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अपाहिज़ कौन: लघुकथा

मुझसे गाड़ी का इंतज़ार नहीं हो रहा था, किसी भी तरह जल्दी गंतव्य स्थान पर पहुँचना था । अभी नया-नया मंत्री पद संभाला था, सो मंत्री पद का शऊर कहाँ से आता ? ऊपर से समाज सेवा का भूत सर चढ़ का नाच रहा था | “पब्लिक की समस्याओं का निवारण करने के लिये, दिन हो या रात ? हमेशा तत्पर रहूंगी |” आज ही तो, ये शपथ ली थी | तभी दिमाग़ में कुछ कौंधा और मैं निकल पड़ी । सामने से जो बस आती  दिखी, मैं बैठने को उतावली हो उठी । बिना कुछ देखे सुने ही, बस पर चढ़ गई । इंसानों से ठसाठस भरी बस थी। भीषण गरमी थी । लोग एक…

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Added by Uma Vishwakarma on August 18, 2017 at 12:30pm — 3 Comments

ग़ज़ल - जो तेरे इश्क़ की खुमारी है,

जो तेरे इश्क़ की खुमारी है,

हमने तो रूह में उतारी है,

दर्द पलकों से टूट बिखरा है,

इन दिनों ग़म से मेरी यारी है,

तू मेरी सांस में उतर आया,

इश्क़ है या कोई बीमारी है ,

तू निगाहों में या कि दिल में रहे,

मेरी मुझसे ही जंग जारी है,

वस्ल के नाम नींद को रख कर,

हमने शब आँख में गुजारी है !!अनुश्री!!

मौलिक व् अप्रकाशित

Added by Anita Maurya on August 18, 2017 at 9:09am — 8 Comments

संवाद -एक ग़ज़ल

मापनी 2122 2122 2122 212

 

कैद  हैं  धनहीन तो, जो सेठ है, आजाद  है

झुग्गियों की लाश  पर  बनता यहाँ प्रासाद है

 

थाम कर दिल मौन कोयल डाल पर बैठी हुई,

तीर लेकर हर  जगह बैठा हुआ सय्याद है

 

भाईचारा प्रेम  सब बातें किताबी हो  गईं,

हो रही  बेघर मनुजता,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 18, 2017 at 9:01am — 10 Comments

सियासत पर दो मुक्तक

सियासत मुल्क़ की यारों लहू पीने की आदी है
निवाला छीन भूखों का पहनती आज खादी है
किसे अच्छा कहूँ मैं अब सभी का हाल इक जैसा
बना है रहनुमा वो आज जो खुद ही फ़सादी है |1|

अगरचे दिल सियासत से बहुत नाशाद है अपना
नहीं लगता दयार-ए-हिन्द ये आबाद है अपना
उठेगी गर वतन में अब किसी निर्दोष की मय्यत
कहेगा कौन किस मुंह से वतन आज़ाद है अपना |2|

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by नाथ सोनांचली on August 18, 2017 at 5:00am — 9 Comments

जिजीविषा / किशोर करीब

ये क्या है जो मुझे चलाती?

कभी मंद कभी तेज भगाती

क्या पाया क्या पाना चाहा,

हरदम मुझको याद दिलाती

विधना ने क्रंदन दुःख लिखा,

यह प्रेरित करती हर्षाती

कभी शिथिल होकर बैठा जो,

उत्प्रेरित कर मुझे जगाती

जलते जीवन में भी हँसकर,

बढ़ते जाना मुझे सिखाती…

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Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 17, 2017 at 10:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल

212  212  212  212

सज सँवर अंजुमन में वो गर जाएँगे I

नूर परियों के चेहरे   उतर जाएँगे II

जाँ निसार अपनी  है तो उन्हीं पे सदा ,

वो कहेंगे जिधर  हम उधर जाएँगे I

ऐ ! हवा मत करो  ऐसी अठखेलियाँ ,

उनके चेहरे पे गेसू बिखर  जाएँगे I

 

