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ग़ज़ल

ग़ज़ल



सर पे कैसी मुसीबत बड़ी आ गई।

देखिये फैसले की घड़ी आ गई।



साँस लेना मुनासिब भी लगता नही

ये हवा किस कदर नकचढ़ी आ गई।



दिल के साँपो को हम मार पाते नहीं,

साँप आया जो घर इक छड़ी आ गई।



ईंट पत्थर लगाकर मकां जब बना

लो हिफाजत को उसके कड़ी आ गई।



अब चमन में कहीं फूल खिलते नहीं,

पतझरों की अजब सी लड़ी आ गई।



रौशनी के लिए 'मन' मचलने लगा,

उसको बहलाने को फुलझड़ी आ गई।



मंजूषा मन



मौलिक एवं… Continue

Added by मंजूषा 'मन' on August 14, 2017 at 6:28pm — 16 Comments

जश्न मिल जुल कर मनाओ यौमे आज़ादी है आज - ग़ज़ल

आग नफरत की बुझाओ यौमे आज़ादी है आज

दिल से दिल अपने मिलाओ यौमे आज़ादी है आज



मंदिरों मस्जिद के झगड़े छोड़ कर ऐ दोस्तों

बात कुछ आगे बढ़ाओ यौमे आज़ादी है आज



जो हक़ीक़त थी वो सब इतिहास बन कर रह गई

याद शोहदा की दिलाओ यौमे आज़ादी है आज



जान जब क़ुर्बान करते हो वतन के वास्ते

तो तिरंगा भी उठाओ यौमे आज़ादी है आज



हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई के झगड़े भूल कर

"जश्न मिल जुल कर मनाओ यौमे आज़ादी है आज"



हमने छत दीवारो दर अपने सजायें हैं सभी

तुम… Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on August 14, 2017 at 12:46pm — 8 Comments

कृष्णावतार

"कृष्णावतार"



रास छंद। 8,8,6 मात्रा पर यति। अंत 112 से आवश्यक और 2-2 पंक्ति तुकांत आवश्यक।)



हाथों में थी, मात पिता के, सांकलियाँ।

घोर घटा में, कड़क रही थी, बीजलियाँ

हाथ हाथ को, भी ना सूझे, तम गहरा।

दरवाजों पर, लटके ताले, था पहरा।।



यमुना मैया, भी ऐसे में, उफन पड़ी।

विपदाओं की, एक साथ में, घोर घड़ी।

मास भाद्रपद, कृष्ण पक्ष की, तिथि अठिया।

कारा-गृह में, जन्म लिया था, मझ रतिया।।



घोर परीक्षा, पहले लेते, साँवरिया।

जग को करते,… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on August 14, 2017 at 11:35am — 5 Comments

नज़र की हदों से .....

नज़र की हदों से .....

अग़र

तेरे बिम्ब ने

मेरे स्मृति पृष्ठ पर

दस्तक

न दी होती

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

रह गया था

कोई क्षण

अधूरी तृषा लिए

तृप्ति के

द्वार पर

अगर

तेरी तृषा के

स्पंदन ने

मेरी श्वासों को

न छुआ होता

सच

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

लिपटा था

कोई मूक निवेदन

अपनी…

Continue

Added by Sushil Sarna on August 13, 2017 at 9:17pm — 12 Comments

नज़र की हदों से .....

नज़र की हदों से .....

अग़र

तेरे बिम्ब ने

मेरे स्मृति पृष्ठ पर

दस्तक

न दी होती

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

रह गया था

कोई क्षण

अधूरी तृषा लिए

तृप्ति के

द्वार पर

अगर

तेरी तृषा के

स्पंदन ने

मेरी श्वासों को

न छुआ होता

सच

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

लिपटा था

कोई…

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Added by Sushil Sarna on August 13, 2017 at 9:00pm — 2 Comments

तिरंगे की खातिर

तिरंगे की खातिर....



