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March 2015 Blog Posts (229)

ग़ज़ल -- " कहूँ कुछ और कुछ निकले ज़ुबाँ से "

1222-1222-122



'कहूँ कुछ और कुछ निकले ज़ुबाँ से'

बहुत आजिज़ मैं अपने जिस्म-ओ-जाँ से



उठी आवाज़ शब की रूह-ए-खाँ से

दिनेश अब झाँक बामे आसमाँ से



निखरती शख़्सियत है इम्तिहाँ से

कहे ये रहगुज़र हर कारवाँ से



मुक़र्रर आपका जब फ़ैसला है

तो फिर क्या फ़ाइदा मेरे बयाँ से



सरे महफ़िल तुम्हें रुसवा करेगा

नहीं करना अदावत राज़दाँ से



सितारे चाँद सूरज और जुगनू

सभी का नूर उस नूरेजहाँ से



अँधेरा फिर न टिकता एक पल… Continue

Added by दिनेश कुमार on March 24, 2015 at 8:03pm — 9 Comments

पिया मिलन की आस

मन वीणा के झनके तार ,

पिया मिलन की आई रात |

सकुचाती , इठलाती पहुँची द्वार ,

पिया मिलन की मन में आस ||

उनके रंग में रंग जाऊँगी ,

दूजा रंग न मन भाऊँगी |

अधरों पर अधरों की लाली ,

खिल मन में इठलाऊँगी ||

आज रति ने छेड़ी मधुतान ,

पिया मिलन की मन में आस ||

गलबाहों का हार पहनाकर ,

मंद – मंद मुसकाऊँगी |

श्वासों की मणियों से ,

भावों को खूब सजाऊँगी ||

आज आया जीवन में मधुमास ,

पिया…

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Added by ANJU MISHRA on March 24, 2015 at 5:33pm — 10 Comments

सुखदा सदा सरस्वती (वृत्यानुप्रास /छेकानुप्रास)

(यहाँ प्रति दोहे में वृत्यानुप्रास है किन्तु सम्पुर्ण रचना में छेकानुप्रास है  अंतर यह है की वृत्यानुप्रास में एक ही वर्ण की पुनरावृत्ति होती है जबकि छेका में अनेक वर्णों  की )

 

गा-गाकर गौरव गिरा गरिमामय गन्धर्व

गीर्वाण गुरु, गीतिमय , गान-ज्ञान गुण गर्व I

 भक्त भगवती भारती भूरि भावमय भव्य

भावशवलता, भ्रान्तिता भ्रमित भनिति भवितव्य I 

 

वीणापाणि वरानना  वरे विदुष विद्वान

वाणी-वाणी वत्सला  वर्ण-वर्ण वरदान I

 

शुभ्र…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 24, 2015 at 11:00am — 31 Comments

कहूं मरहम इसे या खंजरों का वार ही समझूं

१२२२     १२२२     १२२२  १२२२

इशारों को शरारत ही कहूं या प्यार ही समझूं 

कहूं मरहम इसे या खंजरों का वार ही समझूं 

कशिश बातों में तेरी अब अजब सी मुझ को लगती है 

तेरी बातों को बातें ही या फिर इकरार ही समझूं 

वो डर के भेडियों से आज मेरे पास आये हैं 

कहूं हालात इसको या कि मैं ऐतवार ही समझूं 

तेरी नजरों ने कैसी आग सीने में लगाई है 

तुझे कातिल कहूं मैं या इसे उपकार ही समझूं 

पड़े ओंठों पे ताले पलकें उठती…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on March 24, 2015 at 10:00am — 22 Comments