पासवां कितने  बेदार हों हर तरफ ,

उनसे मिलने को हद से गुजर जाएँगे I

है मुहब्बत का तूफां जो दिल में भरा ,

उनकी नफ़रत के शर बे-असर जाएँगे I

बेरुखी उनकी…

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Added by कंवर करतार on August 17, 2017 at 9:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल (दिल से बाहर ही न निकले दिलरुबा तेरा ख़याल )

(फाइलातुन -फाइलातुन -फाइलातुन - फाइलुन /फाइलात )

शाम होते ही सितम ढाए सदा तेरा ख़याल |

दिल से बाहर ही न निकले दिलरुबा तेरा ख़याल |

देखता हूँ जब भी मैं नाकाम दीवाना कोई

यक बयक आता है मुझको बे वफ़ा तेरा ख़याल |

उम्र भर कैसे निभेगा साथ मुश्किल है यही

है अलग मेरा तसव्वुर और जुदा तेरा ख़याल |

हो न हो तुझको यकीं लेकिन है सच्चाई यही

किस ने आख़िर है किया मेरे सिवा तेरा ख़याल |

ढोंग तू फिरक़ा परस्ती को…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on August 17, 2017 at 8:30pm — 10 Comments

एक मुट्ठी राख़ ..../अंगड़ाइयों से...

एक मुट्ठी राख़ ....

न ये सुबह तेरी है न रात तेरी है l
आबगीनों सी बंदे हयात तेरी  है l
इतराता है क्यूँ तू मैं की क़बा में -
एक मुट्ठी राख़ औकात  तेरी  है l

........................................

अंगड़ाइयों से...

उम्र जब अपने शबाब पर होती है l
तो मोहब्बत भी बेहिसाब  होती है l
जवां अंगड़ाइयों से मय बरसती है -
हर मुलाक़ात हसीन ख़्वाब होती है l

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित  

Added by Sushil Sarna on August 17, 2017 at 4:38pm — 2 Comments

*मन मनोरम* छ्न्द में गीत.....

*रोज चौकन्नी रहूँ मै,*

*किन्तु हरजाई न आये |*

*और मेरे मन भवन में,*

*मौन परछाईं न आये |*



खिल रहे थे पुष्प उर में,

साँझ आते ये झरे हैं।

भूल मैं सुधि-बुधि गयी हूँ,

साख उर के ये हरे हैं।

आंख मेरी ये थकी हैं।

लौट तरुणाई न आये।



*रोज चौकन्नी रहूँ मै,*

*किन्तु हरजाई न आये |



चाँदनी बिखरी पड़ी थी,

भर लिया दामन में है।

जब भी पिघले अश्रुजल ये,

चख लिया सावन में है।

वेदना बढ़ती गयी थी,

किन्तु करुणाई न… Continue

Added by अनहद गुंजन on August 17, 2017 at 4:00pm — 5 Comments

अब की बारिश में - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" (गजल)

1222 1222 1222 1222



बहा कर ले गई नदिया खजाना अब की बारिश में

न बच पाया मुहब्बत का ठिकाना अब की बारिश में।1।



डुबो कर घर गए मेरा किसी की आँखों के आँसू

है आई बाढ़ समझे ये जमाना अब की बारिश में।2।



जहाँ मिलते थे तन्हा नित खुदा से आरजू कर हम

न जाने क्यों खुदा भूला बचाना अब की बारिश में।3।



हैं बाहर बदलियाँ रिमझिम कि भीतर आँखों से जलथल

बहुत मुश्किल है सीले खत सुखाना अब की बारिश में।4।



पहुँच हम तक भी जाएगी तुम्हारे तन की हर… Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2017 at 11:13am — 11 Comments

ग़ज़ल --इस्लाह के लिए

      (122-122-122-12)

रहे हम तो नादां ये क्या कर चले

कि दौर ए जफ़ा में वफ़ा कर चले।

वो तूफ़ान के जैसे आ कर चले

मेरा आशियाना फ़ना कर चले।

रक़ीबों की तारीफ़ की इस क़दर

कि चहरा मेरा ज़र्द सा कर चले'

