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जिंदगी यूं ही सिखाती रहती है

जिंदगी के सफर में हजारों- लाखों मुसाफिर मिलते है. इन मुसाफिरों में ही आपके दोस्त छिपे होते है. इनमें से जिनकी बातें आपको प्रभावित करती है या आपकी बातें जिनको प्रभावित करती है, वह आपके दोस्त बन जाते है. बाकी फिर वैसे ही छूट जाते है अजनबियों की तरह. यहां पर गौर करने की बात है कि आपके दोस्त भले ही अजनबियों की तरह हजारों-लाखों की भीड़ में छिपे होते है, पर आपका दुश्मन आपके दोस्तों में ही छिपा हुआ होता है. बस जरूरत होती है उसको पहचानने की. अनजाने लोग आपके दोस्त तो हो सकते है, पर आपके दुश्मन नहीं.…

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Added by Harish Bhatt on May 5, 2013 at 8:44pm — 9 Comments

भूल जाऊंगी तुझे.....

एक बीते वक़्त सा

कुछ भूल जाना अच्छा होगा

जिसके दामन में दुःख के सिवा

मन को भिगोते

गलतफहमियो के घने बादल,

शिकायतों की बिजलियां

गरजते - गडगडाते काले

शक के भरे बरसने को

बेकाबू सवालों के मेघ

और कुछ डरावनी रातें होंगी;

भूल जाना कुछ कड़वे शब्द

उनकी तपिश आँखों को

और कभी जो दिल को

जलाती रही ओस से भीगी,

ठंडी रातों में भी और

दर्द देती रही मेरे शांत पड़े

कानो को जो अकसर,

दर्द से कराह…

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Added by Priyanka singh on May 5, 2013 at 5:23pm — 27 Comments

!!! प्यारी बेटी !!!

!!! प्यारी बेटी !!!



बेटी, सुनहरी धूप सी.....!

बेटी, नीम की छांव सी....!

बेटी, धन सी कामना...!

बेटी, कुल को तारना....!

बेटी, जीवन की आदि.अन्त....!

बेटी, मंदिर की साधु-संत....!

बेटी, गृहस्थ की पहली कड़ी.....!

बेटी, आनन्द की बेल चढ़ी......!

बेटी, दो कुटुम्ब की आधार-शान....!

बेटी, मधु-अमृत और सम्मान......!

बेटी सुख-दुःख की छाया.....!

बेटी, श्रृंगार की पेटी-माया...!

बेटी, सतरंगी इन्द्रधनुष...!

बेटी, सास की साजिश......!

बेटी,…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 5, 2013 at 2:13pm — 14 Comments

पारिवारिक सौहार्द

मानव समाज में पारिवारिक इकाई के अंतर्गत बच्चे युवा एवं बुजुर्ग तीन पीढ़ियों के लोग आते हैं। इन तीनों पीढ़ियों में आयु के अंतर के कारण सोंच में भी अंतर होता है। अक्सर सोंच  का यह अंतर आपसी टकराव का कारण बन जाता है।

सोंच में अंतर स्वाभाविक है। हर समय का…

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Added by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on May 5, 2013 at 11:00am — 11 Comments

चार क्षणिकाएँ

क्षणिका : नीम चढ़ा करेला

 

नीम चढ़ा करेला

सेहत के लिए सबसे अच्छा होता है

लेकिन चर्बी को सेहत मानने वाले समाज में

ये कहीं नहीं बिकता

 

क्षणिका : हवा की तरह

 

मुझसे प्रेम करो हवा की तरह

ताकि तुम्हारा हर एक अणु

मेरे जिस्म के हर बिन्दु से टकराये

और तुमसे दूर होते ही

मेरी नसों में बह रहा लहू

मुझे फाड़कर रख दे

 

क्षणिका : विकास

 

चिकित्सा कम कर देती है…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 5, 2013 at 9:06am — 8 Comments

कौन कहे क्या..... हास्य

प्रथम प्रयास .....वीर छंद

----

सास बहू से कहे प्रेम से देर भयी सो जाओ 'प्लीज़'

बहू सास से यह कहती है फौरन लाओ आँटा पीस

रणभूमी मे कागा कहता बोटी आज मिली बखशीस

बोटी कहती बच गये शत्रू बस इतनी है मन मे कीस



चोर कहे किसका मुहँ देखा खाली बटुआ लिया चुराय

मूँछ ऐंठ कर कहे सिपाही चुपके हफ्ता दो सरकाय

नेता कहता कसम आपकी सब डारेंगे काम बनाय

वोटर कहता क्षमा कीजिये बहकावे मे आँवै नाय

चापलूस अतिथी ये कहता बच्चे कितने हैं मासूम

गुनगुन…

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Added by manoj shukla on May 5, 2013 at 6:30am — 12 Comments