इच्छायें और चाहतें -- डॉo विजय शंकर

चाहतें इतनी ,

ये मिल जाता ,

वो मिल जाता ,

जो चाहा वो मिल जाता ,

कितना अच्छा हो जाता ।

चाहतें ही चाहतें

इच्छाओं की क्या कहें ,

पनपती ही नहीं ,

चाहतें हैं कि कम होती ही नहीं ,

इच्छायें है कि जनम लेतीं ही नहीं ,

इच्छा को इच्छा - शक्ति चाहिये ,

तभी फलीभूत होती है ,

चाहतें स्वयं सशक्त होती हैं।

बढ़ती हैं, अपने आप ,

देख के दूसरों को बढ़ती हैं ,

इच्छाएं नहीं बढ़ती हैं ,

स्वयं तो बिकुल नहीं ,

इच्छा को वहां भी शक्ति… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 24, 2015 at 9:31am — 16 Comments

गुल ........'इंतज़ार'

गुल से है परेशां गुलिस्तां सारा

भंवरे से दिल लगाने की ज़िद उसकी नहीं गवारा

मगर गुल जानता है कि आज काँटों का साथ

फिर माली के हाथों किसी अंजान के साथ

गुलशन से बिदाई का मसला है सारा 



बिछुड़ने का फिक्र नहीं उसको

कल का क्या.... आज तो जी लेने दो उसको

काट शाख़ से सब सूंघेंगे एक दिन

फिर अगले दिन मसल डालेंगे ये उसको

भंवरा तो रोज़ आ कर चूमता है

मंडराता है चारो तरफ लुभाता है उसको

अपनी गुंजन के गीत सुनाता है

और सुबह फिर मिलने का वादा दे जाता…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 24, 2015 at 8:16am — 10 Comments

कहीं दूर निकल जाएँगे : हरि प्रकाश दुबे

दो विदाई, अब तो कहीं दूर निकल जाएँगे ,

अब तो ये गीत कहीं और जा के गाएँगे !

आदमी कुछ भी नहीं, एक एहसास तो है,

शुन्य जैसा ही सही, एक आकाश तो है !  

टूटा बिखरा हो कहीं, एक विश्वास तो है,

इस हक़ीकत को हम ,अब न भुला पायेंगे !

दो विदाई, अब तो कहीं दूर निकल जाएँगे ,

अब तो ये गीत कहीं और जा के गाएँगे !!  

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित

Added by Hari Prakash Dubey on March 24, 2015 at 2:57am — 14 Comments

ग़ज़ल - खबर बन गयी

२१२ २१२ २१२ २१२

ज़िंदगी किस कदर इक सफ़र बन गयी

अनलिखी ये कहानी खबर बन गयी

 

बात छोटी सही सबके मुह जो चढ़ी

बात खींची गयी फिर रबर बन गयी

 

राह चलते हुये बज उठी सीटियाँ

सादगी कामिनी की ज़हर बन गयी

 

बेवफाई मिली आग दिल में जली

बेअदब आज मेरी नज़र बन गयी

 

चाह हमने रखी रोशनी की अगर

आरज़ू ही हमारी कबर बन गयी

 

ईश्क की इक नज़र कैद में जो मिली

हथकड़ी टूटकर इक तबर बन…

Continue

Added by Nidhi Agrawal on March 23, 2015 at 1:00pm — 14 Comments

हीरा हूँ ........'इंतज़ार'

हर हीरा किसी हसीना के
गले का हार नहीं बनता !
हर हसीना के गले को
हीरों का हार नहीं मिलता !

कई हीरे ज़मी में दबे रहते हैं
कोयलों की गोद में
सोये पड़े रहते हैं !
उनको तराशने वालों का
औजार नहीं मिलता !

न कमी हसीना के हुस्न में है
न हीरों की गुणवत्ता में !
बस किस्मत के खेल हैं सारे
किसी को वोह मिल जाते हैं
और हमें प्यार नहीं मिलता !!

***************************

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 23, 2015 at 12:42pm — 15 Comments

चलते चलते ……

चलते चलते ……

1.

एक कतरा

देर तक

बहते बहते

कपोल पर ही सो गया

शायद

अभी इंतज़ार बाकी था

2.

