अनन्तता में
धकेल कर मुझ निर्वसना को
कोई चुरा ले गया है मेरे शब्द..
मेरी ध्वनियाँ... मेरे चित्र..
जा बैठा है ना जाने
किस कदम्ब की शाख पर
कैसे पुकारूँ सखी...मैं तो गई... !!
(मौलिक व अप्रकाशित )
Added by Vasundhara pandey on August 9, 2013 at 5:00pm — 3 Comments
शरीफों में शराफत नहीं
सिंह बकरी सा मिमियाए.
देख के, भारत माता का
आंचल भी शर्माए.
**********
दुष्ट कब समझा है जग में
निश्छल प्रेम की परिभाषा.
अपनी ही लाशों पर लिखोगे
क्या देश की अभिलाषा.
लाल पत्थर की दीवारें भी
महफूज़ नहीं रख पाएंगी .
सीमा पर बही रक्त जब
दिल्ली तक तीर आएगी .
सत्ता सुख क्षणिक है
सदैव नहीं रह पायेगा.
दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर
जब फिर से नादिर…
ContinueAdded by Neeraj Neer on August 9, 2013 at 11:30am — 14 Comments
Added by Neeraj Nishchal on August 9, 2013 at 10:01am — 20 Comments
Added by Vindu Babu on August 9, 2013 at 8:58am — 20 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 8, 2013 at 10:52pm — 52 Comments
!!! हरिगीतिका !!!
2+3+4+3+4+3+4+5= 28
चौकल में जगण-121 अतिनिषिध्द है। चरण के अन्त में रगण-212 कर्ण प्रिय होता है।
जब मेघ बरसे रात तड़फे पीर है मन वेदना।
तन तीर धसती घाव करती राह निश-दिन देखना।।
अब आव प्रियतम भोर होती भ्रमर तन-मन छेदता।
रति-सुमन हॅसकर हास करती सुर्ख सूरज देवता।।1
चिडि़यां चहक कर तान कसती बांग मुर्गा टीसते।
बन-बाग-उपवन खूब झूमें मोर-दादुर रीझते।।
घर नीम छाया धूप माया उमस करती ताड़ना।
नय नीर छलके भाव बहके…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 8, 2013 at 9:45pm — 18 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 8, 2013 at 8:00pm — 17 Comments
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
जब भी सोया अकेली रातों में
डूबता रहा तुम्हारी बातों में
कभी थे हाथ, तेरे हाथों में
हाँ! तुम ही तुम महकती थीं
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
जब होती थीं तुम तन्हाई में
विरह की सम्वेदित अंगड़ाई में
भावों की असीम गहराई में
साध चुप्पी, तुम बिलखती थीं
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
मुझे याद है वे सारे पल
वह परसों, आज और कल
जब टूटा था…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 8, 2013 at 5:00pm — 26 Comments
1222 1222 1222 1222
तमन्ना है मेरी दिलबर मुझे थोड़ी वफ़ा दे दो।
महक जाऊ मैं गुलशन में मुझे ऐसी फिजा दे दो।।
दिए हैं लाख दुनियां ने मुझे जो ज़ख़्म सीने पर।
न हो अब दर्द मुझको यार कुछ ऐसी दवा दे दो।।
किया है जुर्म हमने क्या मुझे भी तो पता चलता।
अगर माफ़ी न मिल सकती मुझे हमदम सज़ा दे दो।।
हुई है बेवफाई मुझ से भी अब क्या जहां…
Added by Ketan Parmar on August 8, 2013 at 4:30pm — 33 Comments
जलते रहे चिराग हवाओं से जूझकर
जिन्दा रहे थे हम भी गम में यूं डूबकर
चलते रहे थे हम भी लिए दिल में आस ही
वरना ठहर से जाते कभी हम भी टूटकर
बहने लगे थे हम भी लहरों के साथ ही
अब करते भी भला क्या कश्ती से छूटकर
वो हमसफ़र थे अपने मगर फिर भी मौन थे
कटती नहीं हयात मेरे यारों रूठकर
ले जायेगा मुझे भी इक दिन वो दूर यूं
अपनों के नाम होंगे नहीं लव पे भूलकर
जब से हुई हवा ये हवादिश की ही…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on August 8, 2013 at 3:13pm — 13 Comments
मै अपनी तक़दीर पर कभी , रोया या नही रोया
पर मेरे जज्बातों पर आसमा टूट के रोया |
मै क्या क्या बताऊ मे क्या क्या गिनाऊ ,
क्या नही पाया मैंने क्या नही खोया |
मेरी हर रात कटी है सो वीमारो के जैसे
दर्द से जुदा होकर मै एक पल नही सोया |
मेरे जीने पे जो जालिम , मातम मनाता रहा ,
मेरे मरने पर वो जी भर के क्यों रोया |
मेरे दिल के जख्म फूलो से निखरते रहे
मैंने कभी इनको मरहम से नही धोया…
ContinueAdded by aman kumar on August 8, 2013 at 12:03pm — 13 Comments
हे प्रभु,
मैंने मन मंदिर में
आपकी मूर्ति की स्थापना तो कर दी है
मगर इसकी प्राण-प्रतिष्ठा का काम तो आपका ही है
क्योंकि मुझमें यह कला नहीं.
