जिन्होंने रास्तों पर खुद कभी चलकर नहीं देखा
वही कहते हैं हमने मील का पत्थर नहीं देखा
.
मिलाकर हाँथ अक्सर मुस्कुराते हैं सियासतदाँ
छिपा क्या मुस्कराहट के कभी भीतर नहीं देखा
.
उन्हें गर्मी का अब होने लगवा अहसास शायद कुछ
कई दिन हो गए उनको लिए मफलर नहीं देखा
.
सड़क पर आ गई थी पूरी दिल्ली एक दिन लेकिन
बदायूं को तो अब तक मैंने सड़कों पर नहीं देखा
.
फ़क़त सुनकर तआर्रुफ़ हो गया कितना परेशां वो
अभी तो उसने मेरा कोई भी तेवर नहीं…
Added by Rana Pratap Singh on June 5, 2014 at 10:26am — 19 Comments
जिसने तोड़ा हज़ार हिस्सों में
दिल के वो बरक़रार हिस्सों में
रोए, मुस्काए, चीखे, झुंझलाए
दिल का निकला ग़ुबार हिस्सों में
सबसे बदतर रहा यह बटवारा
एक परवरदिगार हिस्सों में
रूह, कल्बो जिगर व साँसों के
वो अकेला शुमार हिस्सों में
हमको तसलीम है करो तकसीम
हाँ मगर शानदार हिस्सों में
आप शामिल रहे कहीं ना कहीं
ज़ीस्त के यादगार हिस्सों में
मौत साँसों की किश्ते आखिर…
ContinueAdded by Asif Amaan on May 12, 2014 at 5:30pm — 33 Comments
Added by Ashish Srivastava on May 12, 2014 at 10:00pm — 16 Comments
फौलाद भी
चोट से आकार बदल लेते हैं
या टूट जाते हैं
फिर इंसान की क्या बिसात
कब तक सहेगा चोट
आखिर टूटना पड़ेगा
इंसान ही तो है
मगर
टूटकर भी कायम रहेगा
या बिखर जायेगा
ये इंसान की प्रकृति तय करेगी
हालात बदलने को तैयार है
पुरानी सड़क पर
डामर की नई परत बिछेंगी
खण्डरों का जीर्णोद्धार होगा
पुरानी इमारत के मलबे पड़े हैं
कुछ मलबे काम आयेंगे
कुछ मलबे मिटाये जायेंगे
ये…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 15, 2014 at 6:08pm — 36 Comments
ज़रूरी क्या कि ये राहे-सफ़र हमवार हो जाये
न हों दुश्वारियाँ तो ज़िन्दगी बेकार हो जाये
आना का सर कुचलने में कभी तू देर मत करना
कहीं ऐसा न हो, दुश्मन ये भी होशियार हो जाये
फरेबो-मक्र, ख़ुदग़रज़ी न ज़ाहिर हो किसी रुख़ से
वगरना आदमी भी शहर का अख़बार हो जाये
कभी भी एक पल मैं ख़्वाब को सोने नहीं देता
न जाने किस घड़ी महबूब का दीदार हो जाये
मैं दावा-ए-महब्बत को भी अपने तर्क कर दूँगा
जो ख़्वाबों में नहीं आने को वो…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 19, 2014 at 7:00pm — 9 Comments
जब जब जागी उम्मीदें ,
अरमानों ने पसारे पंख.
देखा बहेलियों का झुंड,
आसपास ही मंडराते हुए,
समेट लिया खुद को
झुरमुटों के पीछे.
अँधेरा ही भाग्य बना रहा.
हमारे ही लोग,
हमारे जैसे शक्लों वाले,
हमारे ही जैसे विश्वास वाले,
करते रहे बहेलियों का गुण गान.
उन्हें बताते रहे हमारी कमजोरियों के बारे में
बहेलिये भी हराए जा सकते हैं.
कभी सोचा ही नहीं .
उनकी शक्ति प्रतीत होती थी अमोघ.
जंगल में लगी आग में…
ContinueAdded by Neeraj Neer on May 23, 2014 at 9:36am — 23 Comments
धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?