वीर छन्द,,,(आल्हा छन्द)

वीर छन्द,,,(आल्हा छन्द)

=========================

 

सदा न यॊद्धा रण मॆं जीतॆ, रहॆं न सदा हाँथ हथियार ।

जीना मरना वहीं पड़ॆगा,जिसका जहां लिखा करतार ॥

कई साल तक रहा ज़ॆल मॆं, बाँका सरबजीत सरदार ।

उसॆ छुड़ा ना पायॆ अब तक,सॊतॆ रह गयॆ पाँव पसार ॥

हाय  हमारॆ  मौनी  बाबा, करतॆ  रहॆ  नॆह- सत्कार ।

लूटा खाया इस भारत कॊ,गूँगी …

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on May 5, 2013 at 5:00am — 28 Comments

हम खुद ही बादशाह हैं

हम वो नही जो आपकी

चुटकी में मसल जाएँ

हम वो नहीं जो आपके

पैरों से कुचल जाएँ

हम वो नहीं जो आपके

डर से रण छोड़ जाएँ

हम वो नहीं जो आपकी

भभकी से सिहर जाएँ

 

जुल्मो-सितम की आंधी

यातनाओं के तूफ़ान में भी

देखो तने खड़े हम

किसी पहाड़ की तरह  

खुद्दारी और खुद-मुख्तारी

यही तो है पूंजी हमारी...

 

उन जालिमों के गुर्गे

टट्टू निरे भाड़े के

हथियार छीन लो तो

रण छोड़ भाग…

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Added by anwar suhail on May 4, 2013 at 8:21pm — 5 Comments

देवता ! मुझे शरण दो

देवता ! मुझे शरण दो !

अस्सी साल की बुढ़िया ,

लाठी टेकती आयी ,

गुहार करने

मंदिर आंगन द्वार .

हाथ उठाकर ,

घण्टी भी बजा न सकी .

जर्जर काया जीवन से त्रस्त ,

और दुखित -

अपनों से सतायी हुई, उपेक्षित .

माँग रही थी मृत्यु का वरदान ,

पर – देवता सोये थे निश्चिंत .

कम्पित कर जोड़े ,

साथ न दे रही थी

थर्राती वाणी.

‘’ मैया ! घर जाओ ‘’ बोले पुजारी

‘’ कहाँ जाऊँ बेटा, कहीं नहीं कोई ‘’.

जो कुछ था लूट लिया…

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Added by coontee mukerji on May 4, 2013 at 7:13pm — 8 Comments

वाह रे खुदा!

वाह रे खुदा!

हैरान हूँ तेरी खुदाई देखकर;

तेरी मेरी भावना से 

मानव की पाटी खाई देखकर|

ना उसे मिला कुछ

ना ही कुछ इसे मिला;

फिर क्या बकवास नहीं

दुश्मनी का ऐसा सिला?

चिराग जला करे घर रोशन 

अपने घर की मुंडेरों से;

तो क्या खता, गर रहबर कोई

बचाए खुद को ठोकरों से?

पर नहीं, बिलकुल नहीं

मानव को यह सुहाता नहीं;

अपना घर रोशन भले ना हो

दूसरे को रास्ता दिखाना भाता…

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Added by Usha Taneja on May 4, 2013 at 5:50pm — 13 Comments

तनहाई........

दोस्तों इस मंच पर अपनी पहली रचना पोस्ट कर रहा हूँ........

गिन रहे हैं जिस तरह से आती-जाती सांस को हम......

उस तरह तुमने कभी क्या अपनी साँसों को गिना है ?…

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Added by KAVI DEEPENDRA on May 4, 2013 at 1:01pm — 10 Comments

मृत्युंजयी

मृत्युंजयी

रणभेरी बज उठी प्रिय!,

मैं मस्तक तिलक लगाऊॅ।

भारत मां को स्वतंत्र कराया,

मिलकर सोलह श्रृंगार किया।

प्यारी सद्भावना देवी को,

मैं श्रध्दा सुमन चढ़ाऊॅ।।--- रणभेरी....

देश की खातिर जिये अभी तक,

क्षमा-दान सब उत्सर्ग किया।

आ गई परीक्षा की घड़ी,

मैं शौर्य गीत ही गाऊॅ ।।--- रणभेरी...

दुनियां में अमन चैन रखने को,

सीटीबीटी बहिष्कार किया ।

परमाणु सम्पन्न देशों…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 3, 2013 at 9:54pm — 10 Comments

याद करो...

