सो न सका मैं कल सारी रात
कुछ रिश्ते कैसे अनजाने
फफक-फफक, रात अँधेरे
प्रात की पहली किरण से पहले ही
सियाह सिफ़र हो जाते हैं
अनगिनत बिखराव और हलचल…
ContinueAdded by vijay nikore on September 23, 2018 at 7:11am — 17 Comments
दुर्गा - लघुकथा –
शुरू में मैंने दुर्गा को एक महीने के लिये ट्रायल पर रखा था क्योंकि उसे देखकर लगता नहीं था कि काम वाली बाई है। खूबसूरत और जवान तो थी ही लेकिन साथ ही गज़ब की स्टाइलिश और फ़ैशनेबिल। चटकीली सुर्ख लिपस्टिक, गॉगल, मोबाइल, बड़ा सा लेडीज पर्स भी रखती थी।
मुझे बहुत तनाव रहता था जब वह पतिदेव की उपस्थिति में आती थी। ऐसे में मुझे अतिरिक्त सावधानी रखनी पड़ती थी। हालाँकि पतिदेव का इतिहास साफ सुथरा था। पर मर्द जात का क्या भरोसा। ऊपर से दुर्गा के लटके झटके। एक बार तो मैंने उसे कह…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 22, 2018 at 12:07pm — 10 Comments
नाभी में लेकर कस्तूरी
तय करता मृग कितनी दूरी
पागल मनवा उलझा उलझा
सहरा-सहरा जंगल-जंगल
खोज रहा है नादानी में
बौराया सा हर पल प्रति पल
नाभी में लेकर कस्तूरी
तय करता मृग कितनी दूरी
रब के दर्शन की चाहत में
मंदिर मस्जि़द रस्ते रस्ते
भान नहीं है उनको इतना
राम रहीमा उर में बसते
बाहर ढूंढें चंदन नूरी
कैसे होगी चाहत पूरी
खेतों में जब उगता सूरज
मिलता सबसे वो हँस हँस कर
उजली भोर संदेशा…
Added by rajesh kumari on September 22, 2018 at 11:49am — 16 Comments
आशंका के गहरे-गहरे तल में
आयु के हज़ारों लाखों पलों के दबे ढेर में
नए कुछ पुराने दर्दों की कानों में आहट
भार वह भीतर का जो खलता था तुमको
मुझको भी
एक दूसरे को दुखी न देखने की
दर्द और न देने की मूक अभिलाषा
रोकती रही थी तुमको... कुछ कहने से
मुझको भी
पर परस्पर दर्द और न देने की इस चाह ने
बना दी है अब बीच हमारे कोई खाई गहरी
काल ने मानो सुनसान रात की गर्दन दबोच …
ContinueAdded by vijay nikore on September 21, 2018 at 11:16pm — 19 Comments
कुछ क्षणिकाएं :
पिघलती नहीं
अब
अंतर्मन की व्याकुलता
आँखों से
स्वार्थ का चश्मा
सोख लेता है
सारा दर्द
................
सीख लिया है
आँखों ने
खारा पानी पीना
संवेदनहीन
हो गया है
वर्तमान
.........................
झीलें नहीं होती
भावों की
आँखों में
मैच कर लेता है
हर अंतरंग का रंग
कांटेक्ट लेंस
.....................
मुद्दत हो गई
खुद से मुलाकात हुए
शायद…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2018 at 2:36pm — 19 Comments
चंदा से गपियाने के दिन
कहाँ कठिन थे
’राजनीति’ को छोड़ो
कैसे अच्छे दिन थे।
टीलों पर,
रथ ले अपना
भाग निकलते थे,
अब विमान में डर है
नौ ग्यारह फिर आये;
घसीटते जीवन को,
बोर हुई यात्रायें,
जेटलेग के मारे
नींद रुष्ट हो जाये;
इंटरनेट बिना भी
न थी झंझट कहीं भी
सभी खुले में होते
जश्न, कहाँ केबिन…
ContinueAdded by Harihar Jha on September 21, 2018 at 1:30pm — 8 Comments
उनके आने से सांस चल रही है
वर्ना लगता था सांझ ढल रही है
अपनी किस्मत कहाँ थी ऐसी पर
जो मांगी थी दुआ फल रही है
हौसले भी थे और यकीं भी था
बुझने वाली थी शमा जल रही है
वक़्त का क्या है कुछ नहीं मालूम
दिक्क़त आजकल तो टल रही है
एक दिन ख़त्म होगी मायूसी
ऐसी उम्मीद दिल में पल रही है !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on September 20, 2018 at 4:57pm — 4 Comments
२२१/१२२२/२२१ /१२२२
इस द्वार गड़े मुर्दे उस द्वार गड़े मुर्दे
जीवन में लड़ाते हैं क्यों यार गड़े मुर्दे।१।
हर बार नया मुद्दा पैदा तो नहीं होता
देते हैं सियासत को आधार गड़े मुर्दे।२।
मौसम है चुनावी क्या राहों में खड़ा यारो
लेने जो लगे हैं फिर आकार गड़े मुर्दे।३।
भाता नहीं जिनको भी याराना जमाने में
लड़ने को उखाड़ेंगे दो चार गड़े मुर्दे ।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2018 at 10:00am — 16 Comments
"मेरे पास अभी कुछ भी नहीं है जमा करने के लिए सर, आप बताईये क्या करूँ", सामने बैठी लड़की ने बड़ी मायूसी से कहा और एक प्रार्थना पत्र मेज पर रख दिया. उसने प्रार्थना पत्र उठाया और पढ़ने लगा, नीचे लिखे नाम पर उसकी नजर अटक गयी "नाज़िया खान". अरे यह तो वही लड़की है जिसकी सब बहुत तारीफ़ करते थे कि इतनी गरीब होने के बाद भी हमेशा शिक्षा ऋण की किश्त जमा करती है.
