हौंठ सीं गर्दन हिलाना आ गया.
दोस्त ! जीने का बहाना आ गया.
जिन्दगी में गम मुझे इतने मिले,
अश्क पीकर.. मुस्कुराना आ गया.
ख्वाब सब आधे अधूरे रह गए,
दर्द सीने में ...बसाना आ गया.
दर्द के किस्से सुनाऊँ किस तरह,
गीत गज़लें गुनगुनाना आ गया.
साथ रहने का असर भी देखिये,
आप से बातें छिपाना आ गया.
हादसों ने पाल रख्खा है मुझे.
मौत से बचना बचाना आ…
Added by harivallabh sharma on September 8, 2014 at 9:10pm — 18 Comments
Added by Poonam Shukla on September 8, 2014 at 8:24pm — 8 Comments
“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “
22 22 22 22 22 22 22 2
लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए
मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?
आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की
बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए
हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है
परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए
पत्ते - डाली ही काटे हैं , जड़ें वहीं की वहीं रहीं
इसी लिए तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 8, 2014 at 6:30pm — 25 Comments
बन के अजनबी वो अक्सर मेरे दर से गुजरते हैं
फ़कत दीदार को खुद को रस्तों से जोड़ रक्खा हैं
दिल की दरियादिली दर्पण-सी सच्ची देखकर
घर के आईनों में तेरी तस्वीर को जोड़ रक्खा हैं
हकीकत की सतह से उस चाँद को देख रक्खा है..
खुदा के उस हसीं अजूबे से नाता जोड़ रक्खा है
कहने को तो उन्होने बहुत कुछ छोड़ रक्खा है...
चाहत की चिट्ठी को लिफाफों में मोड़ रक्खा है..
हवाओं के सहारे खुशबू कुछ इस तरफ़ आयी....
मैंने भी तेज नजरो…
ContinueAdded by anand murthy on September 8, 2014 at 6:00pm — 2 Comments
2122 2122 2122 2122
****
हौसला देते न जो ये पाँव के छाले सफर में
हर सफर घबरा के यारो, छोड़ आते हम अधर में
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एक भटकन है जो सबको, न्योत लाती है यहाँ तक
कौन आता है स्वयं ही, यार दुख के इस नगर में
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एक वो है पालती जो, काजलों के साथ आँसू
कौन रख पाता भला अब, सौतने दो एक घर में
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आशिकी की इंतहाँ ये, खुदकुशी का शौक मत कह
हॅसते-हॅसते डाल दी जो किश्तियाँ उसने भवर में
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खो गया चंचलपना सब,…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 8, 2014 at 12:00pm — 8 Comments
हमारे दर्द को दुनियाँ तमाशो में न गा जाये
बजा ताली सभी झूमें हमारा दर्द भा जाये
न आये है किनारे पर अभी ठहरा समुन्दर है।
बड़ी खामोश लहरे हैं कहीं तूफाँ न आ जाये।।
सहेगें जुल्म अब कितना बड़ा जालिम हुआ हाकिम।
पड़ी थी लाश सड़को पे कफन वो बेच खा जाये।।
सभालो अब वतन अपना तबाही का दिखे मंजर
घरों में आज खुशियाँ है कहीं मातम न छा जाये
जला कर आस का दीपक न जाओ छोड़ कर हमको '
कुचलने का हमारा सिर न दुश्मन मौका पा जाये
मौलिक…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on September 8, 2014 at 11:00am — 11 Comments
सर दाँव पे लगा के अब खेल खेल देखें ।
अपना नसीब देखें, उनकी गुलेल देखें ।
शायद उठे भड़क ही कोई दबी चिंगारी
चल राख हौसलों की परतें उधेल देखें ।
चेहरे सफ़ेद सबको कमज़ोर कर रहे हैं
इन बूढ़े नायकों को पीछे धकेल देखें ।
उद्दंड अश्व खाईं की ओर जा रहे हैं
हाथों में अपने लेकर इनकी नकेल देखें ।।
क्या सूखते दरख्तों का हाल पूछते हैं
हर ओर सर उठाये है अमरबेल देखें ।।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Sulabh Agnihotri on September 7, 2014 at 6:00pm — 11 Comments
२१२२ २१२२ २१२२