फल हों रसदार या
सुगंधित हों फूल
आम साथ…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 26, 2014 at 11:00am — 20 Comments
बह्र : 1222/1222/1222/1222
तुम्हारे प्यार का सिर पर अगर आंचल नहीं होगा
मेरे जीवन में खुशियों का तो फिर बादल नहीं होगा
यकीनन कुछ न कुछ तो बात है तेरी अदाओं में
ये दिल यूं ही तुम्हारे प्यार में पागल नहीं होगा
तुम्हें कुछ दे न पाऊंगा मगर धोखा नहीं…
Added by शकील समर on May 16, 2014 at 6:16pm — 20 Comments
तूने मुझे निकलने को जब रास्ता दिया।
मैंने भी तेरे वास्ते सर को झुका दिया।।
सबके भले में अपना भला होगा दोस्तो,
जीवन में आगे आएगा, सबके, लिया दिया।।
हम प्रेम प्रेम प्रेम करें, प्रेम प्रेम प्रेम,
कटु सत्य, प्रेम ने हमें मानव बना दिया।।
हम क्रोध में उलझते रहे दोस्तो परन्तु,
परमात्मा ने प्रेम, हमें सर्वथा दिया।।
वो व्यस्त हैं गुलाब दिवस को मनाने में,
देखो गुलाब प्रेम में मुझको भुला…
ContinueAdded by सूबे सिंह सुजान on May 17, 2014 at 10:00pm — 25 Comments
22122
लाचार हो क्या?
सरकार हो क्या?
छुट्टी पे छुट्टी,
इतवार हो क्या?
छूते ही ज़ख़्मी,
औजार हो क्या?
बेचा है खुद को,
बाज़ार हो क्या?
तारीफ कर दूँ,
अशआर हो क्या?
खुद से ही बातें,
बीमार हो क्या?
*****************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on May 8, 2014 at 5:30pm — 33 Comments
2122 2122 212
आँसुओं को यूँ मिलाकर नीर में
ज्यों दवा हो पी रहा हूँ पीर में
**
हाथ की रेखा मिटाकर चल दिया
क्या लिखा है क्या कहूँ तकदीर में
**
कौन डरता जाँ गवाने के लिए
रख जहर जितना हो रखना तीर में
**
हर तरफ उसके दुशासन डर गया
मैं न था कान्हा जो बधता चीर में
**
माँ के हाथों सूखी रोटी का मजा
आ न पाया यार तेरी खीर में
**
शायरी कहता रहा…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 17, 2014 at 10:30am — 15 Comments
आदमी
---------------
ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं
बौने लोग
विकृति और स्वभाव
एक दूजे के
पर्यायवाची
चाहरदीवारी के मध्य
शून्य…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 20, 2014 at 6:41pm — 34 Comments
अपनी कविताओं में एक नायक रचा मैंने !
समूह गीत की मुख्य पंक्ति सा उबाऊ था उसका बचपन ,
जो बार-बार गाई गई हो असमान,असंतुलित स्वरों में एक साथ !
तब मैंने बिना काँटों वाले फूल रोपे उसके ह्रदय में ,
और वो खुद सीख गया कि गंध को सींचते कैसे हैं !
उसकी आँखों को स्वप्न मिले , पैरों को स्वतंत्रता मिली !
लेकिन उसने यात्रा समझा अपने पलायन को !
उसे भ्रम था -
कि उसकी अलौकिक प्यास किसी आकाशीय स्त्रोत को प्राप्त हुई है !
हालाँकि उसे ज्ञात था…
Added by Arun Sri on April 28, 2014 at 11:00am — 27 Comments
कुडंली छंद
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु गुरु (यगण, मगण), यति ११-१०।
अँखियों से झर रहे,बूँद-बूँद मोती,
राधा पग-पग फिरे,विरह बीज बोती|
सोच रही काश मैं ,कान्हा सँग होती,
चूम-चूम बाँसुरी,अँसुवन से धोती|
मथुरा पँहुचे सखी ,भूले कन्हाई,
वृन्दावन नम हुआ ,पसरी तन्हाई|
मुरझाई देखता ,बगिया का माली,
तक-तक राह जमुना ,भई बहुत काली|
खग,मृग, अम्बर, धरा,हँसना सब…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 30, 2014 at 11:00am — 31 Comments
Added by Dr Ashutosh Mishra on April 30, 2014 at 11:19am — 9 Comments
निष्प्राण कभी लगता
जीवन
निर्मम समय-प्रहारों से
सूख-बिखरते,बू खोते
सुरभित पुष्प अतीत के.
