवस

झिझको नहीं ठिठको नहीं
लो पकड़ लो मेरा हाथ
मैं तुम्हे ले चलता हूँ
तम से प्रकाश की ओर

प्रकाश तुम्हें दिखाएगा
जीवन के अनंत आयाम
तुम कसौटी पर परखना
औऱ चुन लेना कोई एक

वो एक ही पर्याप्त है
जीवन को दिशा देने के लिए
अन्य के जीवन में
प्रकाश फ़ैलाने के लिए॥

- प्रदीप देवीशरण भट्ट - मौलिक व अप्रकाशित

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 5, 2019 at 3:50pm — 4 Comments

कुण्डलिया छंद-

नयनों का जिस क्षण हुआ, नयनों से सम्पर्क।
नयन नयन के हो गए, हुआ न कोई तर्क।।
हुआ न कोई तर्क, नयन नयनों पर छाए।
निकट नयन को देख, नयन नत-नत शरमाए।।
नयना ही आधार, नयन के है चयनों का।
नयन नयन का मेल, निरामय है नयनों का।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
#हरिओम श्रीवास्तव#

Added by Hariom Shrivastava on September 3, 2019 at 7:04pm — 4 Comments

तू है यहीं..।।

तू है यहीं..।।

दिन नया-नया सा है, ख़्वाहिशें सब पुरानी सी।

तेरा इंतज़ार था, इंतज़ार है, और इंतज़ार रहेगा।।

चाहतें हैं जो बदलती नहीं, आहें हैं, मिटती नहीं।

अहसास करवटें बदल-बदल कर सताते हैं।।

हर शाम पूछती है, बेधड़क दरवाज़ा खटखटाती है।

वो ख़ुद लौटा है, या सिर्फ़ उसकी यादें लौटी है?

यादें और यादें, तुम ही रुक जाओ, कम्बख़्त ।

मुस्कराहटें ना सही, आँसू ही दे जाओ ज़रा।।

हर मशविरा वो देता है, आगे बढ़ जाओ।

बतला…

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Added by Usha on September 3, 2019 at 10:30am — 4 Comments

संबंध-सूत्र

अजीब अवस्था है

कोई खुरदरी विवशता है

और है अद्भुत  चित्ताकर्षण ....

पलकों के आसपास 

गहन दूरता का आवरण

कि  जैसे  हो  फैल  रहा

मूर्छा का मौन वातावरण

अपरिचित भीड़ में खो गईं 

कितनी  परिचित  संज्ञाएँ

सरोवर-सदृश  संवेदनाएँ

फिर  भी  न  जाने  कैसे

दरिद्र हुई धड़कन में भी आदतन

कोई वादा निभाने के बहाने ही शायद

डरी  हुई  बाहें  फैलाए

व्याकुलतर  गति  से  छू  लेती  हैं

आज भी…

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Added by vijay nikore on September 3, 2019 at 7:27am — 4 Comments

एक ग़ज़ल मनोज अहसास इस्लाह के लिए

2×15

मेरे मन की लाचारी में जल जायें ना मेरे हाथ

मुझको फिर से पावन कर दे तू हाथों में लेके हाथ

मम्मी,पापा,बहना,भाई,बीवी,बच्चे और साथी

काम-समय अपने हाथों में दिखते मुझको सबके हाथ

सुन लेने की आदत को कमजोरी समझा जाता है

सच्चे साबित हो जाते हैं पल-पल हाथ नचाते हाथ

सच कहने की चाहत तो है लेकिन इन झूठों के बीच

कैसे सबको बतलाऊं मैं मेरे भी हैं काले हाथ

अपना मानना,अपना कहना,अपना होना बात कई

लेकिन…

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Added by मनोज अहसास on September 2, 2019 at 11:10pm — 2 Comments

कभी देखा नहीं सुनते रहे सैलाब आएगा (६० )



कभी देखा नहीं सुनते रहे सैलाब आएगा

हमारे गाँव की चौपाल तक अब आब आएगा

**

खिलौना जानकर कुछ लोग उसको तोड़ डालेंगे

अगर तालाब की तह में उतर महताब आएगा

**

हमेशा ख़्वाब देखें और मेहनत भी करेंगे तो

हक़ीक़त में उतर कर एक दिन वो ख़्वाब आएगा

**

नहीं था इल्म हमको ये कि जिस फ़रज़न्द को पाला

वही बेआब करने सूरत-ए-कस्साब आएगा

**

ग़रीबी से दिलाएगा  निज़ात अब कौन और कैसे

अमीरी का रियाया को कभी क्या ख़्वाब आएगा …

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on September 2, 2019 at 11:00pm — 5 Comments

