पीढ़ियों का अंतर
पीढियों के अंतर में कसक भरी तड़पन है
इनकी अंतरव्यथा में गहरी चुभन है
जिंदगी की सांस् सिसकियों में सिमटी जा रही है
जिसमें खुशनुमा सी सुबह धुंधली होती जा रही है
दादा दादी, नाना नानी ,पोते पोती ,नाती नातिनें
मिलजुल कर प्यार से रहने के वो रिवाज़औरस्में
क्यूँ आ गई है दीवारें इनमें
कैसे पाटा जायेगा ये अंतर हमसे
ये अंतर घर परिवार की खुशियों को खा रहा है
ऐसा पहले तो नहीं था अब कहाँ से आ रहा…
ContinueAdded by vijayashree on July 12, 2013 at 4:00pm — 8 Comments
ये भोर
काली रात के बाद
अब भी सिसकती है
यादों के ताजे निशाँ
सूखे ज़ख़्मों को
एक टक ताकती
उसे नहीं पता
आने वाली शाम और
रात कैसी होगी
पता है तो बस
बीता हुआ कल
वो बीता हुआ कल
जो निकला था
उसकी कसी हुई मुठ्ठी से
रेत की तरह
देखते देखते
रेत की तरह
भरी दोपहर में
तपते रेगिस्तान में
ज्यों छलती है रेत
मृग मारीचिका की तरह
मृग मारीचिका
जिससे भान होता है
पानी का
हाँ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 12, 2013 at 1:54pm — 9 Comments
******* बेवफाई ********
दोस्ती का हक़ तो मैंने अदा किया
पर उसने मुझे कुछ दगा सा दिया
जाने किस बात पे वो था रुका
किस बात पे जाने भुला वो दिया
दोस्ती…
ContinueAdded by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 12, 2013 at 12:30pm — 6 Comments
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े
बहे विशाल वृक्ष जो थे उंघते खड़े खड़े
बड़ी बड़ी शिलाओं के निशान आज मिट गये
न छत रही न घर रहा मचान आज मिट गये
हुआ प्रलय बड़ा विकट किसान आज मिट गये
सुने किसी की कौन के प्रधान आज मिट गये
पुजारियों के होश भी लगे हमें उड़े उड़े
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े
मदद के नाम पे वो अपने कद महज बढ़ा रहे
खबर की सुर्ख़ियों का वो यूँ लुत्फ़ भी उड़ा रहे
वहीं घनेरे मेघ काले छा के फिर चिढ़ा…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 12, 2013 at 12:28pm — 9 Comments
अनाद्यानंत आकाश में तैरते
Added by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 12:00pm — 30 Comments
जीवन में हर रंग दिखाता ये पल्लू
सर पर तो पूरित हो जाता है पल्लू
गर्मी में चेहरे का पसीना पौंछता
सावन में छतरी बन जाता है पल्लू
जब- तब शादी में गठबंधन करवाता
दो जीवन को एक बनाता ये पल्लू
झोली बन कर आखत अर्पण करवाता
फिर घूँघट की शान बढाता है पल्लू
कभी कभी नव शिशु का झूला बन जाता
आँखों से…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 12, 2013 at 12:00pm — 26 Comments
रचना ओ बी ओ नियमानुसार न होने और लेखक के अनुरोध पर हटा दी गई है |
एडमिन
2013071407
Added by Neeraj Nishchal on July 12, 2013 at 11:30am — 12 Comments
ऊब गया मैं ऊब गया
रोज किताबों को पढ़कर !
भाषा की सरल किताबों में
जब व्याकरण की मार पड़ी
छंद विधानों में उलझा
तब जोड़ न पाया कोई लड़ी…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on July 12, 2013 at 11:00am — 8 Comments
ऐ प्रकृति तू धर शरीर
ले जन्म किसी माँ की कोख से !!
.
जब तुझे लगेगी चोट
बहेगा लहू तेरे शरीर से
या बीच राह में कोई
दाग लगेगा आबरू पे कोई
जब जागेगा ये मानव कही
रक्षा को तेरी तभी
ऐ प्रकृति तू धर शरीर !!
