2122 2122 2122 212
सिलसिले उनके छिपे, कांटो से भी मिलते गये
फिर भी ऐसा क्यों हुआ वो फूल सा खिलते गये
राह मे दुश्वारियां थीं जब चले थे घर से हम
बिन रुके चलते रहे तो रास्ते मिलते गये
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 12, 2013 at 9:30pm — 32 Comments
१२२/१२२/१२२/१२२
न समझो लड़ाई वो हारा हुआ है,
उसे हारने का इशारा हुआ है.
***
उसे चाँद तारों की संगत मिली थी,
वो आवारगी में हमारा हुआ है.
***
मरूँगा, बचूंगा, नहीं है पता ये,
मगर वार दिल पे, करारा हुआ है.
***
बचा है वो ऐसे, जिसे डूबना था,
कि फिर कोई तिनका सहारा हुआ है.
***
सिकुड़ने लगा है मेरा आसमां अब,
नज़र से नज़र तक, नज़ारा हुआ है.
***
वो आतिशफिशा था, मगर अब ये…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on December 12, 2013 at 9:17am — 44 Comments
1-मरणोपरांत
भूख से मरा था
शायद! इसीलिए
मरणोपरांत अखबार में
फ़ोटो छपी है
२-लाभ
आपके हीरे कि अँगूठी से अच्छा तो मेरा
मिट्टी का दीपक है
कम से कम
रात में प्रकाश तो फैलाता है
३-सौदा
आज उसके बच्चे भूखे नहीं सोये
वो कह रहा था
कुछ फर्क नहीं पड़ता
थोड़ा रक्त बेचने पर
४-तृप्ति
भूख शांत हो गयी
जली रोटी थी तो क्या? हुआ…
Added by ram shiromani pathak on December 12, 2013 at 12:21am — 27 Comments
रात का दूसरा पहर
दूर तक पसरा सन्नाटा और
गहरा कोहरा
टिमटिमाती स्ट्रीटलाइट
जो कोहरे के दम से
अपना दम खो चुकी है लगभग
कितनी सर्द लेहर लगती है
जैसे कोहरे की प्रेमिका
ठंडी हवा बन गीत गाती हो
झूम जाती हो
कभी कभी हल्के से
कोहरे को अपनी बाहों में ले
आगे बढ़ जाया करती
पर कोहरा नकचढ़ा बन वापस
अपनी जगह आ बैठता
ज़िद्दी कोहरा प्रेम से परे
बस अपने काम का मारा
सर्द रात में खुद का साम्राज्य
जमाये है हर…
Added by Priyanka singh on December 11, 2013 at 10:00pm — 41 Comments
है वही रास्ते
पथरीले चौड़े
पतले पक्के
घट गये रास्ते
बढ़ गयी दूरियाँ
है वही गिलास
शरबतों से भरे
शराब से खाली
नशा प्यार का
नशा नशा का
दरवाजों पे दरबार
मन की शांति
मन का तनाव
भूला प्यार
बचा टकरार
वही है रिश्ते
निभाने की होड़
दिखावट की होड़
मदद चाहत
मदद डर
प्रेम है वहीं
मन का मिलन
तन का मिलन
समर्पित हम
धन…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on December 11, 2013 at 9:00pm — 13 Comments
अमृता प्रीतम जी और ईश्वर
कई लोग जो अमृता प्रीतम जी की रचनाओं से प्रभावित हैं अथवा उनके जीवन से परिचित हैं, उनकी मान्यता है कि अमृता जी विधाता में विश्वास नहीं करती थीं। इस कथन में वह ठीक हैं भी और नहीं भी। यह इसलिए कि अमृता जी का लेखक-जीवन इतना लम्बा था कि यह मान्यता इस पर निर्भर है कि वह कब किस पड़ाव में से गुज़रीं, और उनकी उस पड़ाव के दोरान की रचनाएँ क्या इंगित करती हैं।
अमृता जी की रचनाओं के लिए असीम श्रद्धा के नाते और जीवन को उनके समान असीम…
ContinueAdded by vijay nikore on December 11, 2013 at 5:30pm — 18 Comments
मुश्किल काम होता है
चढ़ाये रखना ,
लगातार बहुत समय तक
सजावट को ,
रह पाये कोई अगर तुम्हारे साथ
अधिक समय तक
लगातार, तो
फीकी पड़ने लगेंगी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 11, 2013 at 5:00pm — 27 Comments
२१२ २१२ २१२ २१२
रात को चाँद फिर आयेगा देखिये
आके दिल फिर जला जायेगा देखिये
हम रहेंगे खड़े रात भर छत पे ही
बादलों में वो छुप जायेगा देखिये
