2122 1122 1122 22 (112)
लोग मिलते नहीं रिश्तो को निभाने वाले
बीच मँझधार में कश्ती को बचाने वाले ||१||
कौन कीमत समझते हैं किसी की खुशियों की
लोग मिलते हैं यहाँ ख्वाब चुराने वाले ||२||
जानते हैं मगर इस दिल को कैसे समझायें
लौट के आते नहीं छोड़ के जाने वाले ||३||
आँख में हो अना बाक़ी यही तो दौलत है
हाँ मगर देखे हैं कागज को कमाने वाले ||४||
ज़िन्दगी भर हमे रखते रहे अंधेरों मे॥
रोज तुरबत पे आके शमआ जलाने वाले॥…
Added by Rama Verma on March 18, 2016 at 4:00pm — 7 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on March 18, 2016 at 8:10am — 3 Comments
रंगो का त्योहार है होली आओ मिलकर खेले
भेद भाव सब दूर भगाकर आओ होली खेले ॥
जो अपने भूले भटके हैं
धर्म दीवारों से बिछड़े हैं
और दूर देश में अटके हैं
कड़वी पर यह सच्चाई है
एक प्यार भरा संदेशा है
यह आज सुनहरा मौका है
रंगो का त्योहार है होली आओ मिलकर खेले
भेद भाव सब दूर भगाकर आओ होली खेले ॥
दुख सुख का यह जीवन है
यहाँ मिलकर सबको रहना है
हमें जीवन बाधा से लड़ना है
दुश्मन से देश को बचाना है
हमें मिलकर आगे…
ContinueAdded by Ram Ashery on March 18, 2016 at 8:00am — 1 Comment
Added by नयना(आरती)कानिटकर on March 17, 2016 at 11:30pm — 12 Comments
"वो सफर लगातार चलता ही रहा.....
वो रस्ते बस आगे, और आगे ही बढ़ते रहे।
मैं कभी ज़मीन पर तो कभी आसमान पर,
दिन भर बुने अपने ख़ाबों की लड़ी सजती रही।
अपने ही वजूद को कभी बच्चों में, कभी घर की दीवारों में,
तो कभी उनकी आँखों में तलाशती रही.......
जानती हूँ सब हैं मेरे, पर.... फिर भी,
मैं अपने ख़ाबों के साथ अकेली सफर तय करती रही।
और ये आस ये उम्मीद बांधती रही कि,
मेरे अस्तित्व से निरंतर झरती जीवन धारा को
ये समाज आज नहीं तो कल सहृदय अपनायेगा।…
Added by Monika Jain on March 17, 2016 at 6:30pm — 3 Comments
शाम का धुंधलका फ़ैल रहा था, वह गाड़ी में पीछे बैठी थी, रोज़ की तरह रास्ते में वही मकान आने वाला था, उसका दिल घबराना शुरू हो गया, उसने अपना एक हाथ दूसरे हाथ से थाम लिया और मन ही मन बुदबुदाने लगी, "ये भेड़िये क्यों अँधेरी रातें खत्म नहीं होने देते?"
उसने आँखें बंद करने को सोचा ही था कि वो मकान आ ही गया और गाड़ी उस मकान को पार करने लगी, आज उसकी आँखों ने बंद होने से इनकार कर दिया|
उसने देखा मकान के मुख्य द्वार पर उसके शिक्षक के नाम की तख्ती थी, जिससे वो पढने जाती थी,…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 17, 2016 at 4:30pm — 6 Comments
२१२ २१२ २१२ २१२
झूठ मिटता गया देखते देखते
सच नुमायाँ हुआ देखते देखते
तेरी तस्वीर तुझ से भी बेहतर लगी
कैसा जादू हुआ देखते देखते
तार दाँतों में कल तक लगाती थी जो
बन गई अप्सरा देखते देखते
झुर्रियाँ मेरे चेहरे की बढने लगीं
ये मुआँ आईना देखते देखते
वो दिखाने पे आए जो अपनी अदा
हो गया रतजगा देखते देखते
शे’र उनपर हुआ तो मैं माँ बन गया
बन गईं वो पिता देखते…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2016 at 7:45pm — 20 Comments
1222 1222 1222 1222
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जिसे राणा सा होना था वो जाफर बन गया यारो
सियासत करके गड्ढा भी समंदर बन गया यारो ।1।
हमारी सीख कच्ची थी या उसका रक्त ऐसा था
पढ़ाया पाठ गौतम का सिकंदर बन गया यारो ।2।
करप्सन और आरक्षण का रूतबा देखिए ऐसा
फिसड्डी था जो कक्षा में वो अफसर बन गया यारो ।3।
तरक्की है कि बर्बादी जरा सोचो नए युग की
जहाँ बहती नदी थी इक वहाँ घर बन गया यारो ।4।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 16, 2016 at 10:48am — 18 Comments
Added by योगराज प्रभाकर on March 16, 2016 at 10:30am — 22 Comments
Added by रामबली गुप्ता on March 15, 2016 at 8:42pm — 4 Comments
Added by रामबली गुप्ता on March 15, 2016 at 7:39pm — 5 Comments
हमको खबर है कितने, हम बेखबर हो गए
अपने ही घर से कितने बाशिंदे बेघर हो गए
जब हम एक थे तो सारा शहर एक था
जो राहें हुईं अलग हमारी तो सब कुछ बंट गया
और अब तो आलम ये है कि ये सारा शहर दो खेमों में बंट चुका है
आधे इधर हो गए आधे उधर हो गए
अपने ही घर से कितने बाशिंदे बेघर हो गए-2
हर महफिल में सन्नाटा है हर शै सूनी हो गई है
मंज़िल खोती जाती है राहें दूनी हो गई हैं
सदमे में हर कोई यहॉँ सदमे में उधर भी हैं
लफ़्ज़ शोला उगलते हैं आँखें खूनी हो गई…
Added by Ashish Painuly on March 15, 2016 at 6:30pm — 2 Comments
“तुम साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती, विमला की माँईं, तुम्हे शादी करवानी भी है या नहीं? एक से एक रिश्ते बताये तुमको... तुम हो कि किसी के कान छोटे, किसी के होठ मोटे बता रिश्ते ठुकराती ही चली जा रही हो!” वामन काकी के सब्र का बाँध टूट गया था आज तो. “पूरे गाँव के रिश्ते करवाएं हैं मैंने. कोई कह तो दे किसी की भी बिटिया अपने घर में सुख से ना है, या किसी भी घर में बेमेल बहू आई है आज तक.”
