तुम्हारे फूल अलग रंग के क्यों लग रहे हैं आज
पत्तों का आकार भी बदला बदला सा है
तुम्हारे फूल और पत्ते ऐसे तो उगते न थे
पोषण किसी और श्रोत से तो प्राप्त नहीं करने लगे
जड़ या तना बदल तो नहीं लिया है तुमने
बेतुक की बडिंग तो नहीं करवा ली है
किसी और प्रजाति के पौधे से
प्रजातियाँ अच्छी बुरी तो नहीं होतीं
सभी अपनी जगह ठीक होतीं हैं
पर अपनी, अपनी होती है
तुक की होती है !
बात केवल स्वतंत्रता पर खत्म…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 12, 2014 at 9:00am — 18 Comments
" मेरे पास समय बहुत कम है , डाक्टर ने बता दिया है कि कैंसर अपने आखिरी स्टेज में है , प्लीज बेटे को बुला लो अब" | पापा की दर्द भरी आवाज सुनकर वो अपने आप को रोक नहीं सकी , आँसू बेशाख्ता आँखों से बह निकले | माँ तो जैसे जड़ हो गयी थी , सिर्फ सूनी सूनी आँखों से कभी पापा को , तो कभी उसे देखती रहती |
कैसे बताये उनको , कल ही तो उसने फोन किया था भाई को | पूरी बात सुनने से पहले ही बोल पड़ा " मैं बार बार नहीं आ सकता वहां , अभी १५ दिन पहले ही तो आया हूँ | इतनी छुट्टी नहीं मिल सकती मुझे , और हाँ…
ContinueAdded by विनय कुमार on July 12, 2014 at 4:30am — 15 Comments
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २
पीते अश्क़ समंदर के आवारा ये बादल
लुटते हैं दुनिया के लिए हमेशा ये बादल
माँगा नहीं हिसाब कभी अपने अहसानो का
निभा रहे हैं दस्तूर भी निराला ये बादल
हर एक चेहरे पर देखो प्यास झुलसती सी
किसकी प्यास बुझाए एक अकेला ये बादल
कभी रुलाये कभी हसए बतियाये संग में
कजरारी आँखों की याद दिलाता ये बादल
गरजकर सुनाये हाले दिल भी अपना लेकिन
सब दरवाजे बंद खड़ा तनहा ये बादल
दुनिया में…
ContinueAdded by gumnaam pithoragarhi on July 11, 2014 at 4:00pm — 7 Comments
१२२/१२२/१२२/१२२
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न कोई कशिश है न कोई ख़ला है,
ये दिल बावला था ये दिल बावला है.
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गुनहगार ग़ैरों को क्यूँ कर कहें हम,
वो थे लोग अपने जिन्होंने छला है.
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टटोला कई बार ख़ुद को तो पाया,
जहाँ धडकने थीं वहाँ आबला है..... आबला- छाला
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चढ़ा था नज़र में, जिगर तक न पहुँचा,
नज़र से जिगर तक बड़ा फ़ासला है.
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उठाऊंगा मुद्दा क़यामत के दिन ये,
मेरे हक़ का हर फ़ैसला क्यूँ टला है.
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समझना है मुश्किल…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on July 11, 2014 at 2:30pm — 20 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 11, 2014 at 1:54pm — 10 Comments
“बेटा..! ऐसा मत कर, फेंक दे ये ज़हर की बोतल I ले हमने जमीन के कागज़ पर दस्तख़त कर दिए हैं. जा, अब मर्ज़ी इसे बेच या रख। बस अपनी पत्नी और बच्चों के साथ ख़ुशी से रह । हमारा क्या है बेटा, हम कुछ दिन के मेहमान हैं,जी लेंगे जैसे-तैसे...” माँ रुंधे हुए गले से कहा.
सभी निगाहें बेटे पर केंद्रित थीं जो जहर की बोतल को आँगन में ही फेंक दस्तखत किये हुए कागजों को समेटने में व्यस्त था. लेकिन उसी बोतल को उठाकर अपनी कोठरी में ले जाते बापू पर किसी की भी नज़र नही पडी थी.
…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 11, 2014 at 11:30am — 30 Comments
दूब का चरित्र
दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,
सुख दुःख से विरक्त, संत मन जैसा है.
झुलसे न ग्रीष्म में भी, ओस को सम्हाल रही
ढांक ले मही को मुदित, पहली बौछार में ही
दूब अग्र तुंड को, चढ़ावे विप्र पूजा में,
जैसे हो नर बलि, स्वांग यह कैसा है ! दूब का चरित्र देखो, आम जन जैसा है,
गाय चढ़े, चरे इसे, बकरियों भी खाती है,
खरगोश के बच्चे को, मृदुल दूब भाती है.
क्रीडा क्षेत्र में भी, बड़े श्रम से पाली जाती है
देशी या…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on July 11, 2014 at 10:30am — 13 Comments
" क्या बात है वर्माजी , बड़े खुश नज़र आ रहे हैं आप , कोई लाटरी तो नहीं लग गयी इस उम्र में" |
" नहीं भाई , दरअसल अख़बार में खबर थी कि एक वृद्धाश्रम बन रहा है अपने शहर में , अब कम से कम बाक़ी जिंदगी तो अपनों में गुजरेगी "|
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on July 11, 2014 at 2:30am — 10 Comments
बहुत रोया मैं,
पड़ोसी चाची के मर जाने पर
गाँव से शहर जाने पर
हाल के दंगे में
आग देखकर
डर जाने पर
खुद को लूटा के
घर जाने पर
आंसुओं ने साथ छोड़ दिया
नहीं रोया मैं,
माँ के मर जाने पर,
वो
हर सहर के साथ
हॅसते देखना चाहती थी.
