दोहा त्रयी : सागर
सागर से बादल चला, लेकर खारा नीर ।
धरती को लौटा रहा, मृदु बूँदों का क्षीर ।।
जाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर ।
पीते -पीते हो गया , खारा उसका नीर ।।
लहरों से गीले सदा, रहते सागर तीर ।
बन कर कितने ही मिटे, यहाँ स्वप्न प्राचीर ।।
सुशील सरना / 31-10-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 31, 2022 at 12:51pm — 10 Comments
शिष्टाचार ही मिलती है पागलपन नहीं मिलता
गैरों की बोली में अपनापन नहीं मिलता
अपनी भाषा माँ का आँचल याद हमेशा आती है
द्वेष,क्रोध,विलाप हो जितना, हर भाव समझाकर जाती है
पर भाषा के बल पर चाहे समृद्ध जितने भी हो जाओ
पर वहाँ पर डटें रहने की दृढ़ता अपनी भाषा से हीं पाओ
किराए के मकान में कभी आँगन नहीं मिलता
गैरों की बोली में अपनापन नहीं मिलता
चाहे जितना लेख लिखो तुम, चाहे जितने…
ContinueAdded by AMAN SINHA on October 31, 2022 at 9:38am — No Comments
2122 2122
यूँ मुहब्बत हो गई है
गोया आफ़त हो गई है
बिन बताये जा रही हो
इतनी नफ़रत हो गयी है?
तुम भी चुप हो, मैं भी चुप हूँ
एक मुद्दत हो गयी है
नींद क्योंकर आए हमको?
अब तो उल्फ़त हो गयी है
पास मेरे आ गयी तुम
थोड़ी राहत हो गयी है
यूँ ख़ुदी से लड़ रहा हूँ
ज्यूँ बग़ावत हो गयी है
'ज़ैफ़' उसके जाते ही ये
क्या क़यामत हो गयी है!
(मौलिक…
ContinueAdded by Zaif on October 29, 2022 at 4:36am — 10 Comments
कुंडलियां*
हर घर की मुंडेर पर,
दीप जले चहुँ ओर।
दीवाली की रात है,
बाल मचाएं शोर।
बाल मचाएं शोर,
शोर ये बड़ा सुहाना।
भूलचूक सब भूल,
रहा लग गले जमाना।
खाओ रे *'कल्याण',*
मिठाई डिब्बे भर - भर।
खुशियाँ मिली अपार,
हुआ है रोशन हर घर।
*दोहा*
बढ़ें उजाले की तरफ,
हम सबके ही पांव।
इस दीवाली ना रहे,
अंधेरे में गांव।।
मौलिक एवम् अप्रकाशित
सुरेश कुमार 'कल्याण'
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 27, 2022 at 8:34pm — No Comments
संतरी
कई पहरेदार बदले,पर हालत नहीं बदली। मंदिर के सामान गायब होते रहे। हारकर पंचायत ने काली कुतिया के जने कजरे को संतरी बहाल किया।कारण था कि कजरा रात भर में गाँव के सभी दरवाजों पर भौंक आता था। यह भी तय हुआ कि अब कुत्तों को ‘संतरी’ कहा जाएगा। आदमी पर से भरोसा उठ चुका था।
कजरा काम पर लग गया। रातभर मंदिर के आसपास घूमता। भौंकता। गाँव भर के ‘संतरी’ भी भौंकते।लेकिन अब नित नई-नई शिकायतें आने लगीं।
‘मंदिर के…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on October 27, 2022 at 11:06am — 2 Comments
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।
हैं अधर पर प्यास के अंगार आ जाओ।।
*
नित्य बदली छोड़ कर अम्बर।
बैठ जाती आन पलकों पर।।
धुल न जाये फिर कहीं शृंगार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
शूल सी चंचल हवाएँ सब।
हो गयीं नीरस दिशाएँ सब।।
है बहुत सूना हृदय संसार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ जाओ।।
*
हो गयी बोझिल पलक जगते।
आस खंडित आस नित रखते।।
कौल को अब कर समन्दर पार आ जाओ।
खोल रक्खा है निमोही द्वार आ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 26, 2022 at 6:16am — 14 Comments
अबके बरस जो आओगे, तो सावन सूखा पाओगे
सूख चुके इन नैनों को तुम, और भींगा ना पाओगे
और अगर तुम ना आए, प्यास ना दिल की बुझ पाए
पत्थराई नैनों सा फिर, दिल पत्थर ना हो जाए
अबके बरस जो आओगे, बसंत शुष्क सा पाओगे
मन के उजड़े बागीचे में, एक फूल खिला ना पाओगे
और अगर तुम ना आए, अटकी डाली ना गिर जाए
सूखे मुरझाए मन को मेरे, पतझर हीं ना भा…
ContinueAdded by AMAN SINHA on October 25, 2022 at 1:12pm — 1 Comment
कफनचोर
‘छोड़ा ही क्या है इसने?’
