212/ 212/ 212/ 212
पास लाई हमें जाने कब दूरियाँ
ये लगे है कि मिट जाये अब दूरियाँ
चाँदनी भी है कंदील भी हाथ में
फिर भी क्यूँ रौशनी से अजब दूरियाँ
याद आती रहे आपको मेरी तो
मैं कहूँ है बहुत मुस्तहब दूरियाँ
मुझको शिकवा न तुझको शिकायत कोई
दरमियाँ क्यूँ ये फिर बेसबब दूरियाँ
मेरी अफ़्सुर्दगी को बढ़ाये बहुत …
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 8:30am — 13 Comments
हुआ है आज क्या घर में हर इक सामान बिखरा है
उधर खुश्बू पड़ी है और इधर गुलदान बिखरा है /१
मुहब्बत क्या है ये जाना मगर जाना ये मरकर ही
लिपटकर वो कफ़न से किस तरह बेजान बिखरा है /२
यहीं मैं दफ्न हूँ आ और उठाकर देख ले मिट्टी
मेरी पहचान बिखरी है मेरा अरमान बिखरा है /३
मुझे रुस्वाइयों का गम नहीं गम है तो ये गम है
लबों पर बेजुबानों के तेरा एहसान बिखरा है /४ …
ContinueAdded by Saarthi Baidyanath on January 27, 2014 at 9:30pm — 28 Comments
पीपल की छाँव में खीर खाये एक अरसा हो गया है
मन फिर से चंचल है
तुम आओगी न, सुजाता !
उसके होने न होने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ना था,
ऐसा तो नहीं कहता
लेकिन क्या वो
कोई आम, अशोक, महुआ या जामुन नहीं हो सकता…
Added by Saurabh Pandey on January 27, 2014 at 8:00pm — 31 Comments
राज आप का आप पर, पूछ रहे है लोग
नेताजी क्या आप ने,किया उचित उपयोग ?
किया उचित उपयोग,लगा क्या जन को ऐसा
जनता करती आस, दिया क्या शासन वैसा.
होती है पहिचान, भला करे जब आम का
जन का हो कल्याण, तभी है राज आप का |
(2)
सुरसा से ये फैलते, प्रचलित बहुत रिवाज
जीना कुंठित कर रहे, छोड़ न पाय समाज |
छोड़ न पाय समाज, कर्ज में निर्धन डूबे
खिलावे म्रत्यु भोज, प्रतिष्ठा के मनसूबे
स्वार्थ के वशीभूत, भोज का बाँटे पुरसा …
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 27, 2014 at 7:30pm — 13 Comments
2212 1212 1212 22
तारीक़ी फिर लगी मुझे बढ़ी चढ़ी क्यों है
सूरत में सुब्ह की बसी ये बरहमी क्यों है
क्यूँ रात शर्मशार सी है चुप खड़ी दिखती
ये सुब्ह बेज़ुबान सी , डरी हुई क्यों है
ख़ंज़र की दिल-ज़िगर से, दुश्मनी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 27, 2014 at 5:30pm — 22 Comments
आज कुन्ती के पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे | खुशी इतनी थी कि उसका मन भर-भर आ रहा था | अपने पति के प्रति अथाह आदर भाव और प्रेम तो पहले से ही था उसके हृदय में, आज वो कई गुना और बढ़ गया था | उसका दिल खुशी से धाड़-धाड़ धड़क रहा था खुशी की अधिकता के कारण वो काँप रही थी | किसी तरह वो तैयार हो कर आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारने लगी | हल्के गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी में वो कितनी जंच रही थी जो इसी विशेष अवसर के लिए पति ने खरीद कर तैयार करवाई थी | स्टूल पर बैठ कर कुन्ती सिर पर पल्लू रख कर अपनी मांग में…
ContinueAdded by Meena Pathak on January 27, 2014 at 2:30pm — 34 Comments
दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का योगदान है
गंध भी होती है पसीने में
हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर
धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 27, 2014 at 7:28am — 24 Comments
हर नुक्कड़, चौराहे पर गणतन्त्र कराहता है
“किन्तु परंतु के भँवर में घुमंतू समाज”
