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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (460)

दुख की धूप हमें दे रक्खो सुख की सारी छाँव घनी - ( गजल) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2222    2222    2222    222

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यौवन  भर  देखी  है  हमने  कैसी  कैसी  छाँव घनी

कहने से भी मन डरता अब मिलती थोड़ी छाँव घनी।1



धूप अगर  होती  राहों  में तो  साया  भी मिल जाता

लेकिन अपने पथ में यारो मंजिल तक थी छाँव घनी।2



हमको तो  आदत  सहने की  सर्दी गर्मी बरखा सब

दुख की धूप हमें दे रक्खो सुख की सारी छाँव घनी।3



छाया अच्छी तो है  लेकिन बढ़ने से जीवन जो रोके

कड़ी  धूप से  भी बदतर  है यारो  ऐसी छाँव घनी।4



फसलों…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 14, 2016 at 10:51am — 6 Comments

पुल बने हैं कागजों पर कागजों पर ही नदी -ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

खोटा सिक्का हो गया है आज अय्यारों का फन

हर तरफ  छाया  हुआ है  आज बाजारों का फन

कर रही है अब समर्थन पप्पुओं की भीड़ भी

क्या गजब ढाने लगा है आज गद्दारों का फन

हौसला  देते  जरा  तो  क्या  गजब  करती  सुई

आजमाने में लगे सब किन्तु तलवारों का फन

पुल  बने  हैं  कागजों  पर  कागजों पर ही नदी

क्या गजब यारो यहा आजाद सरकारों का फन

पास जाती नाव है जब साथ नाविक छोड़ता

आपने देखा न होगा यार…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 16, 2016 at 11:21am — No Comments

वफा उस पार से रखते मगर इस पार गद्दारी - गजल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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कहाँ तक  नाव  जाएगी करे पतवार गद्दारी

गजल लय में रहे कैसे करें असआर गद्दारी ।1।

भले कहना सरल है ये यहाँ हर नींव पक्की है

सलामत  छत  रहे  कैसे  करे  दीवार  गद्दारी ।2l

कहा करते हैं दुर्जन भी ये तो तहजीब का फल है

सुहाती है किसी  को  ढब  किसी  को भार गद्दारी ।3l

न जाने यार क्या होगा चमन में हाल फूलों का

अगर करने  लगे यूँ  ही  कसम  से खार गद्दारी ।4l

जुड़े जब स्वार्थ ही केवल…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 7, 2016 at 12:00pm — 2 Comments

बजा करती हैं कानों में तुम्हारी पायलें अब भी - ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222    1222    1222    1222



बिछड़ कर भी  कहाँ  तुझसे तेरी बातों को भूले हैं

कहाँ उस  झील के तट की मुलाकातों को भूले हैं।1।



कि छोड़ा हमने अपना दिन तेरी जुल्फों के साये में

तेरे काँधें  पे हम  अपनी  सनम  रातों को भूले हैं।2।



बजा करती  हैं कानों  में तुम्हारी पायलें अब भी

खनकती  चूडि़यों  वाले  न उन  हातों को भूले हैं।3।



न  छत  पर  चाँद तारों से  हमारा हाल तुम पूछो

तपन की याद किसको है  कि बरसातों को भूले हैं।4।



अगर है याद जो थोड़ा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 5, 2016 at 12:01pm — 15 Comments

बताए राज रावण के सभी वो राम को चाहे - ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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उछल कर केंचुए तल से कभी ऊपर नहीं होते

कि दादुर  कूप के यारो  कभी बाहर नहीं होते ।1



समर्थन पाक  को हासिल हमारे बीच से वरना

कभी  कश्मीर पर  इतने कड़े  तेवर नहीं होते।2



पढ़ाते तुम न जो उनको कि भाई भी फिरंगी है

कभी  मासूम हाथो  में लिए  पत्थर  नहीं होते।3



बँटे हम तुम न होते गर यहाँ मजहब विचारों में

कभी जयचंद जाफर  तब छिपे भीतर नहीं होते।4



समझ थोड़ा अगर रखती हमारे देश की जनता

हमेशा  इस सियासत में  भरे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 3, 2016 at 9:41am — 14 Comments

