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ग़ज़ल - अब हक़ीकत से ही बहल जायें ( गिरिराज भंडारी )

2122  1212   22 /122

मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें

अब हक़ीकत से ही बहल जायें

 

ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे

ता कि कुछ कैमरे दहल जायें

 

तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब

कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें

 

मेरे अन्दर का बच्चा कहता है  

चल न झूठे सही, फिसल जायें

 

शह’र की भीड़ भाड़ से बचते

आ ! किसी गाँव तक निकल जायें

 

दूर है गर समर ज़रा तुमसे

थोड़ा पंजों के बल उछल जायें

 

चाहत ए रोशनी में…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 23, 2017 at 8:11pm — 37 Comments

ग़ज़ल -

221 1221 1221 122



माना कि तेरे दिल की इनायत भी बहुत थी ।

पर साथ इनायत के हिदायत भी बहुत थी ।।



आते थे वो बेफिक्र मेरे शहर में अक्सर ।

तहजीब निभाने की रवायत भी बहुत थी ।।



महंगे मिले हैं लोग मुहब्बत के सफ़र में ।

यह बात अलग है कि रिआयत भी बहुत थी।।



चेहरे को पढा उसने कई बार नज़र से ।

महफ़िल में तबस्सुम की किफ़ायत भी बहुत थी ।।



वो हार गए फिर से अदालत में सरेआम ।

हालाकि नजीरों की हिमायत भी बहुत थी ।।



छूटी हैं… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 23, 2017 at 9:00am — 8 Comments

जब भी देखूँ वो मुझे  चाँद नज़र आता है: सलीम रज़ा रीवा

2122  1122  1122 22

जब भी देखूँ वो मुझे  चाँद नज़र आता है !

रोशनी बन के दिलो  जाँ मे समा जाता है !!



उस हसीं शोख़ का दीदार हुआ है जब से !

उसका ही चेहरा हरेक शै में नज़र आता है !!



मै मनाऊँ तो भला  कैसे मनाऊँ उसको !

मेरा महबूब तो बच्चो सा मचल जाता है !!



क्यूं भला मान लूँ ये इश्क़ नहीं है उसका !

छु्‍पके तन्हाई में  गीतों को मेरे गाता है !!



मैं तुझे चाँद कहूँ  फूल कहूँ या  खुश्बू !

तेरा ही चेहरा हरेक शै…

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Added by SALIM RAZA REWA on August 22, 2017 at 11:00pm — 21 Comments

क्वैक कवि / किशोर करीब

डिग्री धारी एक कवि ने पूछा इक बेडिग्रे से

कैसे लिखते हो कविताएँ दिखते तो बेफिक्रे से।

अलंकार रस छंद वर्तनी कैसे मैनेज करते हो

करते हो कुछ काट - चिपक या फिर अपना ही धरते हो।

पिंगल और पाणिनि को पढ़ मैं तो सोचा करता हूँ,

मात्रिक वार्णिक वर्णवृत्त मुक्तक में लोचा करता हूँ।

यति गति तुक मात्रा गण आदि सभी अंगों को ढो लाते

जरा बताओ ज्ञान कहाँ से इतने सब कुछ का पाते?

-- तब बेचारे हकबकाए क्वैक कवि ने उत्तर दिया --

भाई मैंने आज ही जाना इतने…

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Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 22, 2017 at 8:25pm — 4 Comments

ग़ज़ल - चाँद छिपता रहा फासले के लिए

212 212 212 212



इक नज़र क्या उठी देखने के लिए ।

चाँद छिपता गया फासले के लिए ।।



कोई सरसर उड़ा ले गई झोपड़ी ।

सोचिये मत मुझे लूटने के लिए ।।



मौत मुमकिन मेरी उसको आना ही है ।

दिन बचे ही कहाँ काटने के लिए ।।



जहर जो था मिला आपसे प्यार में ।

लोग कहते गए घूँटने के लिए ।।



रात आई गई फिर शहर हो गई ।

याद कहती रही जागने के लिए ।।



जब रकीबो से चर्चा हुई आपकी ।

फिर पता मिल गया ढूढने के लिए ।।



सज के आए हैं… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 22, 2017 at 6:00pm — 10 Comments

लौट आओ ....

लौट आओ .... 

बहुत सोता था

थक कर

तेरे कांधों पर

मगर

जब से

तू सोयी है

मैं

आज तक

बंद आँखों में भी

चैन से

सो नहीं पाया

माँ

जब भी लगी

धूप

तुम

छाया बन कर

आ गए

जब से

तुम गए हो

मुझे

धूप

चिढ़ाती है

छाया में भी

बहुत सताती है

पापा

डांटते थे

जब पापा

माँ

तुम मुझे

अपनी ममता में

छुपाती थी

डांटती थी

जब माँ…

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Added by Sushil Sarna on August 22, 2017 at 5:52pm — 17 Comments

ग़ज़ल...वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

१२२२   १२२२ ​   १२२२    १२२२​

वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है

तेरी यादों का मौसम है लबों पे इक तराना है



तुझी को याद करता हूँ तेरा ही नाम लेता हूँ

यही इक काम है बाकी तुझे अपना बनाना है



कभी जाये न ये मौसम बहे नैंनो से यूँ सावन

दिखाऊँ किस तरह जज्बात​ राहों में जमाना है



रही बस याद बाकी है यही फरियाद बाकी है

सुनाऊँ क्या जमाने को खुदी को आजमाना है



मिलन होता न उल्फत में कटेगी जिन्दगी पल में

ये साँसें हैं बिखर जायें अमर… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 22, 2017 at 5:00pm — 23 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
चलो अब अलविदा कह दें......