इस शुभ दिन पर मैं गाता हूँ,

एक गान तिरंगे की खातिर,

हर एक युवा के दिल में है,

सम्मान तिरंगे की खातिर,

उस माटी पर श्रद्धा अगाध,

उस माटी का यशगान सदा,

अनगिनत वीर हो गये जहाँ,

कुर्बान तिरंगे की खातिर.

हम जहर हलाहल पी सकते,

हम तिल तिल कर मर सकते हैं,

सह सकते हैं सारे हम,

अपमान तिरंगे की खातिर.

कुछ पाने की चाहत भी नहीं,

गर मिले बादशाहत भी नहीं,

कदमों के नीचे रखते हैं,

अरमान तिरंगे की… Continue

Added by Ajay Kumar Sharma on August 13, 2017 at 10:29am — 4 Comments

रक्त संचार ( लघुकथा)

बुधिया को जब पता चला कि घनश्याम बाबू का एक्सीडेंट हो गया है और उनको खून कि सख्त जरुरत है , वह व्याकुल हो गया | घनश्याम बाबू से वैसे तो उसने कभी भी प्यार के दो बोल नहीं सुने थे , पर उनकी शक्शियत ने बुधिया को हमेशा आकर्षित किया था , उनके लिए उसके मन में आदर सत्कार था , गाँव के मुखिया घनश्याम बाबू ,एक कट्टर ब्राह्मण थे , इस ज़माने में भी वे जात पात को मानते थे , उनके घर वाले उनको बहुत समझाते ," समय बदल गया है , अपनी सोच बदलें |" इस पर वे अपने सर पर चुटिया को दिखाकर कहते ," समय बदल गया है तो क्या… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 13, 2017 at 9:29am — 7 Comments

बया का घोसला (कहानी)

जमुना  अपने खिड़की से बाहर झांक रही थी , सामने एक सूखे हुए पेड़ पर एक बया आई , कुछ देर डाल पर बैठकर इधर उधर देखने लगी , और कुछ ही देर में फुर्र्र्रर्र्र करके उड़ गयी | दो तीन दिन यही क्रम चलता रहा |फिर  उसने देखा - एक एक करके अपनी नन्ही सी चोंच में कहीं से तिनका लाती और धीरे धीरे अपने लिए एक घोंसला…
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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 12, 2017 at 11:30am — 6 Comments

विजेता (लघुकथा)

विमल और सौरभ कॉलेज के समय से ही प्रतिद्वंधि थे । हर स्पर्धा में आगे पीछे रहते थे । कभी विमल प्रथम स्थान प्राप्त करता तो कभी सौरभ । इनकी दोस्ती एक मिसाल थी , लोगों ने बहुत चाहा की दोनों में फूट पड़ जाये , पर यह सम्भव न हो पाया ।

कॉलेज के बाद भी दोनों एक साथ दिखायी दे जाते थे , यहाँ तक की दोनों की नौकरियां भी एक साथ एक ही कंपनी में लगी । दोनों बेहद ख़ुश थे , अब भी दोनों में प्रतिस्पर्धा होती रहती थी , दोनों का ही प्रमोशन ड्यू था , अटकले थी कि विमल को प्रमोशन मिलने की संभावनाएं ज्यादा है… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 12, 2017 at 10:34am — 9 Comments

ज़िंदगी...

ज़िंदगी...

ज़िंदगी का 

हासिल
है
मौत
क्या
मौत का
हासिल
है
ज़िंदगी ?

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on August 11, 2017 at 8:39pm — 6 Comments

दुर्गम्य

दिन की गर्मी के बाद रात आती है शीतल,

जैसे आता हरित देश बीते जब मरुथल।

समय चक्र ही दुःख की घड़ी बिता सुख लाता,

मृत्यु न होती तो क्या प्राणी जीवन पाता?

सूर्य ज्वलित ना होता तो क्या वसुधा होती?

चन्द्रकिरण से क्या अमृत की वर्षा होती?

