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July 2015 Blog Posts (243)


सदस्य कार्यकारिणी
फिल बदीह ग़ज़ल(राज)

रहें जो खुद मकानों में वो घर की बात करते हैं

जड़ों को काटने वाले शज़र की बात करते हैं.

 

जहाँ जिस थाल में खाते उसी को छेदते देखो

 रहें तन से इधर लेकिन उधर की बात करते हैं

 

लगे अच्छी उन्हें बस आग फिरते हैं लिए माचिस

अजब वो लोग हैं केवल समर की बात करते हैं.

 

छपी तस्वीर अखबारात में उस बाँध की देखो

गिरा वो चार दिन में ही अजर की बात करते…

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Added by rajesh kumari on July 23, 2015 at 10:15am — 14 Comments

हक़ की लड़ाई (लघुकथा)- डॉo विजय शंकर

दोनों बुराई के लिये लड़ रहे थे, एक दूसरे पर खूब कीचड़ उछाल रहे थे ।
देखने वालों ने समझा दोनों बुराई मिटा के रहेंगे ,
जब कि वो दोनों बुराई पर अपना अपना हक़ जता रहे थे।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on July 23, 2015 at 3:00am — 27 Comments

त़रह़ी ग़ज़ल :मुझको वो मेरे नाम /श्री सुनील

221 2121 1221 212

कुछ दिन ठहर के आज ये तूफ़ान तो गया
अच्छा ! बना के अौर हीं इंसान तो गया.

था बेअदब मगर वो हुनरबाज़ था, मेरी
पत्थर सी ज़िंदगी में पिरो जा़न तो गया.

पीले से पड़ गये हैं मेरे पास जिसके ख़त
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया.

वर्षों के रब्त में यही बाकी हीं था अभी
सो आज हीं सही,मैं उसे जान तो गया.

मिलता रहा मैं जिससे लिपट कर खुशी खुशी
होने पे मेरे उसका चलो ध्यान तो गया.

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by shree suneel on July 23, 2015 at 12:16am — 18 Comments

‘शहर’ जो गुलजार था!

‘शहर’ जो गुलजार था,

हाँ, धर्म का त्योहार था.

नजर किसकी लग गयी

क्यों अशांति हो गयी

दोष किसका क्या बताएं

मन में ‘भ्रान्ति’ हो गयी

होती रहती है कभी भी…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on July 22, 2015 at 9:00pm — 13 Comments

सुनो-सुनाओ, दर्द घटाओ अपनी अपनी प्रेम कहानी

है सजी महफ़िल यारों 

फिर से जख्मों को उठाओ 

याद फिर कर लो उसे 

जिससे मोहब्बत की थी यारों

फिर वही कुछ हँसते गाते 

रुठते और फिर मनाते 

अश्क़ जब आँखों में आये 

गीत  बन जब दर्द जाये

जख्म तुम सबको दिखाओ

फिर वही अपनी पुरानी

सुनो-सुनाओ, दर्द घटाओ

अपनी अपनी प्रेम कहानी |

उसको भी बतलाओ यारों

वो कहाँ और हम कहाँ हैं 

हमने तो जख्मों को अपने 

जीने का जरिया बनाया

गिर के खुद संभले जहाँ…

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Added by maharshi tripathi on July 22, 2015 at 7:00pm — 11 Comments

क़ातिल का मज़हब (लघुकथा )

आज एक महीना होने को आया था और क़लम ऐसी जड़ हुई थी कि आगे बढ़ने का नाम ही ना लेतीI

 ऐसा उसके साथ पहले भी कई बार हुआ था ,कि वो लिखने बैठता और पूरा पूरा दिन गुज़र जाने पर भी काग़ज़ कोरा रह जाता, लेकिन यहाँ बात कुछ और ही थी ,आज खयालात उसके साथ कोई खेल नहीं खेल रहे थे , वो जानता था कि उसे क्या लिखना है ,कहानी के सारे किरदार उसके ज़हन में मौजूद थे I

वो बूढी मज़लूम औरत , वो भोली सी कमसिन बच्ची , वो सफ्फ़ाक आँखों वाला बेरहम क़ातिल , सारे किरदार उसकी आँखों के सामने…