मुझे कुछ और करना है, तुम्हें कुछ और पाना है

मुझे इस ओर जाना है, तुम्हें उस ओर जाना है

कि अब मुमकिन नहीं लगता

कभी इक ठौर बैठें हम

हमें मंजिल बुलाती है, चलो अब अलविदा कह दें....

जहाँ संबोधनों के अर्थ भावों को न छू पाएं

वहाँ सपने कहो कैसे सहेजें और मुस्काएं ?

चलो उस राह चलते हैं जहाँ हों अर्थ बातों में

स्वरों में प्राण हो जिसके मुझे वो गीत…

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Added by Dr.Prachi Singh on August 22, 2017 at 12:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222



हमारे ग़म का उसको क्या कभी अंदाज होता है।

हमारी राह में कांटे जो वो हरबार बोता है।



कभी रूठे अगर जो हम तो ये भी याद रखना तू,

न फिर पायेगा हमको तू अगर इस बार खोता है।



बता इस ग़म का तुझपर क्यों नहीं कोई असर होता,

तू हर दम मुस्कुराता है हमारा दिल जो रोता है।



झमेले ज़िन्दगी के मुश्किलों से झेलते हैं हम,

अकेले जूझते हैं हम उधर उधर वो खूब सोता है।



अजब अपनी कहानी है रहे हैं हम निथरते ही,

बरसती आँख का…

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Added by मंजूषा 'मन' on August 22, 2017 at 12:00pm — 17 Comments

पर्यावरण / किशोर करीब

कौन जाने क्या हुआ है धरा क्यों है भीत।

हो रहा संक्रमित कैसे मौसमों का रीत।

गुम हुए हैं घरों के खग

छिपकली हैं शेष,

क्या पता कौए गए हैं

दूर कितने देश।

कब उगेंगे वृक्ष नूतन होगी कल - कल नाद

कैसे होगी पत्थरों पर हरीतिमा की शीत।

धूप की गर्मी बढ़ी है

सूखती है दूब,

आस का पंछी तड़पता

धैर्य जाता डूब।

क्षीण होती जा रही है अब दिनोदिन छाँव

कब सुनाई देगी वो ही मौसमी संगीत।

आ धमकती सुबह से ही

गर्म किरणें…

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Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 21, 2017 at 9:54pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हैं वफ़ा के निशान समझो ना (प्रेम को समर्पित एक ग़ज़ल "राज')

२१२२ १२१२  २२

खामशी की जबान समझो ना

अनकही दास्तान समझो ना

 

सामने हैं मेरी खुली बाहें

तुम इन्हें आस्तान समझो ना

 

ये गुजारिश सही मुहब्बत की

तुम खुदा की कमान समझो ना

 

स्याह काजल बहा जो आँखों से

हैं वफ़ा के निशान  समझो ना 

 

बस  गए हो मेरी इन आँखों में

इनमें  अपना जहान  समझो ना

 

झुक गया है तुम्हारे कदमों में

ये मेरा आसमान समझो…

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Added by rajesh kumari on August 21, 2017 at 10:43am — 42 Comments

नए चेहरों की कुछ दरकार है क्या

1222 1222 122



नए चेहरों की कुछ दरकार है क्या ।

बदलनी अब तुम्हें सरकार है क्या ।।



बड़ी मुश्किल से रोजी मिल सकी है ।

किया तुमने कोई उपकार है क्या ।।



सुना मासूम की सांसें बिकी हैं ।

तुम्हारा यह नया व्यापार है क्या ।।



इलेक्शन लड़ गए तुम जात कहकर ।

तुम्हारी बात का आधार है क्या ।।



यहां पर जिस्म फिर नोचा गया है ।

यहां भी भेड़िया खूंखार है क्या ।।



बड़ी शिद्दत से मुझको पढ़ रहे हो ।

मेरा चेहरा कोई अखबार है क्या…

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Added by Naveen Mani Tripathi on August 20, 2017 at 4:30pm — 12 Comments

" उमस " ( लघु कथा )

" हेलो - क्या हाल है , आसिफ ? " मैं तो ठीक हूँ तलत ,

" लेकिन मौसम बहुत बेकार है दिन भर बादलों की आना जाना जारी है लेकिन बारिश की कोई संभावना नज़र नहीं आती । घनघोर घटाएँ छाती तो हैं लेकिन वैसी बारिश नहीं होती जैसी होनी चाहिए। हलकी फुल्की फौहार थोड़ी देर के लिए माहौल में ठंडक पैदा कर देती। सूरज की तपिश इसी ठंडक को उमस में परिवर्तित कर देती है। बस ये उमस ही बर्दाश्त से बाहर है। बड़ी बेचैनी होती है। एक अजीब सी घुटन है। 