‘’वसुधैव कुटुंबकम’’ मूलमंत्र की प्राप्ति की पहली सीढ़ी शिक्षा ही है जिसको हासिल कर कोई भी देश अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। हमने अपने महापुरुषों के बलिदान से आज़ादी का सपना पूरा कर लिया, उस आज़ादी का सूरज निकले अरसा बीत चुका, ढंग से जीने का मौका अधिकार भी मिला, दुनिया के साथ अपना देश भी…
ContinueAdded by DR. HIRDESH CHAUDHARY on January 26, 2014 at 11:00pm — 9 Comments
तुम कोमल कमसिन लता नवीन और विजन में खड़ा विटप मैं ।
चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।
वात झूमती चलती जब भी, मौन मेरा भी वाणी पाता ।
लेकिन इसका लाभ कहो क्या, कौन विजन में गुनने आता ।
भाग में मेरे लिखा दिवाकर, तरस तनिक जो कभी न खाता ।
तूफानों से हुआ जो नाता, गिरने का भय डँसता जाता ।
निभर्य स्नेहिल जीवन जी लूँगा, मुझसे यदि नाता जोड़ो ।
चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।
मेरे सूने जीवन की…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2014 at 8:46pm — 19 Comments
हमेशा खुशमिजाज रहने वाली माँ को आज गंभीर मुद्रा में देखकर मैनें कारण जानना चाहा तो वो बोली- बेटा तुम भाइयों में सबसे बड़े हो इसलिय तुमसे एक बात करना चाहती हूँ| हाँ-हाँ बोलो माँ मैनें उत्सुकता पूर्वक जानना चाहा|माँ ने दबी आवाज़ में कहना प्रारंभ किया-बेटा तुम्हारा अपना मकान लखनऊ में और बीच वाले का वाराणसी मे बना गया है किंतु तुम्हारा तीसरा भाई जो सबसे छोटा है उसका न तो अपना मकान है और न वो बनवा पायगा कियोंकि वो कम किढ़ा लिखा होंने के कारण अछी नौकरी न पा सका|तो क्या हुआ माँ ये आप और बाबूजी का…
ContinueAdded by NEERAJ KHARE on January 26, 2014 at 8:30pm — 12 Comments
एक आंधी सी उठे है अन्दर
एक बिजली सी कड़क जाती है
एक झोंका भिगा गया तन-मन
इस बियाबां में यूँ ही तनहा मैं
कब से रह ताक रहा हूँ उसकी...
वो जो बौछार से टकराते हुए
एक छतरी का आसरा लेकर
इक मसीहा सा बन के आता है
मुझको भींगने से बचाता है...
हाँ...ये सच है बारहा उसने
मेरे दुःख की घडी में मुझको
राहतें दीं हैं....चाहतें दीं हैं....
और हर बार आदतन उसको
सुख के लम्हों में भूल जाता हूँ
वो मुझे दुवाओं में…
Added by anwar suhail on January 26, 2014 at 6:30pm — 5 Comments
221 2122 221 2122
शब्दों में पत्थरों को भर मारने की आदत
यूँ बेवजह तुम्हे ठोकर मारने की आदत
हमने मुहब्बतों में झेले सितम हज़ारों
दीवार पे हमें है सर मारने की आदत
ईमानो हक की बातें हैं करते आज वे ही
जिनको है भीड़ में छुप कर मारने की आदत
हालात दर्द को पैहम यूँ बढ़ाये उसपे
ऐ हुक्मराँ तेरी नश्तर मारने की आदत
उड़ना जिन्हे है वो उड़ ही जाते हैं परिन्दे
उनको नही ज़मीं पे पर मारने की…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 26, 2014 at 3:30pm — 26 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on January 26, 2014 at 2:48pm — 8 Comments
अनकही सी अनसुनी सी इक ज़ुरूरी बात थी ।
कह के भी कह ना सके कोई अधूरी बात थी ।
बोलने कि हद पे था प्यार का शैलाब पर ,
ना बोलने की ज़िद पे भी इक गुरुरी बात थी ।
कोशिशें तो की बहुत इज़हारे उल्फत की मगर ,
लफ़्ज़ों में ना आ सकी दिल की पूरी बात थी ।
एकटक देखा उन्हें तो देखता ही रह गया ,
चाँद से चेहरे पे उनके कोहिनूरी बात थी ।
प्यार की खामोशियों में रंग भरने के लिए ,
उन लबों की लालियों में एक सिन्दूरी बात थी…
Added by Neeraj Nishchal on January 26, 2014 at 2:30pm — 7 Comments
परिचित अपरिचय
गीले भाव, भीगे गाल, स्वप्न रूआँसे
विवेकी-अविवेकी कोषों में बसे
सूक्षमातिसूक्षम खयाल मेरे
रातों तिलमिलाते, क्यूँ ?