‘घर के पिछवाड़े तक की जमीन बेच दी।’
‘भुवन के घर की यारी ऐसे ही फलती है।’
‘भगेलू की भौजाई से रिश्ता था इसका।’
‘मरने लगा तो बहन के घर इलाज कराने गया था।’
शीला मरा पड़ा था और गाँव के मर्द-औरत यही सब बतिया रहे थे। अर्थी तैयार हुई।लाश उसपर रख दी गई।अब अर्थी उठने ही वाली थी कि सब लोग चौंक गए। ‘ठहरो। अर्थी नहीं उठेगी।’ भार्गव ज़ोर से चिल्लाया। साथ…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on October 23, 2022 at 3:55pm — 6 Comments
अरकान : 2122 2122 212
ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ
तुहमतें, रुसवाइयाँ, नाकामियाँ
आए थे जब हम यहाँ तो आग थे
राख हैं अब, उठ रहा है बस धुआँ
दिल लगाने की ख़ता जिनसे हुई
उम्र भर देते रहे वो इम्तिहाँ
सोचता हूँ क्या उसे मैं नाम दूँ
जो कभी था तेरे मेरे दरमियाँ
मैं अकेला इश्क़ में रहता नहीं
साथ रहती हैं मेरे तन्हाइयाँ
कहने को तो कब से मैं आज़ाद हूँ
पाँव में अब भी हैं लेकिन…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on October 23, 2022 at 6:30am — 13 Comments
आज मैखाने का दस्तूर अज़ब है साक़ी |
जाम दिखता नहीं पर बाकी तो सब है साक़ी ।
मयकशी के लिए अब मैं भी चला आया हूँ
तेरी आँखों से ही पीने की तलब है साक़ी|
भूल जाता हूं मैं दुनिया के सभी रंजो अलम
जाम नज़रों का तेरे हाय गज़ब है साक़ी|
अपनी आँखों से ही इक जाम पिला दे मुझको
तेरे मयख़ाने में ये आख़िरी शब है साक़ी|
तेरी चौखट की तो ये बात निराली लगती
जाति मजहब न कोई नस्ल–नसब है…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on October 22, 2022 at 9:30pm — 5 Comments
अपनी अपनी खुशी
ऊँचका घर यानि बाबा घर में लंबी प्रतीक्षा के बाद पोता हुआ है।पोतियाँ पहले से हैं। परिवार के कुछ लोग शहर से आए हैं। मिठाइयाँ बंट रही हैं। मुहल्ले के लोग मिठाई खाते,खुशी का इजहार करते। कोई कहता, ‘बस यही कमी…
Added by Manan Kumar singh on October 20, 2022 at 6:00pm — 4 Comments
गीत
*****
उजाला कर दिया उसने
चलें उस ओर हम-तुम भी।।
*
तमस के गाँव में रह कर
सदी बीती हमारी भी।
अभी तक ढो रहे हैं बस
वही थोपी उधारी भी।।
*
नहीं प्रयास कर पाये
कभी इससे निकलने का।
बढ़ाया हाथ उस ने जब
लगायें जोर हम तुम भी।।
**
न जाने कौन सी ग्लानी
मिटा उत्साह देती नित।
नहीं साहस जुटा पाता
सँभलने का हमारा चित।।
*
सफलता है नहीं आयी
भला क्यों पथ हमारे ही।
तनिक मष्तिष्क से…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 19, 2022 at 3:30am — 15 Comments
हुस्न-ए-ग़ज़ल
2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2
है ग़ज़लगोई यार की बातें
शे'र सुनना ख़ुमार की बातें
शे'र पढ़ना हसीं तरन्नुम में
जैसे हों लालाज़ार की बातें…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on October 19, 2022 at 12:11am — 11 Comments
लाल रुमाल
‘रेल लाइन पर भिनुसार वाली गाड़ी से एक औरत कटी मिली। हाथ में लाल रुमाल था .... उसपर हरे रंग में लिखा था ... जगदीश।’ सुबह होते यह खबर सारे गाँव में फैल गई। ‘कौन ? कहाँ की?’ जैसे सवाल हवा में तैरने लगे। रेल लाइन के पास ही गाँव के बड़े ब्रह्म के चबूतरे पर कुछ औरतें इकट्ठा हैं; कुछ बाबा को पूजने आई हैं, कुछ घसियारिनें हैं। चिड़ई भौजी उनसे मुखातिब हैं। एक…