.
वैसे तो कुछ दिनों का होगा जोश
मानव का मानव के लिए
मगर इस बहाने ऐ प्रकृति
तेरा ख्याल तो आयेगा
वरना ये शातिन प्राणी
अपने स्वार्थ के लिए
तुझको ही ये लूटता जायेगा
ऐ प्रकृति तू धर शरीर
ले…
Added by Sumit Naithani on July 12, 2013 at 9:30am — 10 Comments
आज मन उदास है ,
तुम कुछ बोल दो !
अर्न्तमन की आँखों से मुस्कुरा,
प्रेम शब्द उकेर दो !
खिलते गुलाब की पंखुड़ी से,
गुलाबी अधर खोल दो !
आज मन उदास है , तुम कुछ बोल दो !
.
तुम्हारे स्वप्निल ख्यालों में ,
मन कहीं खो जाये !
तन स्पर्श ना सही ,
मन स्पर्श हो पायें !
स्वर कोकिला रूप में ,
श्वासों की सुगन्ध धोल दो !
आज मन उदास है तुम कुछ बोल दो !
प्रेम का मधुपान करूं ,
अपना सा अहसास करूं !
मोहपाश में बाँध कर ,…
Added by D P Mathur on July 12, 2013 at 7:30am — 10 Comments
प्रकृति की
नैसर्गिक चित्रकारी पर
मानव ने खींच दी है
विनाशकारी लकीरे
सूखने लगे है
जलप्रताप, नदियाँ
फिर
एक सा जलजला आया
समुद्र की गहराईयों में
और प्रलय का नाग
निगलने लगा
मानवनिर्मित कृतियों को,
धीरे धीरे
चित्त्कार उठी धरती
फटने लगे बादल
बदल गए मौसम
बिगड़ गया संतुलन
हम
किसे दोष दे ?
प्रकृति को ?
या मानव को ?
जिसने अपनी
महत्वकांशाओ…
ContinueAdded by shashi purwar on July 12, 2013 at 12:30am — 18 Comments
संबंध
बेमतलब , बेमानी ...
भाई चारे की तरह
ढोते हैं रिश्तों की लाश को
आफ्नो को
अपने ही देते कंधे
चलते जाते हैं
नाकों मे फैलती
अपनों की सड़ांध
आसान नहीं है चलना
और फिर
जला आते है अपनों की लाश को
अपने ही , मगर
ढ़ोना तो पड़ता है
छाँव की तलाश मे
रिश्तों की आस मे
संबंध
बेमानी , बेमतलब
भाई चारे की तरह ...
"मालिक व अप्रकाशित"
Added by Amod Kumar Srivastava on July 11, 2013 at 10:00pm — 11 Comments
मंद हवा की
लहरों पर बैठ
आकाश ने
हाथों में लिया
सितारों का अक्षत,
अरूणोदय का कुमकुम,
ओस की बूंदें,
बाग से
पुष्प, घास
और तिरोहित कर दी
रात
क्षितिज में।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on July 11, 2013 at 6:30pm — 30 Comments
देश में फल-फूल रहा, सट्टे का बाजार,
कुछ लोगो के बिक रहे,देखो सब घर बार |
सट्टा गर सरकार का, नियमो में वह वैध
जनता गर सट्टा करे, उसको कहे अवैध |
राजनीति व्यवसाय है,दीमक जैसी चाट
घोटाले करते रहे, कुर्सी के है ठाट |
राजनीति में जो सफल,घोटालो में लिप्त,
इस धंधे में देख लो,नेता सब संलिप्त |
बहुत संपदा पास में, कल तक तो थे रिक्त
नित्य संपदा…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 11, 2013 at 6:30pm — 22 Comments
बंजर बादल चूम रहे हैं
फिर से प्रेत शिलाएं
लोकतंत्र की
लाश फूलती
गंध भरे
गलियारों में
यहां-वहां बस
काग मचलते
तुष्ट-पुष्ट
ज्योनारों में
नित्य बिकाउ नारे लेकर
चलती तल्ख हवाएं
गंगा का भी
संयम टूटा
वक्र बही
शत धारों में
क्षुब्ध, कुपित
पर्वत, हिमनद भी
कह गए बहुत
ईशारों में
पछताते चरणों से लौटी