“ना, ना, काकी, तुम तो बेकार में लाल-पीली हो रही हो. मेरा वो मतलब ना था,” ठकुराइन मक्खन सी नरमी आवाज़ में लाकर बोली.…
Added by Seema Singh on March 15, 2016 at 6:00pm — 8 Comments
22 22 22 22
खंजर या तलवार नहीं हूँ
मैं घातक हथियार नहीं हूँ
अपनी शर्तों पर जीती हूँ
क्यूँ कहते खुद्दार नहीं हूँ
मैं नदिया की शीतल धारा
जलता सा अंगार नहीं हूँ
ईश्वर की अनमोल कृति हूँ
औरत हूँ लाचार नहीं हूँ
उज्जवल रश्मि हूँ सूरज की
रातों का अंधियार नहीं हूँ
स्वाभिमान मुझे है प्यारा
मैं दुनिया में भार नहीं हूँ
मुझसे ही परिवार है…
ContinueAdded by Rama Verma on March 15, 2016 at 5:30pm — 11 Comments
" पापा मुझे कुछ रूपये चाहिए " ड्यूटी पर निकलने को तैयार भँवरलाल , बेटे की आवाज पर चौंक उठे ।
" कितने बार कहा , ड्यूटी पर जाते वक्त मत टोका करो , अभी तो दिये थे पिछले हफ्ते दस हजार ,उसका क्या हुआ ? "
" दस हजार से होता क्या है पापा ! सारे खर्च हो गये " नजरें चुराते हुए उसने कहा ,तो भँवरलाल ठठा कर हँस पड़े ।
" बता कितना चाहिए ? " जेब में पर्स टटोलते हुए पूछा ।
" सिर्फ चालिस हजार "
" क्या ,इतने सारे रूपये ! कौन सा ऐसा काम आन पड़ा ? "
" उससे आपको मतलब नहीं , बस आपको देना ही…
Added by kanta roy on March 15, 2016 at 4:00pm — 13 Comments
पकी फसल पर असमय बरसात और ओलों के कहर ने किसानों के पेट और कमर पर जो लात मारी थी। उसी का सर्वे चल रहा था। कौन किस हद तक घायल है उसी हिसाब से मुआवजा मिलना था। सो,दो सरकारी मुलाजिम एक पुरवा से दूसरे पुरवा जा जाकर कागज़ रंग रहे थे।
"भाग यहाँ से साsssले, यहाँ आया तो तेरी खैर नहीं। हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की? तेरा मन नहीं भरा मेरे बाल बच्चे खा कर? और कितनों को खायेगा?आ..ले,खाले...सब को खाजा..आजा,आ के दिखा तुझे अभी मजा चखाता हूं"कह कर वो अंधाधुंध पत्थर मारने लगा। उसकी विक्षिप्त सी हालत देख…
Added by Rahila on March 15, 2016 at 1:30pm — 31 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on March 15, 2016 at 12:41pm — 8 Comments
1222 1222 1222 1222
न जाने बे खयाली में हुआ है क्या बुरा मुझसे
हवादिस पूछने आते हैं अब मेरा पता मुझसे
मुहब्बत हो कि नफरत हो , झिझक कैसी है कहते अब
हया कैसी है डर कैसा , बयाँ कर दे, जता मुझसे
अगर इनआम देना है , कहीं से भी शुरू कर तू
सजा का वक़्त गर आये तो फिर कर इब्तिदा मुझसे
न कह मुझसे जलाऊँ मै चरागों को कहाँ, कैसे
जलाऊँगा , अभी ठहरो , मुख़ालिफ़ है हवा मुझसे
समझ पाते तो अच्छा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 15, 2016 at 10:49am — 5 Comments
नीलामी में चित्र उस व्यक्ति ने खरीद ही लिया, उस चित्र का सौन्दर्य ही कुछ ऐसा था कि उसकी नीलामी में देश के कई बड़े नेता, उद्योगपति, शिक्षाविद, कलाकार, लेखक और बुद्धिजीवी आये थे|
उसने धन देकर चित्र हाथ में लिया और देखा| एक हरे-भरे बगीचे की आकृति देश के मानचित्र के समान थी, बगीचे में एक हाथ में पुस्तक लिए कुछ शिक्षाविद थे, एक हाथ में सफ़ेद झंडे फहराते कुछ बच्चे थे, कुछ उद्योग थे जिनकी गगनचुम्बी चिमनियाँ थी, कुछ धनवान धन बाँट रहे थे, आकाश में सूर्योदय के केसरिया-नारंगी रंग की छटा बिखरी हुई…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 15, 2016 at 9:30am — 1 Comment
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 14, 2016 at 10:30pm — 2 Comments
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