"क्या हो गया नाज़िया, तुम तो हमेशा समय पर पैसे जमा करती थी. और तुम्हारा ऋण खाता भी तो रेगुलर है?, उसके मन में कारण जानने की जिज्ञासा होने लगी.…
Added by विनय कुमार on September 19, 2018 at 6:42pm — 14 Comments
नववर्ष के रात्रिकालीन जश्न में मनमाफ़िक़ सेवन करने के साथ ही 'गरमा-गरम मंच' से मुख़ातिब हुए वे दोनों डकार मारते हुए आपस में चर्चा करने लगे :
"वाह.. नशा छा रहा है... मज़ा आ रहा है... !"
"कबाब उड़ाने के बाद तुझे तो शबाब से सराबोर इस नृत्य में भी 'जन्नत' ही नज़र आ रही होगी न!"
"तू तो कलमकार है! शराब के नशे में भी तुझे तो इस 'नंगी' सी नर्तकी में नंगी हो रही 'इंसानियत', 'हैवानियत' या 'तहज़ीब' के "बिम्ब" नज़र आ रहे होंगे या 'डिम्ब'! मुझे तो जिम में तराशे गये हर 'लिम्ब' की हर हरक़त में…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on September 19, 2018 at 6:30pm — 5 Comments
तुम या तो बन जाओ किसी के, या उसको अपना बना के देखो, जीवन महकेगा फूलों सा, प्रेम सुधा तुम पीकर देखो ।। क्या खोया है क्या पाया… |
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 19, 2018 at 6:00pm — 4 Comments
सौदागर
” प्रोफेसर सैन और प्रोफेसर देशपांडे सरकारी मुलाजिम हैं, तनख्वाह भी एकै जैसी मिलत है लेकिन ई दुइनो जब से निरीक्षक भइ गए हैं तब से प्रोफेसर सैन तो बड़ी बड़ी लग्जरी गाड़ियों में दौरा करत है और बड़े आलीशान होटलों में बसेरा करत हैं लेकिन ..लेकिन बेचारे देशपांडे कभी धर्मशाला में ठहरत हैं तो कभी सरकारी गेस्ट हाउसन में ...कभी ऑटो से चलत हैं तो कभी बस में ....जब सब सुख सुबिधा बरोबर है तब ई फरक काहे है ई बात तनिक हमरी समझ में नाहीं आवत है “ राहुल ने अपने मित्र सुजीत से बडी…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 19, 2018 at 1:54pm — 9 Comments
खाता क्यों है खार पड़ौसी
क्या मन है बीमार पड़ौसी।१।
इतनी जल्दी भूल गया क्यों
बचपन के हम यार पड़ौसी।२।
सच जाने पर खूब करे क्यों
बेमतलब तकरार पड़ौसी।३।
जो कहना है सम्मुख कह दे
मत कर पीछे वार पड़ौसी।४।
जबरन हम तो नहीं घुसेंगे
क्यों ढकता है द्वार पड़ौसी।५।
लड़ना भिड़ना पागलपन है
इसमें सब की हार…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 19, 2018 at 12:02am — 16 Comments
उसको आये लगभग आधा घंटा हो चुके थे, रोज की तरह आज भी आने में देर हो गयी थी. दिन पर दिन काम का बढ़ता बोझ और ऊपर से नया बद्तमीज बॉस, रात होते होते ही वह छूट पाता था. हमेशा गुस्से में रहने वाला उसका दिमाग अब तो और भी गरम रहता, शाम को आने के बाद कोई उसके पास भी नहीं फटकता था. अकेले टी वी के सामने बैठकर चाय पीना और घटिया सीरियल देखकर समय काटना उसकी दिनचर्या बन गयी थी. लेकिन आज गणपति विसर्जन और उससे जुड़े कार्यक्रम उसको काफी सुकून दे रहे थे.