ये अलस्सुब्ह

किसकी नमी को छूकर

बादे सबा आई है

खुली पलक का

कोई ख़्वाब

सिसकता रह गया शायद

3.

तेरे हर वादे पे

यकीं करता रहा

पर तुझे यकीं न आया

मैं हर लम्हा तुझपे

सौ सौ बार मरता रहा

मेरी मौत को भी तूने

मेरी नींद समझा

नज़र भर के भी तूने

न देखा मुझको …

Continue

Added by Sushil Sarna on March 23, 2015 at 12:30pm — 28 Comments

उमर तनहा गुजर जाये सहारा ढूढते जग में ,

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ - हजज मुसम्मन सालिम
चमन में फूल खिलते हैं खुशी का राज होता है |
ख़ुशी में झूमते  भौंरे  मजे  से  काज होता है |
खिले जब फूल डाली में नजारा ही बदल जाये…
Continue

Added by Shyam Narain Verma on March 23, 2015 at 12:15pm — 12 Comments

ग़ज़ल : ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

 

ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर

 

घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले

जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर

 

जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे

मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर

 

पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में

मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर

 

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ

आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 23, 2015 at 11:54am — 22 Comments

गौरैया खुश थी

गौरैया

खुश थी

चोंच मे सतरंगी सपने लिये

आसमान मे उड रही थी

उधर,

गिद्ध भी खुश था

गौरैया को देखकर

उसने अपनी पैनी नजरे गडा दी

मासूम गौरैया पे,

और दबोचना चाहा अपने खूनी पंजे मे

गौरैया, घबरा के भागी पर कितना भाग पाती ??

आखिर,

गिद्ध के पंजे मे आ ही गयी

गौरैया फडफडा रही थी, रो रही थी

गिद्ध खुश था अपना शिकार पा के

कुछ देर बाद

गौरैया अपने नुचे और टूटे पंखों के साथ

लहूलुहान जमीं पे पडी…

Continue

Added by MUKESH SRIVASTAVA on March 23, 2015 at 11:30am — 9 Comments

ग़ज़ल---तू आज नहीं आयी तो जान ये जानी है

221 1222 221 1222



तू आज नहीं आयी तो जान ये जानी है

मैं रोज कहूँ ऐसा ये बात पुरानी है

......

कुछ वादे तेरे झूठे कुछ तोड दिये मैंने

ये कैसी मुहब्बत है ये कैसी कहानी है

...

बस चाँद सितारे हैं जो साथ जगे मेरे 

उनके ही सहारे से अब याद भुलानी है

..

जिस रोज उतर जाये उस रोज चले आना

कुछ दिन ही चलेगा बस ये जोश जवानी है

....

सच यार कहूँ दिल से हैं  बात ये सब झूठी

तेरा मैं  दिवाना हूँ तू मेरी दिवानी है

--------------…

Continue

Added by umesh katara on March 23, 2015 at 9:30am — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- बूँद भी नहीं मिलती...... (मिथिलेश वामनकर)

212---1222---212---1222

 

धूप भी नहीं मिलती छाँव भी नहीं मिलती

ताकतों के साए में ज़िन्दगी नहीं मिलती

 

ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2015 at 9:17am — 38 Comments

समय....(लघुकथा)

“अरे!! भाई.. दोनों में से एक बैल तो अभी दांत वाला है, ठीक से कीमत बता. फिर बिना दांत वाला वैसे ही लेजा, उसका क्या करूँगा मैं..? आखिर खली-भूसा भी महंगा पड़ता है..”

“पटेल भैया .. दांत वाले की ही कीमत है, बुढ्ढे बैल को मुझ से भी कौन खरीदेगा..? यहीं खूंटे भी ही मरने दो..”

नजदीक ही पटेल भैया के बीमार पिता, चारपाई पर पड़े सारी बातें सुन रहे थे...