ख्वाब जब दिल में हसीं पलने लगे है
अजनबी दो साथ में चलने लगे हैं
इश्क कोई अनबुझी सी है पहेली
जब हुआ सावन में तन जलने लगे हैं
वक़्त के अंदाज बदले यूं समझ लो
हुश्न आते पल्लू भी ढलने लगे हैं
आप के शानो पे सर रखते कसम से
लम्हे मेरी मौत के टलने लगे हैं
जिस घड़ी ओंठो को गुल के चूम बैठा
उस घड़ी से भौरों को खलने लगे हैं
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr Ashutosh Mishra on September 7, 2014 at 4:30pm — 11 Comments
बदलना
अच्छा है ....पर एक हद तक
और वो हद
खुद तय करनी होती है
ऐसी हद जिसके भीतर
किसी का दिल न टूटे
कोई रोये न....बीते लम्हें याद कर
वादे याद कर मलाल न करे
वो हद जो
दूर करे पर नफरत न पलने दे
याद रहे पर इंतज़ार न रहने दे
रिश्तों में बदलना
कभी भी सुख नहीं देता
चुभन...दर्द...अफ़सोस और
बेचैनी लिए
पल-पल ज़िन्दगी गिनता है
इन सब से परे
कितना आसान…
ContinueAdded by Priyanka singh on September 7, 2014 at 3:07pm — 5 Comments
आसमानी फ़ासले
बच्चों-सा स्वप्निल स्वाभाविक संवाद
हमारी बातों में मिठास की आभाएँ
ताज़े फूलों की खुशबू-सी निखरती
सुखद अनुभवों की छवियाँ ...
हो चुकीं इतिहास
समय-असमय अब अप्रभाषित
शून्य-सा मुझको लघु-अल्प बनाती
अस्तित्व को अनस्तित्व करती
निज अहं को आदतन संवारती
आलोचनाशील असंवेदनशीलता तुम्हारी
अब बातें हमारी टूटी कटी-कटी ...
बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार
मानवीय…
ContinueAdded by vijay nikore on September 7, 2014 at 2:00pm — 21 Comments
Added by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 2:00pm — 12 Comments
Added by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 1:30pm — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
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रहे अरमाँ अधूरे जो, लगे मन को सताने फिर
चला है चाँद दरिया में हटा घूँघट नहाने फिर /1/
***
नसीहत सब को दें चाहे बताकर दिन पुराने फिर
नजारा छुप के पर्दे में मगर लेंगे सयाने फिर /2/
***
उन्हें मौका मिला है तो, करेंगे हसरतें पूरी
सितारे नीर भरने के गढे़ंगे कुछ बहाने फिर /3/
***
छुपा सकता नहीं कुछ भी खुदा से जब करम अपने
रखूँ मैं किस से पर्दा तब बता तू ही…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 7, 2014 at 10:30am — 8 Comments
न होना दूर नज़रों से कसम हमको खिलाती थी
न दे जब साथ लब उसके इशारो से बुलाती थी
किताबों में छुपाती थी दिया हमने जो दिल उसको
बचा नज़रे सभी की वो उसे दिल से लगाती थी
चुरा नज़रे सभी की हम मिले जब बाग में इक दिन
लगा कर वो गले हमको बढ़ी धड़कन सुनाती थी
कभी आँखों मे डाले अाँख कर देता शरारत तो
चुरा कर वो नज़र हमसे जरा सा मुस्कुराती थी
न भूलेगे कभी हम तो बिताये साथ पल उसके
छुपा कर चाँद सा मुखड़ा हमें हरदम सताती…
Added by Akhand Gahmari on September 6, 2014 at 8:30pm — 20 Comments
बरामदे की सीढ़ियाँ देख , कजरी नीचे खड़ी हो गई , संकोच वश उसके कदम ऊपर बढ़ ही नहीं रहे थे ॥ लाली ने उसको पुकारा -'आओ ना , वहाँ क्यों खड़ी हो ? कजरी सकुचाते हुये बोली -' का है कि हम छोट जात है न , और हंम लोगन का बड़े लोगन के घर की चौखट के भीतर नहीं जाना होत है अइसा हमारी माई कहे रही !!' लाली ने उसका हाथ पकड़ा और ऊपर खींच लिया , ' चलो भी !! ' अंदर पहुँच कर बड़ी सी हवेली देख कजरी की अंखे चौंधिया गई । ' लागे है बहुत बड़े लोग हैं ' मन मे सोचा उसने । धीरे धीरे अंदर बढ़ती गई एक कमरे का किवाड़ थोड़ा खुला…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 6, 2014 at 6:30pm — 11 Comments
२१२२/ २१२२/२१२२/२१२
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जाने कितने ग़म उठाता हूँ ख़ुशी के नाम पर,
ज़हर मै पीता रहा हूँ तिश्नगी के नाम पर.