लक्ष्य कठिन, दुर्गम्य राह, निश्चय से बनता है सरल।

सूखी रेत, कठोर प्रस्तरों के नीचे ही होता है जल।।

- किशोर करीब (मौलिक व अप्रकाशित)

Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 11, 2017 at 5:37pm — 4 Comments

सुनने वाली मशीन

अस्सी वर्षीय बाबू केदार नाथ ने अपने कानों में सुनने वाली मशीन लगाकर मफ़लर लपेट लिया| आईने में खुद को देखकर आश्वस्त हुए| मशीन पूरी तरह मफ़लर के नीचे छिप गया था| अब उन्होने पुराना टेप रिकार्डर निकाला और प्रिय गाना बजा दिया|

बरेली के बाज़ार में झुमका गिरा रे-कमरे में आशा भोसले की नखरीली आवाज़ गूंज उठी|

बाबू केदारनाथ के होंठो पर एक प्यारी सी मुस्कान खेल गई|

अजी सुनते हो! उनके कानो से एक तेज कटार सी आवाज टकराई|

अपने बाउजी को…

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Added by Gul Sarika Thakur on August 11, 2017 at 11:47am — 6 Comments

आएँगे जी आएँगे, अच्छे दिन यूँ आएँगे ...गीत / शून्य आकांक्षी

आएँगे  जी   आएँगे, अच्छे  दिन  यूँ  आएँगे |
जाएँगे  जी  जाएँगे, भद्दे  दिन  भग  जाएँगे || 
 
योगासन    प्रारम्भ    करो | 
आँख, कान, मुँह बन्द करो | 
पेट   भींचकर   भीतर   को ,
साँसों   को   पाबन्द   करो | 
 
उदर-पीठ दोनों हों एक, तब उनको हम भाएँगे | 
आएँगे  जी   आएँगे, अच्छे  दिन  यूँ  आएँगे || 
 
क्यों  मेहनत तुम करते हो | 
दिन - भर  खटते रहते  हो…
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Added by C.M.Upadhyay "Shoonya Akankshi" on August 11, 2017 at 1:00am — 8 Comments

कैसे कहूँ अब तुझसे कुछ कहा भी नहीं जाता,

कैसे कहूँ अब तुझसे कुछ कहा भी नहीं जाता,

तनहा ज़िंदगी में अब यूँ रहा भी नहीं जाता



चले थे जिस मोड़ तलक इस सफ़र में हम ,

रास्ता उस सफ़र का भुलाया भी नहीं जाता



उठता हैं मेरे दिल में तिरी यादों का तूफ़ाँ भी,

हादसा था जैसे ये भुलाया भी नहीं जाता



सुख गये यूँ अश्क़ भी यादों से तिरी,

ग़मों को लिये अब तो रोया भी नहीं जाता



तुम रहो कहीं भी मगर ये सच है ,

वजूद तिरा दिल से फिर मिटाया भी नहीं जाता



वो शख़्स जिसने मुझे अपना माना…

Continue

Added by santosh khirwadkar on August 10, 2017 at 8:30pm — 6 Comments

गजल(आज चढ़ता जा रहा पारा बहुत)

2122 2122 212

आज चढ़ता जा रहा पारा बहुत

मौसमों ने भी लिया बदला बहुत।1



बर्फ पिघली,बह गया पानी कहाँ?

हो गया ऊँचा शिखर बौना बहुत।2



फिर चिरागों ने दबोची रोशनी

वक्त गुजरा याद है आता बहुत।3



नाचघर-सी हो गयी संसद भली

भांड ढुलमुल नाचता-गाता बहुत।4



आसमानों में चढ़ीं दुश्वारियाँ

भाव हीरों का लगा पौना बहुत।5



बदगुमानी का सबब हैं कुर्सियाँ

कर्मियों ने भाड़ ही झोका बहुत?6



पार उतरे वे समंदर के,उड़े,

रह गया है… Continue

Added by Manan Kumar singh on August 10, 2017 at 9:30am — 20 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - रोशनी है अगर तेरे दिल में- ( गिरिराज भंडारी )

2122  1212   112/22

गर अँधेरा है तेरी महफिल में

हसरत ए रोशनी तो रख दिल में

खुद से बेहतर वो कैसे समझेगा ?

