(प्रवास पर होने के कारण तरही मुशायरा अंक ३५ की ग़ज़ल यहाँ पेश कर रही हूँ )
आज जिस हाल में खुदा लाया
वक्त सपने वहीँ सजा लाया
रात सपने हसीन लाती है
दिन बुलाकर करीब क्या लाया
चाँदनी से सितारे रूठेंगे
चाँद दिल रात का चुरा लाया
तुम मिलोगे हजार कोशिश की
फिर हमें आज वास्ता लाया
जाते- जाते यही कहा उसने
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया
मोड़ जिसपर जुदा हुए थे हम
फिर वहीँ आज…
ContinueAdded by rajesh kumari on May 22, 2013 at 11:00am — 18 Comments
काल अग्नि युक्त है तृतीय नेत्र और शम्भु
कन्ठ कालकूट युक्त आपका बना हुआ
और माल भी भुजंग ही बने हुए अनेक
दंग हूँ शिवत्व किन्तु आपका घना हुआ
बाँटते रहे प्रसाद आप भक्त के निमित्त
सोम वृष्टि से कृतार्थ मुक्त-वेदना हुआ
आशुतोष भक्ति ध्यान में रहूँ रमा सदैव
और भाल स्वाभिमान से रहे तना हुआ
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 22, 2013 at 10:47am — 8 Comments
सुधि पाठकगण,
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ई-पत्रिका “प्रयास” का चतुर्थ अंक ’माँ’ विशेषांक के रूप में विश्व की कोटि-कोटि माओं को पूरे आदर के साथ समर्पित है। हमें पूरा विश्वास है कि समस्त हिंदी प्रेमियों को यह अंक पसंद आयेगा।
आप इस अंक को www.vishvahindisansthan.com/prayas4 पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। पेज को बड़ा-छोटा करने की सुविधा पेज पर ही उपलब्ध है। पेज की बायीं तरफ़ नीचे एक + चिन्ह वाला लैंस है, उस पर क्लिक करेंगे तो पेज/फ़ांट…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on May 22, 2013 at 7:55am — 2 Comments
मई का महीना, जेठ की दुपहरी
पारा जब चालीस से पैन्तालीश के बीच रहता है
धरती जलती और सूरज तपता है.
एक दिहारी मजदूर बिजली के टावर पर
जूते दस्ताने और हेलमेट पहन
क्या खटाखट चढ़ता है.
सेफ्टी बेल्ट के एक हुक को
ऊपर के पट्टी में फंसाता
दूसरे हुक को खोलता,
ऊपर और ऊपर चढ़ता है
"अरे क्या सूर्य से टकराएगा?
सम्पाती की तरह खुद को झुलसायेगा ?"
वह मुस्कुराता
अपने साथियों को इशारे से…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on May 22, 2013 at 4:30am — 10 Comments
जब नयन गुनगुना हो गया
तो सृजन गुनगुना हो गया
रूप की धूप में बैठकर
ये बदन गुनगुना हो गया
तेरी यादों की भट्ठी जली
मेरा मन गुनगुना हो गया
उसने डुबकी लगाई कहीं
आचमन गुनगुना हो गया
नर्म होंठों पे जुंबिश हुई
हरिभजन गुनगुना हो गया
थामकर हाथ हम चल पड़े
पर्यटन गुनगुना हो गया
उनके आने की आहट हुई
अंजुमन गुनगुना हो गया
साँस ने साँस को आग…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 22, 2013 at 1:33am — 4 Comments
बस इतनी थी
खता हमारी
कि थोड़ा
जीना चाहा
कॉफी के
हर घूंट में हमने
कितना कुछ
पीना चाहा
मगर बेहया
इन रातों को
इतना भी
मंजूर न था
पलट हंसा
सारे प्रश्नों को
जब उत्तर कुछ
दूर ना था
और छपे तब
कितने किस्से
चेहरे के
अखबार में
समझ चुका था
गहन दहन ही
मिलता इस
संसार में
बस इतनी थी
ख़ता हमारी
कि…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on May 21, 2013 at 1:11pm — 7 Comments
सूर्य देवा, लाँघना कुछ सोचकर,
इस गाँव की चौखट।
बढ़ रहे तेवर तुम्हारे,
सिर चढ़े वैसाख में।
भू हुई बंजर चला जल,
भाप बन आकाश में।
देव! है स्वागत तुम्हारा,
ध्यान हो लेकिन हमारा,
बाँध लेना प्रथम अपनी आग सी,
किरणों की बिखरी लट।
मौन हैं प्यासे दुधारू
खूँटियों से द्वंद है।
हलक सूखे हैं, नज़र में
याचना की गंध है।
शेष जल यदि तुम निगल लो,
गागरी उदरस्थ कर लो,
अन्नपूर्णा किस…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 21, 2013 at 1:00pm — 16 Comments
हम अपने अपने हिस्से का पानी लिए जिए जा रहें है...