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 10, 2014 at 9:50pm — 12 Comments
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 10, 2014 at 8:34pm — 10 Comments
हस्ताक्षर की कही कहानी
चुपके से गलियारों ने
मिर्च मसाला , बनती ख़बरें
छपी सुबह अखबारों में.
राजमहल में बसी रौशनी
भारी भरकम खर्चा है
महँगाई ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों की चर्चा है
रक्षक ही भक्षक बन बैठे है
खुले आम दरबारों में.
अपनेपन की नदियाँ सूखी,
सूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
उदासीनता व्यवहारों में.
किस पतंग…
ContinueAdded by shashi purwar on July 10, 2014 at 7:30pm — 13 Comments
2122 2122 2122
नाम अपना चल बदल के देखते हैं
घेरे से बाहर निकल के देखते हैं
चाँद सुनता हूँ कि थोड़ा पास आया
आ ज़रा फिर से उछल के देखते हैं
पैरों को मज़बूतियाँ भी चाहिये कुछ
चल ज़रा काटों पे चल के देखते हैं
रोशनी की चाह में तो हैं बहुत, पर
कितने हैं ? जो ख़ुद भी जल के देखते हैं
कुछ मज़ा फिसलन में है,गर है यक़ीं तो
हम कभी यूँ ही फिसल के देखते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 7:00pm — 22 Comments
मेरी पहली अमरनाथ यात्रा
बात 22 जुलाई वर्ष 2009 की है। मेरे पिता अपनी डियुटी से घर आये हुए थे।घर का कोई काम न कर पाने के मेरे दुकान से आने के बाद मुझ पर नाराज हेा रहे थे। मैं चुपचाप खाना खाया और उनके नाराज होने पर घर से बाहर चले जाने की आदत के अनुसार घर से बाहर निकल कर अपनी दुकान पर आ गया। दुकान पर आरकुट खोल कर इधर उधर करने लगा। उसी समय मेरे मैसेज बाक्स में अमरनाथ यात्रा संबंधी रजिस्टेªशन का विज्ञापन आया। मैं उसे खोल कर देखने लगा, पता नहीं क्या दिमाग में आया मै उसमेें दिये लिंक केा क्लिक…
Added by Akhand Gahmari on July 10, 2014 at 5:16pm — 10 Comments
** 2122 2122 2122 212
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दोष थोड़ा सा समय का कुछ मेरी आवारगी
सीधे-सीधे चल न पायी इसलिए भी जिंदगी
**
हम तुम्हें कैसे कहें अब दूरियों को पाट लो
कम न कर पाये जो खुद हम आपसी नाराजगी
**
कल हवा को भी इजाजत दी न थी यूँ आपने
आज क्यों भाने लगी है गैर की मौजूदगी
**
रात-दिन करने पड़ेंगे यूँ जतन कुछ तो हमें
कहने भर से दोस्तों ये किस्मतें कब हैं…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 10, 2014 at 11:30am — 22 Comments
212 212 212 212
रात जगता रहा दिन में सोता रहा
चाँद के ही सरीखे से होता रहा
बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा
उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे
बारी बारी से अपनों को खोता रहा
रस्म मैंने निभायी नहीं है मगर
दिल में रिश्तों को अपने संजोता रहा
जो न मांगा मिला मुझको सौगात में
जिसको चाहा वो मुश्किल से होता रहा
मैंने अपने गले से…
ContinueAdded by अमित वागर्थ on July 10, 2014 at 10:58am — 30 Comments
22- 22- 22- 22- 22- 2
दिल को अब के शायद चैन मयस्सर हो
तेरी क़ुर्बत में जब दिन रात गुज़र हो
मेरी बातों का सीधा दिल पे असर हो
गर सुनने का इक तेरे पास हुनर हो
बरसें जब सर्द फुहारें रिमझिम-रिमझिम
क्या कहना क्या खूब सुहाना मंज़र हो
इक रौ में बहते हैं चश्मे तो भी क्या
बारिश सा बरसो तो ये आलम तर हो
मज़्मून लगे जैसे हो इक आईना
तुम एक सुखनवर हो या शीशागर हो
सन्नाटे में कोई…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 10, 2014 at 10:00am — 13 Comments
Added by Zaif on July 10, 2014 at 8:35am — 10 Comments
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज
तुम तक आ रही है ?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर -बहिष्कृत हम
रहें प्रतियोगिता से ,
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है ?
मानते हैं हम ,
नहीं सम्भ्रांत ,ना सम्पन्न,
साधनहीन हैं,
अस्तित्व तो है
पर हमारे पास…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 10, 2014 at 6:00am — 13 Comments
२१२२/१२१२/२२
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लोग कहते हैं मोजज़ा होगा,
देखना कोई हादसा होगा.
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ख़ूब ईमानदार बनता है,
नौकरी पर नया नया होगा.
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जब कहा, सिर्फ़ सच कहा उसने,
वो कभी आईना रहा होगा.
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जिसकी सुहबत सुकून देती थी,
कैसे मानें कि बेवफ़ा होगा.
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एक मुद्दत के बाद धड़का दिल,
ज़ख्म-ए-दिल आज फिर हरा होगा.
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टूटता दिल भी एक नेमत है,
शायरी का चलो भला होगा.
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शक्ल पर कुछ नहीं लिखा उसने,
कौन कैसा है, कौन…
Added by Nilesh Shevgaonkar on July 9, 2014 at 8:00pm — 16 Comments
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
बहुगुणित कर कर्मपथ पर तन्तु सद्निर्मेय के
मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने
दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने
दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो
मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो
तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
श्रेष्ठ हो जो मार्ग राही वो सदा ही पथ्य है
हर घड़ी युतिवत निभाना जो मिला…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 9, 2014 at 12:26pm — 24 Comments
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