कहीं जाग जाएँ न इस ख़ौफ़ से

हम आँखों में सपने सुला कर चले

ज़मीं हमको बुज़दिल का ताना न दे

तो फिर हम ये नज़रें उठा कर चले।

तड़पते रहे अधजले कुछ हरूफ़

वो जब मेरे खत को जला कर…

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Added by Gurpreet Singh jammu on August 16, 2017 at 4:30pm — 13 Comments

आभासी ( कविता)

आभासी इस दुनिया में क्या 

आभास भी आभासी होते हैं ?

शक्ल नहीं होती है सामने 

इंसान भी आभासी होते हैं ?

समय समय पर बनते बिगड़ते 

रिश्ते भी आभासी होते हैं ?

इंसान में इंसानियत नहीं तो  

आभासी इंसान भी होते हैं ?

बदलते युग का आगाज़ है  

असली और नकली भी होते हैं ? 

साहित्य कोष में भी 

कहीं आभासी शब्द होते हैं  ?

जाने कितने ऐसे सवाल है मन…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 16, 2017 at 4:00pm — 3 Comments

श्याम रात श्याम वात श्याम गूँज साथ साथ।

आप सभी मित्रों को कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं

श्याम रात श्याम वात श्याम गूँज साथ साथ।
चन्द्रमा प्रकाश लुप्त हाथ को दिखे न हाथ।
गूँजता रहा विहान कृष्ण जश्न गीत गान।
धन्य धन्य देव और धन्य धन्य ये जहान।

टूट बेड़ियां गयीं खुले अवाक जेल द्वार।
कृष्ण जन्म साथ कंस नीच का ढले खुमार
जन्म जश्न गैल गैल ढोल पे उड़े गुलाल।
गोल हैं कपोल गाल नंद के भए गुपाल।

.....अप्रकाशित/मौलिक

Added by अनहद गुंजन on August 16, 2017 at 12:30pm — 3 Comments

बस यूँ ही दशरथ माँझी... / किशोर करीब

बस यूँ ही दशरथ माँझी...

माझी नहीं बस नाव को जो खींच ले मँझधार से
‘माँझी’ तो है जो रास्ता ले चीर नग के पार से।
प्रेम था वो दिव्यतम जिसमें भरी थी जीवनी
वो फगुनिया थी मरी पर दे गई संजीवनी।
एक कोशिश ला मिलाती गंग को मैदान से
एक कोशिश रास्ता लेती विकट चट्टान से।
ले हथौड़ी और छेनी पिल पड़ा वो वीर था
हो गया भूशाई जो दुर्दम्य पर्वत पीर था।
ताज और विक्टोरिया से है हमारा वास्ता,
पर नमन के योग्य है गहलौर का वो रास्ता!!

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 15, 2017 at 10:28pm — 5 Comments

ग़ज़ल

1222  1222  1222  1222

 

अगर तुम पूछते दिल से शिकायत और हो जाती I

सदा दी होती जो  तुमने  शरारत ओर हो जाती II

 

पहन कर के नकावें जिन पे बरसाते कोई पत्थर ,

वयां तुम करते दुख उनका हिमायत और हो जाती I

 

कहो जालिम जमाने क्यों मुहव्वत करने वालों पर?

अकेले सुवकने से ही कयामत और हो जाती I

 

बड़ा रहमो करम वाला है मुर्शिद जो मेरा यारो ,

पुकारा दिल से होता गर सदाकत और हो जाती I

 

मुझे तो होश में लाकर भी…

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Added by कंवर करतार on August 15, 2017 at 10:21pm — 12 Comments

आलोक-मंजुषा ... (संस्मरण -- डा० रामदरश मिश्र जी)

यह संस्मरण लेखक, कवि, उपन्यासकार डा० रामदरश मिश्र जी के संग बिताय हुए सुखद पलों का है।