गुँथे खयालों से तुम्हारे
अभी बिंधे तुमसे, अभी उलझे मुझमें
सूर्य की किरणों का उल्लास बटोरती
अकेले-अकेले में अपने से सहजतम
तुम भी तो बातें करती नहीं थकती थीं
खयालों की धारा-गति अनचीन्ही
सोच-सोच कर मुझको पगली-सी हँसती ..
आँचल की लहरीली सलवटें शरमा…
ContinueAdded by vijay nikore on January 26, 2014 at 11:30am — 12 Comments
मिली हमें स्वतन्त्रता, अनंत शीश दान से।
निशान तीन रंग का, तना रहे गुमान से।
प्रतीक रंग केसरी, जुनून, जोश, क्रांति का,
दिखा रहा सुमार्ग है, सफ़ेद विश्व शांति का।
रुको न चक्र बोलता, सिखा रहा हमें…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on January 26, 2014 at 9:42am — 8 Comments
"ऐ मीनरी !! जा जरा पानी तो ले के आ , उफ़ गर्मी भी कितनी हो रही हैं अभी ब्लाक में एक मीटिंग में जाना हैं बेटी बचाओ अभियान की शुरुआत हैं आज वहां "
"इत्ती देर लगे क्या पानी लाने में !! एक तो भगवान् ने मेरी किस्मत में तीन तीन छोरिया लिख दी " ऊपर से सारा दिन किताबो में घुसी रहती है यह नही की घर का कम काज सीखे कलक्टर बनके सर पे नाचने के सपने देख रही ! " राना जी झल्लाते हुए जोर से चिल्लाये और पत्नी डर के मारे पानी का गिलास लिए उनके सामने पल्लू मुह में दबाये आन खड़ी हुयी .. क्या हैं यह !!! हैं !!…
Added by Priyanka singh on January 25, 2014 at 10:19pm — 34 Comments
Added by shubhra sharma on January 25, 2014 at 5:23pm — 8 Comments
हो गये जो निछावर वतन के लिए ,
याद करने की उनको घड़ी आ गयी ।
आज का दिन मनायें उन्हीं के लिए ,
कहने गणतंत्र कि नव सदी आ गयी ।
ये वीरों की धरती हमारा वतन ।
आकाश भी जिसको करता नमन ।
गाँधी नेहरू की जीवन कहानी है ये ।
नेता जी की तो सारी जवानी है ये ।
ऐसे आज़ाद भारत के वासी हैं हम ,
बात मन में यही फक्र की आ गयी ।
लाल हो जिनके कपड़े कफ़न हो गये ।
जो हिमालय कि हिम में दफ़न हो गये ।
मर के भी दुश्मनों को न बढ़ने…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on January 25, 2014 at 3:30pm — 16 Comments
शाख पर लगा
अलौकिक सौंदर्य पर इतराता
वसुधा को मुंह चिढ़ाता
मुसकुराता इठलाता
मस्त बयार मे कुलांचे भरता
गर्वीला पुष्प !..........
सहसा !!!
कपि अनुकंपा से
धराशायी हुआ
कण कण बिखरा
अस्तित्व ढूँढता
उसी धरा पर
भटकता यहाँ से वहाँ
उसी वसुधा की गोद मे समा जाने को आतुर ...
बेचारा पुष्प !!!
अप्रकाशित एवं मौलिक
Added by annapurna bajpai on January 25, 2014 at 10:30am — 21 Comments
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