कैसे बन जाता कोई नपुंसक

कैसे हो जाती खामोश जुबान

कैसे हज़ारों सिर झुक जाते

कैसे बढते क़दम रुक जाते

 

कुंद कर दिया गया दिमाग

पथरा गई हैं संवेदनाएं

किसी साज़िश के तहत

खत्म कर दी गई हैं संभावनाएं

 

मैंने कहा साथी!

क्या हुआ कि बंद हैं राहें

गूँज रही हर-सू आहें-कराहें

क्या हुआ कि खो गई दिशाएँ

क्या हुआ कि रुक गई हवाएं

याद करो,

हमने खाई थी शपथ

विपरीत परिस्थितियों में

हम झुकेंगे…

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Added by anwar suhail on May 3, 2013 at 7:57pm — 9 Comments

कविता : परिभाषाएँ

बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती

बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत, जग को जंग, दगा को दंगा

मद को मंद, मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश, बजर को बंजर

कोई सवाल करे तो कह देना

ये बिंदु नहीं हैं

ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए

 

केवल लंबाई होती है रेखा में

चौड़ाई और मोटाई नहीं होती

खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो

कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 3, 2013 at 7:55pm — 12 Comments

दोहे (सन्दर्भ -पाक में सर्वजीत की ह्त्या)

 

सरबजीत शहीद हुए, सत्ता करे न काम   

छोड़ गया दो बेटियाँ, जो देगी अंजाम |

 

याद करो इतिहास को, और इंदिरा नाम,…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 3, 2013 at 5:30pm — 22 Comments

गज़ल: पूछने पे अगर आये तो सवाल बहूत है.

पूछने पे अगर आये तो सवाल बहूत है.

तेरे काले करतूतों की मिशाल बहूत है.


सियासत तूने जबसे गोद ली बेईमानों कों,

तब से मेरी भारत माँ, बदहाल बहूत हैं.

 

हमारी वोट से तुम नोट का बिस्तर सजाते हो,
हमारी सब्र और तुम्हारे ऐश के 5 साल बहूत है


बेबस,मजलूमों के आहों का सौदा करनेवालों,

मजबूर खामोशियों के तह में भूचाल बहूत…

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Added by Noorain Ansari on May 3, 2013 at 4:00pm — 14 Comments

इन्कलाब //कुशवाहा //

क्या है 

इन्कलाब 
नहीं जानता 
शायद आप जानते हों 
हिंदी उर्दू अरबी फारसी 
लब्ज तो नहीं 
पञ्च तत्व 
पञ्च इन्द्रियां 
पञ्च कर्म 
या 
मुर्दा कौमों की 
संजीवनी बूटी ?
बस इतना जानता हूँ 
हाथ नहीं  पंजा नही 
एक बंधी मुट्ठी 
आशाओं को समेटे हुए 
आसमान को भेदते हुए 
सीने में दफ्न 
एक…
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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2013 at 10:00am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
छत्तीस बरस की गुलाबी चुनरिया (शादी की छत्तीस्वी साल गिरह )ओ बी ओ पर १ ० ० वीं पोस्ट

                                          (फूलों से दिन का शुभारम्भ) 

फिर लहराई 

सुभागी…

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Added by rajesh kumari on May 3, 2013 at 10:00am — 35 Comments

सुनो स्त्री !

सुनो स्त्री !

पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो !

और तुम देखोगी आत्मा को देह बनते !

 

तेज हुई सांसों की लय पर थिरकती छातियाँ

प्रेम कहेंगी तुमसे -

संगीत और नृत्य के संतुलन को !

सामंजस्य जीवन कहलाता है !

(ये तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा)

सम्मोहन टूटते है अक्सर -

बर्तन फेकने की आवाजों से !

 

आँगन और छत के लिए आयातित धुप

पसार दी जाती है ,

शयनकक्ष की मेज पर !

रंगीन मेजपोश आत्ममुग्धता का कारण हो सकते है…

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Added by Arun Sri on May 3, 2013 at 9:49am — 21 Comments

कारगिल के बाद

कारगिल के बाद

वीरों ने दिया प्राणों का, बलिदान व्यर्थ न हो जाए।

हर बार घात को मात भी दी। टेढ़ी चालें कर दी सीधी।

पर हारें कूटनीतिक बाजी। करते युद्धविराम राजी राजी।।

आगे बढ़ते विजयी-कदम,  वापिस  कभी न हो पाएं।

वीरों ने दिया प्राणों का, बलिदान व्यर्थ न हो जाए।।

लालों के खून की जो लाली। करती सीमाओं की…

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Added by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on May 3, 2013 at 6:00am — 5 Comments

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