Added by Manan Kumar singh on October 18, 2022 at 1:30pm — 8 Comments
गीतिका
आधार छंद - चौपई (जयकरी छंद )-15 मात्रिक -पदात-गाल
साँसें जीवन का शृंगार ।
बिना साँस सजती दीवार ।
कब जीवित का होता मान ,
चित्रों को पूजे संसार ।
मिलता अपनों से आघात ,
इनका प्यार लगे बेकार ।
पल-पल रिश्ते बदलें रूप ,
मतभेदों से पड़ी दरार ।
बड़ा अजब जग का दस्तूर ,
भरे प्यार में ये अंगार ।
सुशील सरना / 17-10-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 17, 2022 at 5:40pm — 10 Comments
भूख लगती है कभी जो, याद इसकी आती है
ना मिले तो पेट में फिर, आग सी लग जाती है
राजा हो या रंक देखो, इसके सब ग़ुलाम है
तीनो वक़्त खाने से पहले, करते इसे सलाम है
रुखी-सुखी जैसी भी हो, पेट यह भर जाती है
चाह में अपनी हर किसी, को राह से भटकाती है
जिसने इसको पा…
ContinueAdded by AMAN SINHA on October 17, 2022 at 11:21am — 3 Comments
1212 / 1122 / 1212 / 22(112)
हूँ किसके ग़म का सताया न पूछिये साहिब
जफ़ा-ए-इश्क़ का क़िस्सा न पूछिये साहिब [1]
तमाम उम्र उसे दूर से ही देख के बस
सुकून कितना है पाया न पूछिये साहिब [2]
लहू भी थम सा गया दर्द को भी राहत…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on October 16, 2022 at 1:06pm — 13 Comments
भाई
‘बुल्लु की शादी का कर्ज़ अभी सिर पर है..... और वह मर गई।’ इतना कह चेंथरु लगा फफक पड़ेगा, पर उसने अंदर के तूफान को थाम लिया।शायद पड़ोस के भाई से झिझक हो कि शिकायत हो जाएगी।पर, उसकी आँखें भींग गई थीं। अँधेरे में भी उसकी आवाज सब कुछ जाहिर कर रही थी।
‘दुख हुआ सब सुनकर, चेंथरु।’ ढाढस बांधते हुए मास्टर जी बोले।
‘भइया, कोई पूछेवाला नहीं था कि कुछ मदद चाहिए…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on October 16, 2022 at 11:49am — 3 Comments
जिज्ञासा
पार्क से आते ही मोनू ने सवाल किया, ‘पापा, अपनी कार रात को झुग्गीवाले मुहल्ले में क्यों जाती है?’
‘बिजनेस के सिलसिले में?’
‘तो उसमें चढ़कर लड़कियाँ कहाँ जाती हैं?’
‘काम पर, बेटे।’ सेठ ने बेटे को संतुष्ट करना चाहा।
‘रात को कौन-सा काम होता है,पापा?’
‘ढेर-सारे काम हैं,बेटे।जैसे कॉल सेंटर वगैरह,जो रात…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on October 15, 2022 at 5:53pm — 7 Comments
एडमिशन
‘मम्मी, मेरा एडमिशन………।' कॉलेज से आती बबली अपनी बात पूरी करती कि फोन की घंटी घनघनाई, ‘....ट्रीन..ट्रीन..।' मालती ने फोन उठाया। बबली अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।
‘हेलो मालती, मैं सुविधा बोल रही हूँ। सुविधा ठक्कर।'
‘हाँ बोलो।' मालती ने बेरुखी से कहा।
‘तुम मिली समीर से?’
‘सोचती हूँ,मिल ही लूँ।'
‘अभी सोच ही रही है तू?’ सुविधा ने जरा डपट कर…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on October 12, 2022 at 4:51pm — 14 Comments
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