अधिकारों की नई परिभाषा

काफी प्रतीक्षा के बाद जनरल मैनेजर वनिता सिंह को अकेले देख कर शिवानी ठाकुर उनके चैंबर में प्रविष्ट हुयी। मैडम अपनी कार्य-शैली के अनुसार सिर झुकाये कुछ पढ़ने में व्यस्त बनी रहीं। शिवानी ने विनम्रता से बैंक जाकर ए टी एम् कार्ड रिसीव करने हेतु अनुमति माँगी।

उन्होंने सिर झुकाये ही कहा, “लिखित में लाइए।”

“मैडम, मैं अवकाश नहीं माँग रही हूँ , बैंक जाकर तुरंत वापसी कर लूंगी।

“सुना नहीं? लिखकर लाओ कि तुम कार्यालय के समय में अपना व्यक्तिगत कार्य करने जाना चाहती हो।”

शिवानी…

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Added by Usha on September 2, 2019 at 12:00pm — 1 Comment

गजल

फूल को काँटा चुभाना तो कभी अच्छा नहीं

घाव देकर मुस्कुराना तो कभी अच्छा नहीं।1

प्रेम के बिरवे उगें तो वादियाँ गुलजार हों

बेरहम पत्थर उठाना तो कभी अच्छा नहीं।2

रोशनी का सिलसिला चलने लगा,चलने भी' दो

भोर का सूरज चुराना तो कभी अच्छा नहीं।3

प्यास धरती की बढ़ा क्यूँ फिर चले काली घटा?

जल रहे को फिर जलाना तो कभी अच्छा नहीं।4

दाग औरों को लगाने को सभी बेताब हैं,

आँख से काजल उड़ाना तो कभी अच्छा नहीं।5

इल्म…

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Added by Manan Kumar singh on September 1, 2019 at 8:30am — 2 Comments

विकल्प  (लघुकथा)

"मास्टर जी, अब तो पानी सिर के ऊपर हो गया। अब हमारे सामने हथियार उठाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा।"

"नहीं नासिर, ऐसा कुछ भी नहीं है।आजतक दुनियाँ में हथियार से कोई भी समस्या हल नहीं हुई| अभी भी बहुत विकल्प हैं।"

"सर जी, स्थिति कितनी भयानक हो चुकी है, आपको अहसास नहीं है। हमारी क़ौम को कुचला और दबाया जा रहा है।"

"यह सिर्फ़ एक पहलू है। तुम्हें बार बार यही पाठ पढ़ाया जा रहा है। लोग तुम्हारा और तुम्हारी कौम का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे बचो|"

"आप के हिसाब से  इस समस्या का…

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Added by TEJ VEER SINGH on August 30, 2019 at 8:30pm — 2 Comments

क्षणिकाएँ ....

क्षणिकाएँ ....

लील लेती है
एक ही पल में
कितने अंतरंग पलों का सौंदर्य
विरह की
वेदना

...............

उड़ती रही
देर तक
खिन्न सी एक तितली
मृदा में गिरे
मृत पुष्प में
जीवन ढूँढती

..........................

कह रहे थे दास्ताँ
बेरहम आँधियों की
बिखरे तिनके
घौंसलों के

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on August 30, 2019 at 7:10pm — 4 Comments

चाय

‘अरे बहू ---‘
‘क्यों गला फाड़ रहे हैं , क्या है ?
‘अरे वो अपने शर्मा जी आये हैं , जरा चाय बना देना, बेटा I’
दस मिनट बाद बूढ़े ससुर ने फिर आवाज दी, ‘अरे बहू -----अभी तक चाय नही आयी ?’
अगले दस मिनट बाद ससुर ने फिर पुकारा .’अरे बहू---?’
शर्मा जी उठ खड़े हुए और हाथ जोड़ कर बोले ,’भाई साहब, चाय रहने दीजिये, मैं जरा जल्दी में हूँ I चाय फिर कभी –‘

(मौलिक/अप्रकाशित )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 29, 2019 at 8:41pm — 9 Comments

आईना टूट न जाए मग़र ये ध्यान रहे----------ग़ज़ल

2122 1122 1212 112

तुम हसीं हो ये भले ही तुम्हें गुमान रहे

आईना टूट न जाए मग़र ये ध्यान रहे

पाँव मन्ज़िल की तरफ रख सँभल सँभल के ज़रा

एक दिल भी है तेरी राह में ये ध्यान रहे

तू ज़माने से रहे बे-ख़बर नहीं कहता

किन्तु इस दिल के भजन पर भी तेरा कान रहे

तेरी साँसों के हर-इक गीत में रहूँ शामिल

ताल सुर नाद ये पंकज ही तेरी तान रहे

पूछ मत नींद सुकूँ का हिसाब आशिक़ से

आशिक़ी कैसी अगर ध्यान में ज़ियान…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 29, 2019 at 9:30am — 2 Comments