देह में मचलता हुआ, लहू में बहता हुआ
और लोग जो अपनों के साथ हर सुख दुःख मे ढल जाते हैं
हर उस आकार में जिसमें
उस घडी उनका अपना उन्हें होना देखना चाहता है
वह उनके लिए पानी सा हो जातें है .......
तो है न यह अपनों का संसार|
फिर तुम मैं
कहाँ .... दो किनारों से
अपने अपने हिस्से के पानी के साथ बढते हुए, उन्हें थामे हुए|
कभी न मिलने के लिए|
और मैं हर…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on May 21, 2013 at 12:30pm — 15 Comments
मैने नेता ज़ी से पूछा-
चरित्र किसे कहते हैं?
नेता जी बोले- आप भी कमाल करते हैं
मैं और चरित्र
हो पूरे विचित्र
जब तक रहा चरित्र से वास्ता
ढूँढे नही मिला विधान सभा का रास्ता
Added by aditya chaturvedi on May 21, 2013 at 12:12pm — 9 Comments
जागृत भारत को कर दूँ मुझमे पुरुषार्थ अपार भरो माँ
मन्त्र महार्णव मन्त्र महोदधि विस्मृत हैं यह ध्यान धरो माँ
छन्द जपे मम मानव तो तुम मन्त्र समान प्रभाव करो माँ
दिव्य अलौकिक बात कहूँ मम लेखन को इस भांति वरो माँ
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 21, 2013 at 9:30am — 8 Comments
!!! गजल !!!
वज्न- 2122, 1212, 22
ऐ खुदा शहर की अदा क्या है।
आज बन्दा लुटा बता क्या है।।
दिल ने आहट सुना जवां जैसे।
तुम न आए अगर दुवा क्या है।।
जां में उल्फत सनम कसम खाये।
रब न मंजिल यहां मिला क्या है।।
शहर जल कर धुआं-धुआं नभ तक।
फिर न जाने सुबह हुआ क्या है।।
हम मिलेंगे वहां जहां ’सत्यम’।
अब तो नफरत भुला खता क्या है।।
के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 21, 2013 at 9:01am — 19 Comments
सुनो बली है भारत भू अन्याय नहीं किंचित सहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
सच मानो हर मन में हमको क्रान्ति जगाना आता है
पाक बंग या चीन सरीखों को समझाना आता है
सत्य धर्म की रक्षा में हैं प्राण दान भी दे देते
तुष्ट करे रणचंडी को वो चक्र चलाना आता है
वक्र दृष्टि हो जाये हम पर जो वो दृष्टि नहीं रहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
राष्ट्रवाद बलवान बड़ा है तभी सुनो यह देश टिका
पर…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 20, 2013 at 6:00pm — 12 Comments
ग़ज़ल -
कुछ होनी कुछ अनहोनी का मेला ही तो है ,
ये जीवन क्या माटी का एक ढेला ही तो है ।
साँसों की झीनी चादर पर रिश्तों के गोटे ,
भीड़ में भी होकर हर शख्स अकेला ही तो है ।
इस घर से उस घर तक जाने में रोना हँसना ,
सब कुछ गुड्डे गुड़ियों का एक खेला ही तो है ।
सुख दुःख का संगम तट ये तन और सारा जीवन ,
आशाओं उम्मीदों का एक रेला ही तो है ।
सूली ऊपर सेज पिया की छूने को तत्पर…
ContinueAdded by Abhinav Arun on May 20, 2013 at 3:58pm — 24 Comments
!!! नव गीत !!!