कौन सी कौम उसे फिर से दुशाला देगी - ग़ज़ल

212         2112          2112     222



सोच अच्छी हो तो मस्जिद या शिवाला देगी

तंग  हो  और अगर  खून का  प्याला देगी।1।



लाख  अनमोल  कहो  यार  ये हीरे लेकिन

पर हकीकत  है कि मिट्टी  ही निवाला देगी।2।



जब हमें भोर में आँखों ने दिया है धोखा

कौन कंदील जो  पावों  को  उजाला देगी।3।



आशिकी यार तबायफ की करोगे गर जो

स्वर्ग से घर में नरक सा ही बवाला देगी।4।



आप हम खूब लडे़ खून बहाना मकसद

राहेरौशन तो जमाने  को  मलाला देगी।5।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 28, 2016 at 3:00pm — 3 Comments

आपके तो पर परिंदों -ग़ज़ल -लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    212

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दुश्मनों के डर को उसने अपना ही डर कर लिया

और दामन  दोस्तों  के  खून  से  तर कर लिया ।1।



जब  नगर  में  रह न पाए  दोस्तो  महफूज हम

आदिमों  के  बीच  हमने दश्त  में घर कर लिया ।2।



चोट  खाकर भी  हँसे  हैं   आँख  नम  होने न दी

सब गमों  को आज  हमने देखिए सर कर लिया ।3।



आपके तो  पर  परिंदों  फिर  भी  क्यों लाचार हो

हर कठिन परवाज  भी यूँ  हमने बेपर कर लिया ।4।



कह न  पाए  बात कोई…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 19, 2016 at 12:31pm — 10 Comments

पहन पोशाक गांधी की - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

1222    1222    1222    1222

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जिसे  राणा सा  होना था  वो  जाफर बन गया यारो

सियासत  करके  गड्ढा भी  समंदर बन गया यारो ।1।



हमारी  सीख कच्ची  थी  या उसका रक्त ऐसा था

पढ़ाया  पाठ  गौतम  का सिकंदर  बन गया यारो ।2।



करप्सन  और  आरक्षण  का  रूतबा   देखिए ऐसा

फिसड्डी था जो कक्षा में वो अफसर बन गया यारो ।3।



तरक्की  है कि  बर्बादी  जरा  सोचो नए  युग की

जहाँ बहती नदी  थी इक वहाँ घर बन गया यारो ।4।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 16, 2016 at 10:48am — 18 Comments

मत जाओ रात बाहर - ग़ज़ल

221    2122    2212    122

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मत पूछ  किस लिए  वो तेवर बदल रहे हैं

शह पा के  दोस्तों  की  दुश्मन उछल रहे हैं  l1l



होगी वफा वतन  से यारो  भला कहाँ अब

हुंकार  जाफरों   की   शासन   दहल  रहे हैं l2l



हमको पता  है  लोगों  शैलाब बढ़ रहा क्यों

दरिया के प्यार में कुछ पत्थर पिघल रहे हैं l3l



आँखों को सबकी यारों चुँधिया न दें कहीं वो

तम  के   दयार  में  से  तारे  निकल  रहे हैं l4l



ताकत विरोध की तज अपनायी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 14, 2016 at 11:15am — 14 Comments

धूप का होना - ग़ज़ल

गजल/धूप

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1222 1222 1222 1222

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करो  तय दोस्तो  थोड़ा  जिगर में  धूप का होना

मिटा सीलन को देता है कि घर में धूप का होना /1



दुआ मागी थी रिमझिम में जरा सी धूप तो दे दो

अखरता क्यों तुझे  है अब डगर में धूप का होना /2



जहाँ  देखो  वहीं  जलवा  करें  साए  इमारत के

पता चलता किसे है अब नगर में धूप का होना /3



चलो आँगन में रख आए चटखती हड्डियों को अब

जरूरी   है  बुढ़ापे   की   उमर  में   धूप   का  होना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 11, 2016 at 11:52am — 18 Comments