सारे झूठे हैं चश्म ए बातिल में

क़त्ल करने की ख़्वाहिशों के सिवा

और क्या ढूँढते हो क़ातिल में

 

बेबसी, दर्द और कुछ तड़पन

क्या ये काफी नहीं था बिस्मिल में ?

 

फ़िक्र क्या ? बाहरी जिया न मिले

रोशनी है अगर तेरे दिल में

 

कोई तो कोशिश ए नजात भी हो

अश्क़ बारी के…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on August 10, 2017 at 8:30am — 30 Comments

प्रेम कहलाता है .......संतोष

मैंने जो गाया था कभी,तूने जो सुना ही नहीं

स्नेह,प्रेम,गीत ,वही तो कहलाता है



सावन की फुहारों में,आसमाँ की राहों से

धरती की माटी को भी ,वो तो चूम जाता है



अख़ियों ही अख़ियों से दिल तक जाने वाला,

यही तो वो रोग है जो ,प्रेम कहलाता है



कभी नीम की निम्बोली में भी अमूवा का स्वाद दे वो,

ऐसी स्मृतियों को कोई भूल कहाँ पाता है



नयनों की बरखा में यादों का सहारा लिये,

पलकों के द्वार को भी ,वो तो भीगो जाता है



सावनों के झूलों पे… Continue

Added by santosh khirwadkar on August 9, 2017 at 11:39pm — 4 Comments

कोयल की बोली

एक कोयल कूकती है पास की अमराई में,

आजकल मैंने सुना है रात की गहराई में।

हो रहा था मेघ गर्जन साथ ही वृष्टि घनी,

क्या बुलाती है किसी को या हुई वो बावली?

फिर ये सोचा हो न मुश्किल की कहीं कोई घड़ी,

भीग शीतल नीर थर – थर काँपती हो वो पड़ी।

कुहू – कुहू सुनते हुए मैं मन ही मन गुनता रहा..

पक्षियाँ तो शाम ढलते नीड़ में खो जाती हैं,

घिरते तिमिर के साथ ही वो नींदमय हो जाती हैं।

तभी कौंधा मन, अरे ! ये धृष्टता दिखलाती है,

दुष्ट पंछी मधुर…

Continue

Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 9, 2017 at 8:32pm — 3 Comments

ग़ज़ल " जिंदगी से जी भर गया कब का "

2122 1212 22

ज़िन्दगी,जी तो भर गया कब का।
टूट कर मैं बिखर गया कब का ।।

***
इक मुहब्बत का था नशा मुझको।
वो नशा भी उतर गया कब का।।
***
चाहता था तुझे दिल-ओ-जां से।
वक़्त वो तो गुज़र गया कब का।।

***
देख हालत नशे के मारों की।
ख़ुद-ब-ख़ुद वो सुधर गया कब का।।

***
देख कर छल फ़रेब दुनिया के।
एक "इंसान" मर गया कब का।।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by surender insan on August 9, 2017 at 5:00pm — 16 Comments

ग़ज़ल...हर कदम पर जह्न मेरा आजमाता कौन है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

2122 2122 2122 212
वेदना के तार झंकृत,गीत गाता कौन है
दर्द की ये रागनी आखिर सुनाता कौन है

कौन है ये रात के आगोश में सिमटा हुआ
चाँदनी की ओट लेकर मुस्कुराता कौन है

बादलों के पार से आवाज थी किसकी सुनी
ओढ़कर घूँघट घटा का ये लजाता कौन है

गुँजतीं हैं आहटें खामोशियों को चीरती
हर कदम पर जह्न मेरा आजमाता कौन है

चल रही पुरवा बसन्ती मुस्कुरा कर झूमती
लेके थाली आरती की गुनगुनाता कौन है
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 9, 2017 at 4:30pm — 16 Comments

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