जन्नत सा खुशनुमा ये, लखनऊ है हमारा।
ये चमन है हमारा,
हम सुमन हैं सितारा
ये गोमती सुधारा,
मंगल करे हमारा
हम सादगी से जीते, इतिहास है हमारा।1 जन्नत सा...
नव रूप हो रहे हैं,
नवजात जन्म लेते
लम्बी चुप सी गलियां,
छत पर पतंग उड़ाते
पार हो रही नभ में ये, विकास है हमारा।2 जन्नत सा...
उलझन कभी न होती,
बसती रही कलोनी
बागों के दायरे भी,
सौन्दर्य को बढ़ाते
है नवाबी गवाही, चश्म सांस है…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 19, 2013 at 1:01pm — 14 Comments
हो गये सब सर कलम कुछ रोटियों के वास्ते
जैसे उगते हों शज़र बस आरियों के वास्ते
दौरे वहशत पूछिए मत, बढ़ रही कैसी हवस
है परेशां बाप अपनी बच्चियों के वास्ते
कुछ निवाले छीन लेते हैं गरीबों से भले
रोज़ दाना लाएं साहब मछलियों के वास्ते
देश के रक्षक उगाते बेच कर ईमान अब
नोट की फसलें सियासी इल्लियों के वास्ते
दौर है रफ़्तार का, फुर्सत नहीं खुद के लिए
व्यस्त हैं सब कागज़ी कुछ चिन्दियों के…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on May 19, 2013 at 11:18am — 33 Comments
समन्दर में बसी मछली, समन्दर ढूढ़ती है क्यों ।
जो उसके हर तरफ फैला, उसे ना देखती है क्यों ।
वो सागर से पूछती है, बता तेरा पता है क्या ।
बताये कैसे ये सागर, बताने को भला है क्या ।
जहाँ पर वो वही सागर ,नही ये सोचती है क्यों ।
समन्दर में बसी मछली............................|
ना जाने कौन सा सागर, लिए बैठी ख़यालों में ।
वो लहरों में भटकती है, फसा करती है जालों में ।
वो पल पल जी रही जिसमे, उसी को भूलती है क्यों…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on May 18, 2013 at 11:30pm — 6 Comments
चाँद बादल में छुपा, परछाइयाँ भी खो गयीं ।
साथ मेरा छोड़ कर , तनहाइयाँ भी सो गयीं ।
चुप्पियों की बाढ़ आयी , सारे मेले बह गये ।
महफ़िलों की गोद में भी , हम अकेले रह गये ।
खामोश मेरे हाल पर , खामोशियाँ भी हो गयीं ।
साथ मेरा छोड़ कर , तनहाइयाँ भी सो गयीं ।
अब तो कोई दर्द कोई गम भी बाकी ना रहा ।
मेरी इस…
Added by Neeraj Nishchal on May 18, 2013 at 11:00pm — 16 Comments
ठीक ही तो कहा उसने
क्या दरिद्रों की तरह
लम्हों के पीले पत्ते
बटोरती हो और
और कबाड़ी वाले की तरह
टेर लगाए फिरती हो
एहसासों के मोती चुगो
और राज हंसिनी कहलाओ
और मैं सोचती हूँ
उसकी जेब से
अपने हिस्से की
अठननी चवन्नी
झपट कर भाग खड़ी होऊं
कंजूस एक एक पाई का
हिसाब रखता है
Gul Sarika
Added by Gul Sarika Thakur on May 18, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
"कुछ दिनों बाद
पूछेगी जब ये दुनिया मुझसे
हुआ क्या तेरी कलम को
क्यों रूठी है तुझसे वो
जबाब क्या दूँगा जानता नहीं…
Added by Kedia Chhirag on May 18, 2013 at 7:30pm — 6 Comments
"करें इश्क और रखें फिर भी दिल पे काबू ,क्या कहें
बतलाएँ क्या कैसा रूप है तेरा कैसी है तू ,क्या कहें
डूबे कजियारी आँखों में तेरे तो जी ली ज़िन्दगी सारी
अज़ब है ये आशिकी भी…
Added by Kedia Chhirag on May 18, 2013 at 7:30pm — 6 Comments
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