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Added by saalim sheikh on July 22, 2015 at 2:00pm — 26 Comments

नारीनामे का सफ़र

पीहर के आँगन छूटी उस मिट्टी का रंग पीला था

गाँव से संदेसा लायी उस चिट्ठी का रंग पीला था

 

जनक ने विदा किया दहेज़ का हर सामान देकर 

पीठ पर निशान किये उस पट्टी का रंग पीला था 

 

बहुत मन से बनाया साग नमक जियादा हो गया

थाली से जो फेंक मारी उस लिट्टी का रंग पीला था

 

गाँव बाहर पुल पर मजदूरी को भेजा घर वालों ने

तसले भरके जो ढोया उस गिट्टी का रंग पीला था

 

वंश बेल आगे करने को उनको इक बेटा जरूरी था

बेटी को मिला…

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Added by Nidhi Agrawal on July 22, 2015 at 11:30am — 8 Comments

ग़ज़ल- हमारा दिल जलाकर आँख का काजल बनाती है।

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

हमारा दिल जलाकर आँख का काजल बनाती है।

बडी जालिम है' पलकों पर मे'री बादल बनाती है।



निगाहे गर्म वो उसकी मसीहा भी है' कातिल भी।

कभी मरहम लगाती है कभी घायल बनाती है।



महकता है चमन सारा तुम्हारे तन की' खुशबू से।

तुम्हारी ही नकल से शाखे गुल कोंपल बनाती है।



जहाँ सहरा बनाया है खुदा तेरे फरिश्तों ने।

वहाँ उस शख़्स की मौजूदगी जंगल बनाती है।



हवा तेरा बदन छूकर अगर छू ले किसी को फिर।

ते'रा आशिक बनाती है ते'रा कायल… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on July 22, 2015 at 7:48am — 18 Comments

ला रहा रवि पालकी

ला रहा रवि पालकी

 

 

खोल कर आकाश के पट

चल पड़ा है सारथी

खिल रहीं मदहोश कलियाँ

ला रहा रवि पालकी

 

भोर में ममता लुटाती

स्वर सजीली रागिनी

आ विराजा श्याम कागा

चल सखी-री जाग-री

 

प्रात का मंचन अनोखा

रश्मियाँ— अप्लावतीं

 

तृप्त तारक चल पड़े

विश्रांति की आगोश में

चाँदनी मुख ढक चली

सब आ गए यूं होश में

 

मौन सपनों को सजाने

चल पड़े सब…

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Added by kalpna mishra bajpai on July 21, 2015 at 10:01pm — 14 Comments

फ़र्क ( लघुकथा )

"हम फलों से जरा लदे नहीं , हर राह चलता पत्थर फेंकना शुरू कर देता है । सिर्फ इसीलिए क्योंकि हम राह पर अनाथों के तरह फल-फूले हैं ।"

"हाँ भाई ! ठीक कहते हो । यदि  हम भी किसी बाग़ की शोभा होते तो नाज़ों से पलते , ठाठ से रहते । पत्थर की कोई छुअन हम तक नहीं पहुँच पाती ।"

"अजीब विडम्बना है , परवरिश गुलशन में मिले तो कीमत लाखों की , सरे राह क्या जन्मे ,आँख का कांटा हो गए ।"

"हूँ...। गोया कि बाग़ से इतर हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं । "

युवा पेड़ों के वार्तालाप को सुन पास खड़ा बूढ़ा वृक्ष बोल…

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Added by shashi bansal goyal on July 21, 2015 at 8:30pm — 10 Comments

तहजीब (लघुकथा)

कागज़, कलम, और स्याही स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हुए थे। कोई भी एक दूसरे के सामने झुकने को तैयार नहीं था। उनका झगड़ा देखकर कवि चुप न सका:

"क्या तुम लोगों को इस बात का भी आभास है कि बिना मेरी उँगलियों के सहारे तुम सब अस्तित्व हीन हो ! "

"किस अस्तित्व की बात कर रहे हो कविवर? अगर मैं न रहूँ तो तुम अपनी भावनाओ को किस चीज़ पर उकेरोगे?" कागज ने चेताया।