सोच असुरों सी करो मत दोस्तो - ग़ज़ल

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कब   यहाँ   पर्दा  उठाया  जाएगा

कब  हमें  सूरज दिखाया  जाएगा /1



थक गए हैं झूठ  की उँगली पकड़

सच का दामन कब थमाया जाएगा /2



सब   परेशाँ   तीरगी   से   दोस्तो

कब  दिया  कोई  जलाया जाएगा /3



है  सुरक्षा  खाद्य  की   कानून में

पर अनाजों  को  सड़ाया  जाएगा /4



दूर महलों से खड़ी कुटिया में फिर

इक  निवाला  बाँट  खाया जाएगा /5



यह समय है झूठ का कहते है सब

राम  को  रावण  बताया  जाएगा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 9, 2016 at 12:09pm — 16 Comments

भले ही रंग कुछ भरते - ग़ज़ल

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उसे तो मुक्त होना  बस उसी की काहिली से है

कमी जो जिंदगी में यार  वो उसकी कमी  से है /1



जरा ये तो बताओ क्यों बुरा कहते हो किस्मत को

अगर है दूर मंजिल तो  समझ लो बुुजदिली से है /2



मनुज सब  एक से  ही हैं नहीं  छोटा बड़ा कोई

सभी का वास्ता  केवल उसी  इक  रोशनी से है /3



जहाँ गुजरा था इक बचपन सुहाना यार उसका भी

उसी  को  छोड़  आया  वो  बहुत  ही  बेदिली से है /4



हकीकत आप समझो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 8, 2016 at 10:55am — 8 Comments

चले हैं छोड़ घर अपना - ग़ज़ल

1222    1222    1222    1222     1222



हुनर की बात है सबको गमों में यूँ हँसाना तो नहीं आता

सभी के हाथ यारो ये मुहब्बत का खजाना तो नहीं आता



है हसरत तो  हमारी भी  लगाएँ दिल  हसीनों से जमाने में

हमें पर नाज कमसिन का जरा भी यों उठाना तो नहीं आता



हमेशा  लौट आता कारवाँ गर्दिश  का जैसे दोस्तों फिर फिर

कि वैसे लौटकर फिर  से  बुलंदी का जमाना तो नहीं आता



लगेगी जिंदगी कैसे  सजा से हट   किसी ईनाम के जैसी

सभी को यार होठों पर तबस्सुम को सजाना तो नहीं…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 5, 2016 at 10:57am — 15 Comments

महज इक हार से जीवन नहीं बुनियाद खो देता -ग़ज़ल

1222    1222    1222    1222

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न कोई दिन बुरा गुजरे  न कोई रात भारी हो

जुबाँ को  खोलना  ऐसे न कोई बात भारी हो /1



दिखा सुंदर तो करता है हमारा गाँव भी लेकिन

बहुत कच्ची हैं दीवारें  न अब बरसात भारी हो /2



न तो धर्मों का हमला हो  न ही पंथों से हो खतरा

न इस जम्हूरियत पर अब किसी की जात भारी हो /3



पढ़ा विज्ञान  है  सबने  करो  तरकीब  कुछ ऐसी

न तो  हो तेरह का खतरा न साढ़े  सात भारी हो /4



महज इक हार से जीवन…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 1, 2016 at 11:29am — 12 Comments

दवाई पेड़ पौधे हैं -ग़ज़ल

1222    1222    1222    1222

न जाने  हाथ में  किसके है ये पतवार  मौसम की

बदल पाया  न  कोई भी  कभी  रफ्तार मौसम की /1



सितम इस पार मौसम का दया उस पार मौसम की

समझ  चालें  न  आएँगी कभी  अय्यार मौसम की /2



अभी है पक्ष  में तो  मत  करो  मनमानियाँ इतनी

न जाने कब  बदल जाए  तबीयत यार मौसम की /3



उजाड़े  जा  रहा क्यों तू  धरा   से  रोज ही इनको

दवाई  पेड़  पौधे  हैं  समझ   बीमार  मौसम की /4



न आए  हाथ उतने  भी   लगाए  बीज थे जितने

पड़ी कुछ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 24, 2016 at 11:55am — 13 Comments