अब आप ही इसके देव, आप ही इसके पुजारी,
और आप ही इसके उपासक हैं.
मैं तो इक इमारत भर हूँ
जो जड़ता के स्पंदन के स्तर तक ही जीवित
और अस्तित्ववान है.
हे नाथ,
जब तक आप इसके मूल में प्राणाहूत हैं,
इस प्रस्तरशिला रूपी संरचना का कोई अर्थ है.
हे मालिक,
समय-समय…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 8, 2013 at 8:30am — 6 Comments
है बहुत मजबूर वो जमाने से भागता होगा
नींद की ख्वाहिश में रात भर जागता होगा।
रौशनी के चंद कतरे रखे थे अँधेरों से छुपा
क्या पता था कोई दरारों से झाँकता होगा।
जमीं से उठते हुये ताकते रहे आस्माँ को हम
ये न सोचा था कभी वो हमें भी ताकता होगा।
आज समझा अहले दौराँ की तिज़ारत देखकर
शैतान भी इन्साँ से अब पनाहें माँगता होगा।
घटा घनघोर घिरती है गरजती है बरसती…
Added by dr lalit mohan pant on August 8, 2013 at 2:30am — 16 Comments
एक गाँव था ! वहां बहुत सारे पापी रहते थे ! पाप करते और पानी से धो लेते ! धोते-धोते एकदिन सारा पानी खत्म हो गया ! पानी खत्म होने पर उन पापियों के पाप से गाँव तपने लगा ! उस तपन को पापियों ने नज़रंदाज़ कर दिया और पहले की ही तरह पाप करते रहे ! तपते-तपते आखिर एकदिन बड़ी भयानक आग उठी और उन पापियों को जलाने के लिए बढ़ने लगी ! पानी तो था नही, इसलिए पापियों ने आग से बचने के लिए उसपर खूब सारी मिटटी डाल दी ! आग दबने लगी, पापी खुश होने लगे कि तभी बड़ी जोर से आंधी आई और सारी मिट्टी उड़ गई ! अब हवा से परवाज…
ContinueAdded by पीयूष द्विवेदी भारत on August 7, 2013 at 7:04pm — 10 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 7, 2013 at 1:33pm — 31 Comments
विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा तथा हिंदी की मासिक ई-पत्रिका “प्रयास” के संयुक्त तत्वावधान में भारत के स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में एक “राष्ट्रभक्ति…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on August 7, 2013 at 8:00am — 4 Comments
शिव बाबा की महिमा
शिव बाबा की कृपा से, सब काम हो रहा है
हम माने या न माने, कल्याण हो रहा है!
खुद विष का पान करके, अमृत किया हवाले,
आशीष सबको देते, विषधर गले में डाले.
तन में भभूत लिपटे, तिरसूल को सम्हाले
आये शरण में कोई, उसको गले लगा ले.
हम भक्त हैं उन्ही के, ये भान हो रहा है! हम माने या न माने कल्याण हो रहा…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on August 7, 2013 at 7:17am — 18 Comments
दोस्त बनकर भूल जाने का हुनर आता नहीं
लोग कहते हैं के दस्तूरे सफ़र आता नहीं
जब रहम की आस में दम तोड़ता है आदमी
क्यों किसी के दिल-जिगर में वो असर आता नहीं
दरहकीकत छांव दे जो इस जहाँ की धूप से
अब हमारे ख्वाब में भी वो शजर आता नहीं
रंग-ओ-खुशबू है मगर,यह टीस है कुछ फूल को
वक्त जब माकूल रहता, क्यों समर आता नहीं
जब मुकाबिल तोप की जद में बरसती आग हो
फिर बशीरत के, सिवा कुछ भी नज़र आता…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on August 7, 2013 at 5:54am — 7 Comments
1222122212221222
सुनहरी भोर बागों में, बिछाती ओस की बूँदें!
नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूँदें!
चपल भँवरों की कलियों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,
मिला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूँदें!
चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,
न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!
करिश्मा है खुदा का या, कि ऋतु रानी का ये जादू,
घुमाकर जो छड़ी कोई, गिराती ओस की बूँदें!
नवल सूरज की किरणों में, छिपी…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on August 6, 2013 at 10:00pm — 22 Comments
अधरों का कम्पन
पुष्प से कोमल कपोल
मनमोहक मादक अदा
मद मस्त अगड़ाई
गीले बालों का झरना
तिरछी मदभरी पलके
केश रूपी लतिका की
ओट से निहारना
हाय !उनका अनछुआ स्पर्श
अंग अंग से टपकती कामुकता
प्रेम की बहती शीतल बयार
नसों का रुधिर वेग बेकाबू
आलिंगन को मै बेकल
वातावरण जैसे
अदभुत जादुई ग्रह हो
पुर्णतः पाषाण शिला सा मैंने
निःशब्द प्रेम का आह्वान किया
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक /अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on August 6, 2013 at 7:00pm — 10 Comments
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