"अगर में रोशनाई न बिखेरूं तो लोग कागज पर क्या ख़ाक पढ़ेंगे?"  पीछे से स्याही की आवाज आई I

"मेरे बगैर तुम्हारी…

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Added by Pankaj Joshi on July 21, 2015 at 5:00pm — 5 Comments

पीड़ा ( लघुकथा )

" क्यों मारा उसको , अब तो कोई रिश्ता नहीं बचा था तुम्हारे बीच ?
" एक रिश्ता तो था ही , नफ़रत का | मेरी बहन को जिन्दा जलाने के बाद किसी और से शादी करने जा रहा था वो "|
" पर उसके लिए तो कोर्ट से मिली सजा उसने भुगत ली थी , फिर क्यों ?
" किसी और बहन का जलना .., वो वाक्य पूरा नहीं कर पाया !
.
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on July 21, 2015 at 4:30pm — 14 Comments

पानी का मोल (लघुकथा)

पूरे गॉव में करन सिंह ही एक मात्र धींवर था! वह कुछ गिने चुने परिवारों का ही पानी भरता था! वह चार घर ठाकुरों के,चार घर ब्राह्मणों के और दो घर बनियों के पानी ले जाता था! गॉव में तीन कुंऐ थे! एक बडा कुंआ ठाकुर भूप सिंह की हवेली के अहाते में था,जिससे केवल तीन ऊंची जाति,ठाकुर,ब्राह्मण और बनियां, इन्हीं लोगों का पानी जाता था! दूसरा कुंआ चमारों का था तथा तीसरा भंगिओं का ! करन सिंह का बेटा रेलवे में अफ़सर बन गया था!बेटे ने दवाब डाला तो करन सिंह ने गॉव में पानी भरना बंद कर दिया! अगले दिन करन सिंह भोर…

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Added by TEJ VEER SINGH on July 21, 2015 at 4:00pm — 5 Comments


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एक था भेंडर ( सच्ची कथा....'राज' )

जैसे ही कोई छुट्टी आती थी गाँव जाने का अवसर मिल जाता था चेहरा खिल उठता था  मन की मुराद पूरी जो हो जाती थी एक तो दादा जी, चाचा,चाची से मिलने की उत्सुकता दूसरे खेलने कूदने मस्ती करने की स्वछंदता हमेशा गाँव की ओर खींचती थी| उत्सुकता का एक कारण और भी था वो था .. कौतुहल से बच्चों की टोली में जुड़कर “भेंडर” की हरकतों का मजा लेना |

लेकिन उसका उपहास बनाने वालों को मैं पसंद नहीं करती थी|

घर वाले कहते थे उसे भेंडर नहीं भगत जी कहा करो हाँ कुछ गाँव वाले उसे भगत जी कहते थे…

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Added by rajesh kumari on July 21, 2015 at 11:30am — 18 Comments

बहाना (लघुकथा)

काली सड़क लाल खून से भीगकर कत्थई हो गई थी। एक तरफ से अल्ला हो अकबर के नारे लग रहे थे तो दूसरी तरफ जय श्रीराम गूँज रहा था। हाथ, पाँव, आँख, नाक, कान, गर्दन एक के बाद एक कट कट कर सड़क पर गिर रहे थे। सर विहीन धड़ छटपटा रहे थे। बगल की छत पर खड़ा एक आदमी जोर जोर से हँस रहा था।

एक एक कर जब सारे मुसलमानों के सर काट दिये गये तब बचे हुए दो चार हिन्दुओं की निगाह छत पर गई। वहाँ खड़ा आदमी अभी तक हँस रहा था। एक हिन्दू ने छलाँग मारकर खिड़की के छज्जे को पकड़ा और अपने शरीर को हाथों के दम पर उठाता हुआ…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 21, 2015 at 9:30am — 24 Comments


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ग़ज़ल - कैसे बच्चों में सादगी होगी -- ( गिरिराज भंडारी )

2122    1212     22 /112

सुर्मई, शाम हो रही होगी

रात दस्तक भी दे चुकी होगी

 