अपने दीवानों पे रोज ही इस तरह
चांद क्या क्या सितम ढायेगा देखिये
हम जिसे भूल पाए कभी हैं नहीं
किस तरह वो भुला पायेगा देखिये
रंग गिरगिट के जैसे बदलता है जो
कैसे वादे निभा पायेगा देखिये
चांदनी बन जमी पर उतरता रहा
खुद जमी पर…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on December 11, 2013 at 4:30pm — 20 Comments
करवट बदल रहा है कोई
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शर्मसार नहीं हैं हम, हार कर भी ,
हाँ ,सदमे में जरूर हैं , कि-
नींद में करवट, बदल रहा है कोई
जातिवाद का ज़हर
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तुम नीलकंठ कहलाते हो ,
ज़हर कोई, कभी पिया…
ContinueAdded by Dr Dilip Mittal on December 11, 2013 at 2:30pm — 8 Comments
कष्ट सहे जितने यहाँ,डाल समय की धूल|
अंत भला सो सब भला ,बीती बातें भूल||
विद्या वितरण से खुलें ,क्लिष्ट ज्ञान के राज|
कुशल तीर से ही सधे ,एक पंथ दो काज||
कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|
चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||
जिसके दर पर रो रहा , वो है भाव विहीन|
फिर क्यों आगे भैंसके,बजा रहा तू बीन||
सफल करो उपकार में,जीवन के दिन चार|
अंधे की लाठी पकड़ ,सड़क करा दो पार||
…
ContinueAdded by rajesh kumari on December 11, 2013 at 2:30pm — 33 Comments
उदास सी थी वो सहर
खामोश स्तब्ध शाम थी
हवा भी कुछ रुकी सी थी
राहों की वो विरानियाँ
आँख में गई ठहर.....
एहसासों की एक लहर
यादों के नर्म बिछोने सी
विरह के लिए खिलोने सी
इश्क की रवानियाँ
रूह को सहलाए हर पहर.....
नदी से निकले एक नहर
अपनी ही धुन में बहती सी
विरक्ति को हाँ सहती सी
छोड़ गई निशानियाँ
दर्द बन गया जहर......
तुझ बिन सूना दिल का शहर
पलकें नम झुकी सी थी
आहटें खटकती सी थी …
Added by Kiran Arya on December 11, 2013 at 2:30pm — 1 Comment
22- 1212- 1122
हर रात ख़्वाब के मैं सफ़र में
इक सिर्फ तुझको देखूँ डगर में
कुछ आज मखमली सी लगी धूप
क्या बात है न जाने सहर में
अंगारों पे चला मैं सहम के
इक हौसला भी था मेरे डर में
यूँ हैरतों से देखे मुझे लोग
है मेरा नाम आज खबर मे
हर शै पे हर मुकाम पे तू थी
तन्हा हुआ न तेरे नगर में
-मौलिक व अप्रकाशित
Added by शिज्जु "शकूर" on December 11, 2013 at 1:34pm — 44 Comments
ग्यारह - बारह बाद में , है तेरह का साल
अंकों ने कैसा किया , देखो आज कमाल
देखो आज कमाल , दिवस यह अच्छा बीते
आज किसी के स्वप्न , नहीं रह जायें रीते
दिल कहता है अरूण, आज तू कुंडलिया कह
है तेरह का साल , मास- तिथि बारह-ग्यारह ||
अरूण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
मौलिक व अप्रकाशित
Added by अरुण कुमार निगम on December 11, 2013 at 9:30am — 11 Comments
सादर वन्दे वन्दनीय सुधी वृन्द।
महानुभावों सर्वज्ञात है, गत 5 दिसम्बर को महर्षि अरविन्द का निर्वाण दिवस था। आपका साहित्य(सावित्री अभी छू भी नहींसकी),मेरे हृदय को बहुत सहलाता है।यद्यपि इस महान दार्शनिक,कवि और योगी के साहित्य की अध्यात्मिक ऊंचाई के दर्शन करने में भी समर्थ नहीं हूँ फिर भी सूरज को दिया दिखाने जैसा कार्य किया है,जो आपको निवेदित है।सादर निवेदन है कि मुझे जरुर अवगत कराएँ की मेरी समझ कहाँ तक सफल हो पाई…
ContinueAdded by Vindu Babu on December 11, 2013 at 8:11am — 20 Comments
दो पल की है ज़िन्दगी,हँस के जी लो यार !
