(212-212-212-212)
मेरे सुर से तेरा सुर मिलाना हुआ
और जीवन मेरा इक तराना हुआ ॥
मैने देखी है इक चलती फ़िरती ग़ज़ल
है मिजाज इस लिए शायराना हुआ ॥
आइए हमनशी बैठिए पलकों पर
ये कहें ख्वाब में कैसे आना हुआ ॥
थी दवा तो वही काम तब कर गई
जब तेरा अपने हाथों पिलाना हुआ ॥
वो भी लगने लगे अब मुझे अपने से
"जब से गैरों के घर आना जाना हुआ ॥"
हज़्म कैसे करेंगे मेरी ये ग़ज़ल
वो जो खाते हैं बारीक छाना हुआ ॥
देख के…
Added by Gurpreet Singh jammu on May 5, 2017 at 10:47am — 23 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 5, 2017 at 9:41am — 9 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
बस किसी अवतार के आने का रस्ता देखना
बस्तियाँ जलती रहेंगी, तुम तमाशा देखना.
.
छाँव तो फिर छाँव है लेकिन किसी बरगद तले
धूप खो कर जल न जाये कोई पौधा, देखना.
.
देखने से गो नहीं मक़्सूद जिस बेचैनी का
हर कोई कहता है फिर भी उस को “रस्ता देखना”
.
क़ामयाबी दे अगर तो ये भी मुझ को दे शुऊ’र
किस तरह दिल-आइने में अक्स ख़ुद का देखना.
.
चाँद में महबूब की सूरत नज़र आती नहीं
जब से आधे चाँद में आया है कासा…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 9:00am — 54 Comments
Added by Samar kabeer on May 5, 2017 at 12:00am — 36 Comments
ग़ज़ल
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(फऊलन-फऊलन -फऊलन -फऊलन )
लगी को बुझाने को जी चाहता है |
तुम्हें कब से पाने को जी चाहता है |
यक़ीनन बड़ी मुज़त् रिब है शबे ग़म
मगर मुस्कराने को जी चाहता है |
समुंदर से गहरी हैं आँखें तुम्हारी
यहीं डूब जाने को जी चाहता है |
तेरे नाम में भी बहुत है हलावत
इसे लब पे लाने को जी चाहता है |
तेरे अहदे माज़ी से वाक़िफ़ हैं फिर भी
नयी चोट खाने को जी चाहता है |
मुसलसल…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on May 4, 2017 at 9:59pm — 16 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 4, 2017 at 6:38pm — 14 Comments
बोझ ...
हम
कहाँ जान पाते हैं
चेतन या अवचेतन में
अटकी हुई कुंठाओं की
मूक भाषा को
उनींदी सी अवस्था में
कुछ सिमटी हुई
आशाओं को
मन में उबलते
एक असीमित बोझ की
पहचान को
साँसों की थकान
अश्रु की व्यथा
और
रुदन के आह्वान को
तुम्हारे
स्पर्श की अनुभूति में लिप्त
क्षणों की
परिणिती के आभास ने
यूँ तो
अंजाने संताप से
मुक्ति का ढाढस दिया
किन्तु…
Added by Sushil Sarna on May 4, 2017 at 4:59pm — 12 Comments
अपने घर लौटा तो कोई था न स्वागत के लिए
घर के दरवाजों पे ताले थे शरारत के लिए
जब कहा मन ने तो ‘मोबाइल’ उठाकर बात की,
अब प्रतीक्षा कौन करता है किसी ख़त के लिए?
मैं बरी होकर भी दोषी हूँ स्वयं की दृष्टि में,
कुछ अलग कानून है मन की अदालत के लिए
बाहुबल से भी अधिक धन-बल जरुरी हो गया
हाँ, तभी जाकर जुटा जन-बल सियासत के लिए
अब न वैसे दोस्त हैं, परिजन भी अब वैसे नहीं,
आप किसके पास जायेंगे शिकायत के…
ContinueAdded by जहीर कुरैशी on May 4, 2017 at 1:00am — 21 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 3, 2017 at 11:00pm — 18 Comments
लौकिक अनाम छंद
221 2121 1221 212
तुमने कहा था भूल जा तुमको भुला दिया |
जीना कठिन हुआ भले' जीके दिखा दिया |
.
अब और कुछ न माँग बचा कुछ भी तो नहीं
इक दम था इन रगों में जो तुम पर लुटा दिया |
.
जो रात दिन थे साथ में वही छोड़ कर गये
था मोह का तमस जो सघन वो मिटा दिया |
.
अब चैन से निकल तिरे जालिम जहान से
कोई कहीं न रोक ले कुंडा लगा दिया |
.
धक धक धड़क गया बड़ा नाजुक था मेंरा दिल
नश्तर बहुत था तेज जो…
Added by Chhaya Shukla on May 3, 2017 at 1:00pm — 10 Comments
Added by Hariom Shrivastava on May 2, 2017 at 4:30pm — 6 Comments
२१२२/११२२/२२ (११२)
रोज़ जो मुझ को नया चाहती है
ज़िन्दगी मुझ से तू क्या चाहती है?
.
मौत की शक्ल पहन कर शायद
ज़िन्दगी बदली क़बा चाहती है.
.
मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है.
.
इक सितमगर जो मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.
.
“नूर’ बुझ जाये चिराग़ों की तरह
क्या ही नादान हवा चाहती है.
.
निलेश"नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 2:00pm — 34 Comments
Added by Tasdiq Ahmed Khan on May 1, 2017 at 8:34pm — 18 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on May 1, 2017 at 3:48pm — 16 Comments
Added by Hariom Shrivastava on May 1, 2017 at 1:28pm — 8 Comments
1222 1222 122
है तर्कों की कहाँ.. हद जानता हूँ
मुबाहिस का मैं मक़्सद जानता हूँ
करें आकाश छूने के जो दावे
मैं उनका भी सही क़द जानता हूँ
बबूलों की कहानी क्या कहूँ मैं
पला बरगद में, बरगद जानता हूँ
बदलता है जहाँ, पल पल यहाँ क्यूँ
मै उस कारण को शायद जानता हूँ
पसीने पर जहाँ चर्चा हुआ कल
वो कमरा, ए सी, मसनद जानता हूँ
यक़ीनन कोशिशें नाकाम होंगीं
मै उनके तीरों की जद,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 1, 2017 at 11:00am — 22 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 1, 2017 at 12:00am — 8 Comments
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