सीखे सबक़ हयात से भूला नहीं कोई (५९ )



सीखे सबक़ हयात से भूला नहीं कोई

जीती हैं बाज़ियाँ सभी हारा नहीं कोई

**

कैसे भटक सके है भला शाख शाख पर

दिल आपका हुज़ूर परिंदा नहीं कोई

**

फ़रज़न्द की वजह से परेशान कोई है

कुछ हैं हताश इसलिए बच्चा नहीं कोई

**

इक बार हो गया है तो आसाँ न छोड़ना

ये इश्क़ दोस्त खेल तमाशा नहीं कोई

**

दरिया में जब उतर गया तो सीख तैरना

इसके सिवाय और है रस्ता नहीं कोई

**

दुनिया में हुस्न देखिये बिखरा पड़ा बहुत

फिर भी सिवाय आपके जँचता नहीं कोई…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 29, 2019 at 1:30am — 4 Comments

तुझसे ही धोखे खाए हैं

सबसे ज्यादा ज़िन्दगी 
तुझसे ही धोखे खाए हैं
जब किया विश्वास तब
तूने कहर बरपाए हैं
सबसे - -

दीप आशा का लिए
जब - जब उमंगित मैं खड़ी
द्वार जो नैराश्य के 
आकर सतत खटकाए हैं
सबसे - -

मत समझना तू हरा देगी
मुझे ऐ ज़िन्दगी
हमने ही तो कूट प्रश्नों के
गिरह सुलझाए हैं
सबसे - -

परत दर परतों के पीछे
कितना ही छुपती फिरे
पर तेरे झूठे मुखौटे
हमने ही विलगाए हैं
सबसे - -

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on August 28, 2019 at 9:51pm — 1 Comment

ग़ज़ल

 2122 2122 2122 212

नाव है मझधार में नाविक नशे में चूर है

सांझ है होने लगी मंजिल नज़र से दूर है

संकटों से आदमी क्या देव भी बचते नहीं

वक्त के आगे सभी होते यहां मजबूर है

जिन्दगी की कशमकश में जीना’ जिसको आ गया

यों समझ लो हौसलों से वो बहुत भरपूर है

दोष है अपना समय के साथ चल पाये नहीं

बंद मुट्ठी से फिसलना वक्त का दस्तूर है

हाल ‘‘मेठानी’’ बतायंे क्या किसी को अब यहां

आदमी सुनता नहीं अब हो गया मगरूर…

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Added by Dayaram Methani on August 27, 2019 at 10:00pm — 2 Comments

कुर्सी- एक जादुई छड़ी

त्याग, बलिदान, जोश, श्रम

चार पावों पर खड़ी हूँ मैं

सत्ता की मै बन धुरी

चमक-धमक से सजी-धजी

जादू की फूलझड़ी हूँ मैं

सपनों की सुंदर परी हूँ||

 

महत्वकांक्षा की कड़ी हूँ मैं

स्वागत को तेरे खड़ी हूँ मैं

धैर्य की सबकी परीक्षा लेती

कर्म मार्ग की लड़ी हूँ मैं

नियत, मेहनत का मूल्यांकन करती

तेरे सुख-दुख की कड़ी हूँ मैं||

 

उठक-बैठक कर खेल…

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Added by PHOOL SINGH on August 27, 2019 at 4:21pm — 2 Comments

मुफ़लिसी

शाम को जिस वक़्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं

अपने बच्चों की निगाहों से उतर जाता हूँ मैं
भूख से हूँ बेहाल इतना के चला जाता नहीं
जाना चाह्ता हूँ उधर जाने किधर जाता हूँ मैं
एक ठीया है शहर में हम सब जहाँ होते जमा
ख़ुद को लेकिन रोज़ तन्हा उस डगर पाता हूँ मैं
जो मेरी है वो ही अब हालत शहर की हो रही
आइने में ख़ुद की…
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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on August 26, 2019 at 3:30pm — 4 Comments

रस्सा-कशी खेल था जीवन(५८ )

एक विरह गीत

===========

रस्सा-कशी खेल था जीवन

एक तरफ का रस्सा छोड़ा |

इतनी भी क्या जल्दी थी जो

मीत अचानक नाता तोड़ा |

**

जीवन नदिया अपनी धुन में

अठखेली करती बहती थी |

और खुशी भी इस आँगन में

अपनी मर्जी से रहती थी |

सब कुछ अपने काबू में था

कैसे रहना क्या करना है,

हाँ थोड़े से दुख के झटके

कभी ज़िंदगी भी सहती थी |

लेकिन तुम थे साथ हमेशा

हँस हँस कर सह ली हर…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 25, 2019 at 1:30pm — 6 Comments

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