 

  जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व् अप्रकाशित)

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on March 22, 2015 at 9:21pm — 28 Comments

दीवारों में दरारें-4

दीवारों में दरारें-4

मीना का घर रामनवमी के दिन

“मीना,भोग तैयार है |- - - जाS ,लडकियों को बुला ला|”

“जी मम्मी |”

“अरी मीना,यूँ सुबह-सुबह कहाँ चली ?” चौखट पर बैठे अख़बार पढ़ रहे दादा जी ने उसकी तरफ देखते हुए पूछा   

“भोग लगाने के लिए कन्याओं को बुलाने |”मीना ने धीमी आवाज़ में कहा

“अच्छा-अच्छा,जा जल्दी जा,पड़ोस में छोटी लड़कियाँ वैसे ही कम हैं अगर दूसरे लोग उनके घर पहले चले गए तो हमें ईंतज़ार करना पड़ेगा |”

“जी,दादा जी |”कहकर वो…

Continue

Added by somesh kumar on March 22, 2015 at 9:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल -- हमसफ़र निकलते हैं .. (बराए इस्लाह)

212-1222-212-1222



ख़्वाब मेरी आँखों से रात भर निकलते हैं

रहगुज़र नहीं आसाँ बा ख़बर निकलते हैं



बेचने ज़मीर अपना हम चले हैं गलियों में

देखो खिड़कियों से अब कितने सर निकलते हैं



नातवाँ बहादुर को दे रहा चुनौती है

चींटियों के भी अब तो बाल-ओ-पर निकलते हैं



दिल हमारा आईना आप हैं खरे पत्थर

बज़्म आपकी और हम टूट कर निकलते हैं



मैक़दे कहाँ करते, फ़र्क रिन्दो-वाइज़ का

जो भी पीते हैं मदिरा झूम कर निकलते हैं



बिन किसी विभीषण के… Continue

Added by दिनेश कुमार on March 22, 2015 at 8:00pm — 23 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इक मुसाफिर राह में सिन्दूर से नहला गया (ग़ज़ल "राज")

2122  2122  2122  212

मोतियों को गूंथकर धागा सदा हँसता गया

जंग खाये रास्तों को कांरवाँ चमका गया

 

ओस से भीगे बदन पर थी नजर खुर्शीद की

प्यास उसकी खुद बुझाकर फूल इक खिलता गया

 

बन गये अफ़साने कितने और नगमें जी उठे 

जब जमीं ने सर उठाया आसमां झुकता गया

 

कहकशाँ में यूँ नहाई चाँदनी जल्वानशीं

नूर उसका देखकर महताब भी पथरा गया

 

हुस्न की मलिका कली की देख वो अँगड़ाइयां  

चूम कर  रुख्सार उसके दफअतन भँवरा…

Continue

Added by rajesh kumari on March 22, 2015 at 6:30pm — 24 Comments

आत्म मुग्धता--

नया बना भवन अपने रूप और बनावट पर मुग्ध हो रहा था | तभी अंदर से ईंट ने आवाज़ दी " क्यों इतने आत्ममुग्ध दिख रहे हो , रूपवान तो हम भी हैं "|

" हुँह , तुम्हारा रूप किसे दिखता है , सब तो मुझे ही देखते हैं ", भवन ने इतराते हुए कहा |

छड़ ने , कंक्रीट ने भी यही बात दुहरायी , भवन ने वैसे ही जवाब दिया |

ईंट बोली गर मैं हट जाऊं ? कंक्रीट बोला मैं पकड़ ढीली कर दूँ ? छड ने कहा मैं टेढ़ी हो लटक जाऊं?

भवन थोड़ा सोच में पड़ गया |

" तुम इसलिए खूबसूरत दिख रहे हो क्योंकि तुममे हमने अपनी खूबसूरती…

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Added by विनय कुमार on March 22, 2015 at 12:18am — 26 Comments

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