रात के हक़ में गर अंधेरा है

सुब्ह के हक़ में रोशनी होगी

 

दिल ठहर, बस नज़र मिला…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 21, 2015 at 9:01am — 16 Comments

संत्रास (लघुकथा) : रवि प्रभाकर

ढलती शाम के वक्त खचाखच भरी बस में सेंट की खूशबू में लबालब जैसे ही वह दो लड़कियां चढ़ी तो सभी का ध्यान उनके जिस्म उघाड़ू तंग कपड़ों की ओर स्वत ही खिंचता चला गया । बस की धक्कमपेल का नाजायज़ फायदा उठाते हुए कुछ छिछोरे किस्म के लड़के रह रह कर उन्हे स्पर्श करते हुए बीच बीच में कुछ असभ्य कमेंट भी कर रहे थे परन्तु वो दोनों लड़कियां इन सबसे बेपरवाह आपस में हँस-हँस कर बातें करने में व्यस्त थीं।

‘इधर बैठ जाओ बेटी !’ सीट पर बैठा हुआ एक बुर्जुग बच्चे को सीट से अपनी गोद में बिठा कर थोड़ा एक तरफ…

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Added by Ravi Prabhakar on July 21, 2015 at 8:30am — 22 Comments


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अदृश्य भय - लघुकथा (मिथिलेश वामनकर)

“आज बहुत लेट हो गई ? ’मम्मा ऑफिस से कब आएगी’, पूछ-पूछ कर परी ने कबसे परेशान कर रखा है..”

सासू माँ की बगल में सुनंदा की तीन साल की बेटी चुपचाप अपनी गुड़िया के साथ खेल में मग्न थी.

“मधुकर भैया है न, इनके दोस्त, उनके यहाँ बेटी हुई है, बस हॉस्पिटल गई थी. इनका फोन आया था कि वो नहीं जा पाएंगे इसलिए मुझे जाना पड़ा.” - सुनंदा की आवाज़ सुनकर परी दौड़ती हुई अपनी मम्मा से लिपट गई.

“अरे उसकी तो पहले ही एक लड़की है न ?... काश इस बार लड़का हो जाता.. अच्छा…

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Added by मिथिलेश वामनकर on July 21, 2015 at 3:30am — 34 Comments

तहजीब - लघुकथा

"अमां जफर बेटा, अपने अब्बू से न दुआ न सलाम! ये अल सुबह कहाँ भागे जा रहे हो?" खालिदा बेगम ने घर से बाहर जाते बेटे को बरामदे से ही आवाज लगायी।

"अरे अम्मीजान, मैं पहले ही 'जिम' के लिये लेट हो गया हूँ और आप......., खैर! आदाब अब्बा हुजूर।" बरामदे में ही बैठे अनवर मियां को दूर से ही हाथ हिलाकर जफर ने आदाब किया और देखते ही देखते ही नजरो से गायब हो गया।

उसकी हरकत पर खालिदा बेगम को तो हॅसी आ गयी अलबत्ता अनवर मियां पान की ग्लोरी मुँह में रखते रखते भुनभुना गये:

"लाहोल विला कुव्वत! ये…

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Added by VIRENDER VEER MEHTA on July 20, 2015 at 10:00pm — 17 Comments

सबसे खूबसूरत भूल (गज़ल)l

बाकी नहीं मंजर कोई आंखों में सिर्फ धूल है,
इस हाल में घर से निकलना बेसबब,फिज़ूल है,
मुझे दूर ही रख्खे तेरी चौखट से मेरी गैरतें,
मेरा भी इक ज़मीर है,मेरे भी कुछ उसूल हैं,
खैरात में मुझको नहीं तेरी वफायें चाहिये,
तू खुशी से दे तो तेरी नफरतें कुबूल हैं,
तुझे भूलकर भी भूलना मुमकिन नहीं है अब,
तू मेरी ज़िंदगी की सबसे हसीन भूल है ll
-Er Anand Sagar Pandey

मौलिक एवं अप्रकाशित l

Added by Er Anand Sagar Pandey on July 20, 2015 at 8:44pm — 14 Comments

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