सपने प्राय: अप्रासंगिक और असम्बद्ध नहीं होते। कुछ दिन पहले सोने से पूर्व मित्र-भाई रामदरश मिश्र जी से बात हुई तो संयोगवश उनका ही मनोरंजक सपना आया ... सपने में बचपन के किसी गाँव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, कुनकुनी धूप, और बारिश एक संग, ... और उस बारिश में बच्चों-से भागते-दोड़ते रामदरश जी और मैं ... कुछ वैसे ही जैसे उनकी सुन्दर कविता “बारिश में भीगते बच्चे” मेरे सपने में जीवंत हो गई…

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Added by vijay nikore on August 15, 2017 at 4:00pm — 8 Comments

आज़ादी का गीत

"आज़ादी का गीत"

(2212 122 अंतरा 22×4 // 22×3)

(तर्ज़- दिल में तुझे बिठा के)



भारत तु जग से न्यारा, सब से तु है दुलारा,

मस्तक तुझे झुकाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।



सन सैंतालिस मास अगस्त था, तारिख पन्द्रह प्यारी,

आज़ादी जब हमें मिली थी, भोर अज़ब वो न्यारी।

चारों तरफ खुशी थी, छायी हुई हँसी थी,

ये पर्व हम मनाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।



आज़ादी के नभ का यारों, मंजर था सतरंगा,

उतर गया था जैक वो काला, लहराया था तिरंगा।

भारत की जय थी गूँजी, अनमोल… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on August 15, 2017 at 1:29pm — 5 Comments

एक कविता जश्ने आज़ादी के नाम

सत्तर बरस आज़ादी के,

याद करो क़ुर्बानी के ।

वो तो सब परवानें थे ,

भारत माँ के दीवानें थे

हँसते हुए प्राण गंवाए,

वीर शहीद वो कहलाए ,

माँ का हर वचन निभाया ,

देकर रक्त कर्ज़ चुकाया ।

सत्तर बरस.......

आज़ादी की मशाल थे ,

भारत भूमि की ढाल थे ,

शौर्य के अंगारे थे ,

इंकलाब के नारे थे ,

सब साहस की उड़ान थे

वीरता की पहचान थे ।

सत्तर बरस......

हर वीर एक ज्वाला था ,

क्रांति का मतवाला था

जब विपदा आन पड़ी थी ,

जवानी… Continue

Added by Mohammed Arif on August 15, 2017 at 12:02am — 9 Comments

" स्वतंत्रता जय-राग "/ अर्पणा शर्मा

स्वतंत्रता जय-राग सुनाओ,

जय-हिन्द की जयकार गुँजाओ,

सब जन हिलमिल करके आओ,

प्रखर गीत कोई ऐसा गाओ...!



क्षेत्र ,धर्म, जाति मिल सब,

छिन्न करें अस्तित्व जब तक,

खतरे में देश-रक्षा हर क्षण,

दुश्मन की हों मौंजें तब तक,



भारत माँ को अब न लजाओ,

एकसूत्र निरापद हो जाओ,

सब मिल देश सबल बनाओ,

प्रखर गीत कोई ऐसा गाओ...!



आतंक कहर ढाता रहा,

शूरवीर प्राण लुटाता रहा,

रक्त-रंजित इस धरा पर,

जन-जीवन छटपटाता रहा,



और न… Continue

Added by Arpana Sharma on August 15, 2017 at 12:00am — 3 Comments

प्रेरक कृष्ण

एक बाँसुरी, एक ही धुन से, स्नेह सुधा बरसाते हैं,

सूरदास, मीरा – रसखान, रहीम को एक बनाते हैं।

ले लकुटी संग ग्वाल बाल के, नंद की गाय चराते हैं,

त्रस्त प्रजा को क्रूर कंस से, राजा मुक्त कराते हैं।

हैं प्रेरक श्रीकृष्ण नीति, गीता और प्रेम सिखाते हैं,

सुधि जन निर्मल मन से सादर, सहज प्रेरणा पाते हैं।

.

किशोर करीब (मौलिक व अप्रकाशित)

Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 14, 2017 at 7:00pm — 3 Comments

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