बदजुबानी क्या कहें-ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

2122    2122    2122    212

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प्यार के  इस  माह  की यारो  कहानी क्या कहें

बिन किसी  के थम  गयी है जिंदगानी क्या कहें /1



यूँ  कभी  खुशियों के मौसम भी छलकती आँख थी

दर्द  से  हट  आँसुओं  के  अब  तो  मानी  क्या कहें /2



आजकल बैसाखियों पर वक्त जाने क्यों हुआ

थी कभी किससे जवाँ वो इक रवानी क्या कहें /3



आप कहते  हो  अकेलापन  सताता  है  बहुत

साथ  अपने  तो सदा  यादें  पुरानी  क्या कहें /4



खुश रहे बस हो …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 23, 2016 at 11:27am — 10 Comments

धन के बल पर नदी मुहाने -ग़ज़ल-(लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

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कौन कहेगा  यारो  बोलो बस्ती की मनमानी की

दोष लगाता हर कोई है गलती कहकर पानी की /1



राह रही जो नदिया की वो घर आगन सब रोक रहे

खादर  बंगर पाट रखी  है  नींव नगर रजधानी की /2



भीड़ बड़ी हर ओर  साथ  ही कूड़े का अम्बार बढ़ा

धन के बल पर नदी मुहाने आज पँहुच शैलानी की /3



हम को नादाँ  कहकर कोई बात न कहने देते पर

यार सयानों ने हर दम ही बात बहुत बचकानी की /4



माना सुविधाओं का यारा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 16, 2016 at 12:23pm — 6 Comments

चोट खाकर देखिए-ग़ज़ल-(लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

2122    2122    2122    212



इस नगर में हर किसी को इक फसाना चाहिए

ऊँघते  को  ठेलते  का  इक  बहाना  चाहिए /1



कब से ठहरा ताल अब तो मारिए कंकड़ जरा

जिंदगी का लुत्फ  कुछ तो  यार आना चाहिए /2



बेबसी क्यों  ओढ़नी  जब हाथ लाठी कर्म की

द्वार किस्मत का चलो अब खटखटाना चाहिए /3



चोट खाकर देखिए खुद दर्द की तफतीस को

बोलना  फिर  दर्द में  भी  मुस्कुराना चाहिए /4



हो गयी हो पीर  पर्वत  हर दवा जब बेअसर

आँसुओं को किसलिए फिर छलछलाना चाहिए…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 15, 2016 at 12:22pm — 6 Comments

तुम्हारी सोच में फिरका -ग़ज़ल -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "

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सदा सम्मान  इकतरफा  कहाँ तक  फूल  को दोगे

तिरस्कारों  की हर गठरी  कहाँ  तक शूल को दोगे /1



उठेगी  तो करेगी  सिर से  पाँवों तक बहुत गँदला

अगर तुम प्यार का कुछ जल नहीं पगधूल को दोगे /2



नदी  आवारगी  में  नित  उजाड़े  खेत  औ  बस्ती

कहाँ तक दोष इसका  भी कहो  तुम कूल को दोगे /3



तुम्हारी  सोच  में  फिरके  उन्हें ही पोसते हो नित

सजा  तसलीमा  रूश्दी को  दुआ मकबूल…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 9, 2016 at 11:00am — 12 Comments

भर कर जेबें रोज चढ़े है - ( ग़ज़ल ) -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "

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सुनते सुनते  गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को

कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1



बात कहूँ तो बन जाएगी जग की यार हँसाई को

जैसे तैसे झेल रहा  हूँ  जालिम की रूसवाई को /2



दिन तो बीते आस में यारो शायद चलती राह मिले

किन्तु पुराने खत पढ़  काटा  रातों की तनहाई को /3



वो साहिल की रेत देख कर चाहे यूँ ही लौट गया

ख्वाबों में  देखेगा  लेकिन  दरिया की गहराई को /4



भर कर जेबें  रोज चढ़े है मस्ती  को सैलानी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2016 at 12:05am — 16 Comments

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