कटुता को अब भूलकर ,बाटो थोड़ा प्यार!!
देने से मिलता सदा,खुद को भी सम्मान !
इस निवेश की गूढ़गति ,ध्यान रखें श्रीमान !!
रोम रोम पुलकित हुआ ,कितना कोमल वार !
अधरों पर मुसकान है ,तिरछे नैन कटार!!
मधुर कंठ की स्वामिनी,कोमल मृदु बर्ताव !
कष्टों पर औषधि सदृश ,भर जाती है घाव !!
घर घर में दिखते मुझे,दुस्शासन लंकेश !
फिर कैसे बँधते भला,द्रुपद सुता के केश!!
गिरते पत्ते…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on December 11, 2013 at 12:08am — 24 Comments
नेकनीयती वृन्द के, मुरझाये..….हैं फूल |
कहकर पुष्प गुलाब का, दिए सैकड़ों शूल ||
बही नाव……..पतवार भी, तूफानों की धार |
बढ़ा प्रेम तब सरित का, जब पाया मँझधार ||
कुल की करुणा कान में, बोली थी चुपचाप |
देख समय सूरज चढा, तू भी इसको भाप ||
अवसर का उपहास है, अनजाने ही हार |
भोग रहे पीड़ा कई, गए समय की मार ||
कागज़ पर लिखता रहा, विरह प्रेम के गीत |
जुडी कलम की छंद से, अनजाने ही प्रीत ||
तप…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on December 10, 2013 at 9:30pm — 13 Comments
उन्हें विरासत में मिली है सीख
कि देश एक नक्शा है कागज़ का
चार फोल्ड कर लो
तो रुमाल बन कर जेब में आ जाये
देश का सारा खजाना
उनके बटुवे में है
तभी तो कितनी फूली दीखती उनकी जेब
इसीलिए वे करते घोषणाएं
कि हमने तुम पर
उन लोगों के ज़रिये
खूब लुटाये पैसे
मुठ्ठियाँ भर-भर के
विडम्बना ये कि अविवेकी हम
पहचान नही पाए असली दाता को
उन्हें नाज़ है कि
त्याग और बलिदान का
सर्वाधिकार उनके पास सुरक्षित…
Added by anwar suhail on December 10, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
गाली देते लोग जो , बोलें कभी सटीक,
गाली या अपशब्द क्या, लगते प्रेम प्रतीक ?
लगते प्रेम प्रतीक, कूल क्या उन्हें समझना
उनका ही उपहास, समझते जिनको अपना ||
यह तो है अपवाद, कहें सब प्रिय को साली.
स्नेह-प्रीति संवाद, न समझें इसको गाली ||
.
(2)
तू तू मै मै में करे, आपस में जो बात,
समझें इसको सभ्यता, या उनकी औकात |
या उनकी औकात, स्नेह की कहाँ निशानी
निखर सके व्यक्तित्व, अगर दिल हो इन्सानी |
कहे…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 10, 2013 at 7:00pm — 11 Comments
1222 1222
मेरे पीछे रुधन क्यों है
ये अश्कों का बज़न क्यों है
सजाया है जनाजे पर
उधारी का कफ़न क्यों है
कमायी पाप से दौलत
न काफी फिर ये धन क्यों है
बजा कर लाश पर बाजे
जगाने का जतन क्यों है
चले गोरे गये लेकिन
रुआँसा ये वतन क्यों है
हजारों घर जलाकर भी
ये माथे पर शिकन क्यों है
मौलिक एंव अप्रकाशित
उमेश कटारा
Added by umesh katara on December 10, 2013 at 3:30pm — 31 Comments
'साहेब हमरी किडनी ख़राब है I इलाजु चलि रहा है I उनकी जगह हमरे लरिकऊ का नौकरी तो दिहेव मालिक पर अकेलु लरिका नोडा (नॉएडा) चला जाई तो हमार देखभाल कौन करी I इसै हियें लखनऊ माँ जगह दै देव साहेब , नहीं तो ई बुढ़िया मरि जाई I
'हाँ साहेब !" बेटे ने भी हाथ जोड़कर मिन्नत की I
' ठीक है, तुम लोग बाहर जाओ I मै कुछ करता हूँ I"
माँ-बेटे बाहर चले गए I 'थोड़ी देर में माँ को बाहर छोड़ कर बेटा फिर अन्दर आया I
'येस?' - साहेब ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा I
'सर, मेरी माँ…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2013 at 1:00pm — 32 Comments
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