दूसरे कमरे में रिंकी अपनी माँ के पास खड़ी थी, दोनों की…
Added by विनय कुमार on September 18, 2018 at 2:30pm — 16 Comments
पति ब्रांड ...
बिखरे बाल
हाथ में झोला
कई जगह से
पैबंद लगा
कुर्ते का चोला
न जाने ऊपर वाले को
क्या सूझा कि
पत्नी के अखाड़े में
पति को पेल दिया
अच्छे…
Added by Sushil Sarna on September 18, 2018 at 1:00pm — 10 Comments
शोर भौरों का सुनोगे
तितलियाँ अब मौन हैं
रक्त रंजित हो उठा मन
रोज के अख़बार से
हर कली सहमी हुई है
आह अत्याचार से
इस चमन में भेड़ियों से
आदमी ये कौन हैं
शोर भौरों का सुनोगे
तितलियाँ अब मौन हैं
प्रीत का संगीत गुमसुम
भाव के व्यापार में
सत्य का उपहास करता
छल कपट संसार में
प्रेम है अनुबंध जैसा
प्रेम परिणय गौण है
शोर भौरों का सुनोगे
तितलियाँ अब मौन हैं
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 17, 2018 at 6:00pm — 17 Comments
आपकी ओर से जब पहल हो गई
जिंदगी मेरी' कितनी सरल हो गई
उस तरफ आँख से एक मोती गिरा
इस तरफ आँख मेरी सजल हो गई
आपके रूठने का ये’ हासिल रहा
गुफ्तगू कम से’ कम, पल दो’ पल हो गई
…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on September 17, 2018 at 7:30am — 14 Comments
"नहीं, मुझे न तो फोटो लेने चाहिए और न ही वीडियो क्लिप बनाने की कोशिश!" यह सोचकर उसने अपना स्मार्ट फोन वापस जेब में रखा और सड़क पर मौत से लड़ती युवती को घेरे भीड़ को चीरता आगे निकल गया।
"किसी अपराध को होते देख लो, या पीड़ित को तड़पते देखो, तो चुप्पी साधकर ऐसे बन जाओ, जैसे कि कुछ देखा ही नहीं!" परिवार व दफ़्तर के सहकर्मियों और पुलिस-कोर्ट से दो-चार हो चुके तज़ुर्बेकार दोस्तों की हिदायतें याद आ रहीं थीं उसको!
थोड़ा आगे चलने पर उसे उसके पिताजी मिल गये। पूरी घटना उसने पिताजी को…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 16, 2018 at 10:30pm — 9 Comments
"नेताजी, आज मुश्किल से तुम टाइम निकाल कर हमें इस पार्क में लाये हो, कुछ तो अच्छी बातें करो यहां, देश-दुनिया की छोड़ कर!" कमली ने अपने पति के कंधे पर सिर टिका कर कहा।
"पहले तो तुम यहां हमें 'नेताजी' के बजाय कुछ और कहो! ... उकता गया इस संबोधन और उबाऊ भाषणों से!"
"तो तुम पहले अपना नाम बदल लो, सब जगह के नाम तो बदले जा रहे हैं न! सहेलियों में 'रामनारायण' बताने में शरम सी आती है अब!"
"अब इस उमर में अपना नाम कैसे बदलें पगली!"
"बेटों के तो बदल गये विदेश में! बड़े को 'रामलाल' के बजाए…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 16, 2018 at 4:39am — 9 Comments
कहने को तो बहुत कुछ है हमारे पास भी
ये बात अलग है कि कहते बनता नहीं
ऐसा भी नहीं कि कहना जानते नहीं
शब्द भंडार भी है अथाह अपार
वाक्य विन्यास का सारा सार
फिर भी ऐसा कुछ है निःसन्देह
रोक लेता है जुबान को
लफ्ज़-ए - ब्यान को
ठीक वैसे ही जैसे जानकी
सतीत्व- प्रमाणिकता बनाम
विश्वास भरोसे संवारने हेतु
अग्नि -परीक्षा के लिए तत्पर
क्या क्या नहीं बोल सकती थी
पूरा मुख खोल सकती…
ContinueAdded by amita tiwari on September 16, 2018 at 2:00am — 11 Comments
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