कितनी विकल…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on July 11, 2013 at 4:52pm — 16 Comments
राह के वो हाशिये थे एक पल में हट गये
रास्ते चौड़े हुए तो पेड़ सारे कट गये
एक है चेहरा हमारा और खूं का रंग भी
क्या रही मज़बूरी जो हम मज़हबों में बंट गये
ग़मज़दा हूँ मैं कि मेरे पैर में जूते नहीं
क्या गुज़रती होगी उसपे पांव जिसके कट गये
न रहे दादा न दादी जो रटाये राम- राम
देखकर माहौल घर का, तोते गाली रट गये
रिज्क़ की तंगी कुछ ऐसी हो गई अब गाँव में
औरतें तो रह गईं पर मर्द काफी घट गये
ज़िन्दगी के…
Added by Sushil Thakur on July 11, 2013 at 4:00pm — 6 Comments
भुन्सारे से संझा तक
घूरे की तरह
उदास
चन्दा घिरा है
काले बादलों में
भरी दोपहर में !!!
सारी रोशनी
खाए जा रहा है
पलकों का बह चुका
काला कलूटा काजल
काश तुम बोलते
ये मौन चिरैया की चुप्पी तोड़ते
गुस्सा लेते
कम से कम कारण तो पता चलता
आँखों से और इन अदाओं से
पता चलता है
प्यार और तकरार
प्यास और इंतज़ार
ईमानदार और मक्कार का
तमन्ना का नहीं
अब देखो न …
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 11, 2013 at 4:00pm — 7 Comments
जो नजर है कमाल की साहिब
वो नजर क्यूँ झुकी हुई साहिब
.
आज फिर दिल मेरा बेचैन सा है
आज फिर हमने पी रखी साहिब
.
जुल्फ की छाँव तले गुजरे दो पल
दो घड़ी ज़िंदगी ये जी साहिब
.
मरने में आएगा मज़ा हमको
क़त्ल कर दे हंसी नजर साहिब
.
जाम हाथों में इक बहाना है
हम कहाँ करते मयकशी साहिब
.
मैं नहीं बज्म में कभी आया
बात उसको ये खल गयी साहिब
.
डूब जायेंगे हम समंदर में
हो समंदर…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on July 11, 2013 at 3:30pm — 3 Comments
सुख के झरने देख पराए दुख को लिए निकलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
मर्यादा में घोर निराशा
बाँध तोड़ती अहम पिपाशा
रस्मों और रिवाजों के पुल
लगते हैं बस एक तमाशा
तीव्र वेग से बहती है कब शिव से कहो सम्हलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
अंतरमन का दीप बुझाती
प्रतिस्पर्धा को सुलगाती
होड़ लिए आगे बढ़ने की
लक्ष्य रोज ये नये बनाती
सुधा धैर्य की छोड़ विकल चिंता का गरल…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 11, 2013 at 3:00pm — 13 Comments
दोस्तों अपने इस के साथ आप सबको
रमजान की मुबारक वाद देता हूँ ...................................
खुदा की धरती खुदा का अम्बर ,
खुदा की कुदरत पे किसका हक़ है ।
वो ही बनाये वो ही मिटाए ,
कि उसकी रहमत पे किसको शक है ।
कमाये तुमने यहाँ पे लाखों ,
मगर तमन्ना चुकी नही है ।
ये सुन लो जिस पे है नाज़ तुझको ,
वो जिंदगानी तेरी नही है ।
ज़रा तो सोचो जो तुमने पायी ,
वो तेरी शोहरत पे किसका हक़ है…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on July 11, 2013 at 11:30am — 8 Comments
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