निश्चेत 'आज' भी होता
भावी शीतल-शुष्क
हवाओं की आहट पाने को.
फिर भी कुछ अंश
जिजीविषा के रहते
गतिमान रखें जो तन को
निरा यंत्र-सा.
जो हेतु बने
दाव,हवन,होलिका के
या अस्तित्व मिटाती
झंझावर्तों में
चिनगारी...
वही एक नन्हीं सी.
द्युतिमान रहूँ मैं भी
हों तूफान,थपेड़े
या…
Added by Vindu Babu on April 30, 2014 at 10:30pm — 30 Comments
इधर-उधर की न कर, बात दिल की कर साक़ी
सुहानी रात हुआ करती मुख़्तसर साक़ी ||
खिला-खिला है हर इक फूल दिल के सहरा में
तुम्हारे इश्क़ का कुछ यूँ हुआ असर साक़ी ||
अजीब दर्दे-मुहब्बत है ये शकर जैसा
जले-बुझे जो सितारों सा रातभर साक़ी ||
उतार फेंक हया शर्म के सभी गहने
कि रिस न जाए ये शब, हो न फिर सहर साक़ी ||
है बरकरार तेरा लम्स* मेरे होंठों पर
कि जैसे ओंस की इक बूँद फूल पर साक़ी ||
ख़ुदा से और न दरख़ास्त एक…
ContinueAdded by आशीष नैथानी 'सलिल' on April 30, 2014 at 11:00pm — 21 Comments
छंद मदन/रूपमाला
(चार चरण: प्रति चरण २४ मात्रा,
१४, १० पर यति चरणान्त में पताका /गुरु-लघु)
मजदूर दिन
मजदूर दिन जग मनाता, शान से है आज।
कर्म के सच्चे पुजारी, तुम जगत सर ताज।।
प्रतिभागिता हर वर्ग की, देश आंके साथ।
राष्ट्र के उत्थान में है, हर श्रमिक का हाथ।१।
श्रम करो श्रम से न भागो, समझ गीता सार।
सोया हुआ भाग्य जागे, जानता संसार।।
श्रम स्वेद पावन गंग सम, बहे निर्मल धार।
श्रम दिलाता मान जीवन, श्रम प्रगति का द्वार।२।…
Added by Satyanarayan Singh on May 1, 2014 at 4:00pm — 13 Comments
सभी रास्ताें पर सिपाही खटे हैं
ताे फिर लाेग क्याें रास्ते से हटे हैं ।
सियासत अाै मज़हब की दीवारें देखाे
दीवाराें से ही लाेग गुमसुम सटे हैं ।
सरहद है सराें के लिए अाखरी हद
अकारण यहाँ पर कई सर कटे हैं…
ContinueAdded by Krishnasingh Pela on April 13, 2014 at 12:00pm — 27 Comments
आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना
05 दिसम्बर 1986 के दिन पहली बार जहाज “थुलीलैण्ड” के साथ हम लोगों का रेडियो सम्पर्क स्थापित हुआ. अभी भी नये अभियान दल को अंटार्कटिका पहुँचने में लगभग तीन सप्ताह का समय लगना था, लेकिन मन में कितने ही मिश्रित भाव उमड़ने लगे. जहाज मॉरीशस के इलाके में था. एक साल पहले वहाँ से गुजरते हुए हम लोगों को जहाज से उतरने की अनुमति नहीं मिली थी. क्या वापसी यात्रा में हम मॉरीशस की धरती पर उतरेंगे ? कौन जाने ! फिलहाल जहाज के आने की प्रतीक्षा है – उसमें…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on March 31, 2014 at 1:30am — 17 Comments
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