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ऐ सिकंदर!! जंग तूने जो लड़ी, कुछ भी नहीं,
जंग तो मै लड़ रहा हूँ ज़िन्दगी के नाम पर.
.
अधखिली कलियों की बू ख़ुद लूटता है बागबाँ,
शर्म सी आने लगी है आदमी के नाम पर.
.
शुक्रिया उस शख्स का जिसने बना…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on September 6, 2014 at 5:25pm — 27 Comments
पीर पंचांग में सिर खपाते रहे ।
गीत की जन्मपत्री बनाते रहे ।
हम सितारों की चैखट पे धरना दिये
स्वप्न की राजधानी सजाते रहे ।
लाख प्रतिबंध पहरे बिठाये गये
शब्द अनुभूतियों के सखा ही रहे
आँसुओं को जरूरत रही इसलिये
दर्द के कांधे के अँगरखा ही रहे
श्वास की बाँसुरी बज उठी जब कभी
हम निगाहें उठाते लजाते रहे।।
पर्वतों से मचलती चली आ रही,
गीत गोविन्द मुग्धा नदी गा रही,
पांखुरी-पांखुरी खिल गई रूप की
भोर लहरा रही, चांदनी गा…
Added by Sulabh Agnihotri on September 6, 2014 at 5:11pm — 8 Comments
1222 1222
बुजुर्गों की कमाई में
थी बरकत पाई पाई में
न दुख है ना परेशानी
ख़ुदा से आशनाई में
दिवारों को बना दे घर
हुनर है वो लुगाई में
जहां में पाठ निकले झूठ
थे शामिल जो पढ़ाई में
हम आके शहर पछताए
लुटे हम तो दवाई में
रहे ना जिस्मो जां साबुत
उसूलों की लड़ाई में
ज़मी ज़र जोरू की खातिर
दिवारें भाई भाई में
तू भी गुमनाम दूरी रख
मिले ना कुछ भलाई में
मौलिक व अप्रकाशित
Added by gumnaam pithoragarhi on September 6, 2014 at 4:27pm — 7 Comments
भाईचारा बढ़े संग हम सब त्योहार मनायें।
इक ही घर परिवार शहर के हैं सबको अपनायें।
क्यूँ आतंक घृणा बर्बरता गली गली फैली है।
क्यों बरपाती कहर फज़ा यह तो यहाँ बढ़ी पली है।
पैठी हुईं जड़ें गहरी संस्कृति की युगों युगों से,
आयें कभी भी जलजले यह कभी नहीं बदली है।
भूले भटके मिलें राह में, उनको राह बतायें।
भाईचारा बढ़े---------------
दामन ना छूटे सच का ना लालच लूटे घर को।
हिंसा मज़हब के दम जेहादी बन शहर शहर…
ContinueAdded by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 6, 2014 at 12:23pm — 2 Comments
पानी को तलवार से काटते क्यों हो ?
हिन्दी हैं हम सब, हमे बांटते क्यों हो ?
चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,
सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ?
हो सभी को आईना फिरते दिखाते ,
आईने से खुद मगर भागते क्यों हो ?
गर करोगे प्यार , बदले वही पाओगे,
वास्ता मजहब का दे, मांगते क्यों हो ?
भर लिया है खूब तुमने तिजोरी तो ,
चैन से सो, रातों को जागते क्यों हो ?
दाम कौड़ियों के हो बेचते सच को
रोच परचम झूठ का…
Added by Neeraj Neer on September 6, 2014 at 11:48am — 16 Comments
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