काश ! कोई इन घटाओं से कह दे आएं…

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Added by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on August 20, 2017 at 6:50am — 6 Comments

" फर्ज " ( लघु कथा )

देख , रुचि - " अंश बहुत अच्छा लड़का है । घर के लोग भी कुलीन हैं और फिर बैंगलोर में ही है । शादी के बाद तुझे जॉब भी स्विच नहीं करना पड़ेगा । तेरे पिताजी ने तो पंडित जी से कुंडली भी मिलवा ली है। 

अब तू ,ना ... मत करना । इन्हें भी तेरी बहुत चिंता है । एक ही साल तो रह गया है रिटायर होने में ।। 

नहीं माँ , ... " मैं कितनी बार बोल चुकीं हूँ । अभी मुझे शादी नहीं करनी । जब करनी होगी तो बता दूँगी ।"…

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Added by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on August 20, 2017 at 1:11am — 5 Comments

लघुकथा--इशारा

हवलदार -" नये थानेदार साहब आज दौरे पर निकले थे । तुम्हारी दुकान पर भी निगाह गई थी । तुमने सामान बाहर सड़क तक जमा रखा है । इससे यातायात में लोगों को दिक्कत आती है ।" हवलदार का इतना कहना ही था कि
घबराकर दुकान संचालक अनिल बोला -"जी...जी...जी... आज के बाद सामान बाहर नज़र नहीं आएगा ।"
"नहीं , नहीं थानेदार साहब का इशारा किसी दूसरी चीज़ की ओर है ।" हवलदार कहते हुए चला गया मगर अनिल को इशारा बहुत देर बाद समझ में आया ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on August 19, 2017 at 11:30pm — 11 Comments

बरखा ( सार छंद- १६,१२)



छन्न पकैया छन्न पकैया , आयी बरखा रानी

बोली बच्चों अंदर बैठो  , मेरी बूढ़ी नानी |

छन्न पकैया छन्न पकैया , भूख लगी है नानी

गरमा गरम पकौड़े खाएं , बोली गुड़ियाँ रानी |

छन्न पकैया छन्न पकैया , सबर रखो तुम मुनिया

मंडी से लाना होगा अब , प्याज , मिर्च औ धनियाँ|

छन्न पकैया छन्न पकैया , मिलकर खाओ भैया

आओ फिर हम नाचे गायें, करके ता ता थैया |

छन्न पकैया छन्न पकैया , जब जब भरता पानी

छप छप करते हैं पानी…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 19, 2017 at 11:30pm — 14 Comments

लघुकथा "मजबूरियाँ"

म्याऊँ -म्याऊँ बहुत देर से एक करुण पुकार कानों में सुन कर अम्माँ खीज कर बोलीं ,अरी गिन्नी ,"ज़रा बाहर जाकर देखियो ये कौन सी चुड़ैल बिल्ली चिल्ला रही है ? मरी को डंडा मार के भगा दे ....। "अरे अम्माँ जी ये तो वही है जिसने कल ही छत पर पाँच सुंदर से बच्चे दिए हैं बिचारी भूखी है शायद ...",गिन्नी लगभग चीख़ती सी बोली । बिल्ली की प्रसवपीडा के बाद की स्थिति को सोच वह विह्वल हो उठी थी । अंदर आ अम्माँ से फिर बोली ,"अम्माँ इसे कुछ खाने को दे दूँ ,ज़रा पेट तो देखो काली नदी के किनारों की तरह सिमट कर मिल रहा… Continue

Added by Mamta on August 19, 2017 at 1:08pm — 7 Comments

लघुकथा उलझन दाखिले की

३ साल की बेटी के नर्सरी क्लास के दाखिले के लिए जाने माने दो स्कूलों  में एडमीशन टेस्ट दिलवाए थे | सोचा ढेरों बच्चों में पास भी होगी कि नहीं| नाम पूछने पर कुछ बताया नहीं और कुछ सुनाया भी नहीं| एक चौकलेट दी गई | बिटिया ने खोल कर वहीँ खा ली और हाथ में रेपर दिखाकर वहीँ बैठी नन से पूछा, आपकी डस्ट बिन कहाँ है और बाहर चली गयी |आज जब रिज़ल्ट देखा तो दोनों स्कूल की लिस्ट में नाम था | किसमें दाखिला लें---- इस पर हम माता पिता सहमत ही नहीं हो पा रहे थे |मां का दिल कहता पास के स्कूल में डालें, आने जाने…

Continue

Added by Manisha Saxena on August 19, 2017 at 11:00am — 8 Comments

अंधी जनता, राजा काना बढ़िया है ...गज़ल

22-22-22-22-22-2



नये दौर का नया ज़माना, बढ़िया है

अंधी जनता, राजा काना, बढ़िया है



अब तो है यह उन्नति की नव परिभाषा,

जंगल काटो, पेड़ लगाना, बढ़िया है



अपना राग अलापो अपनी सत्ता है,

अपने मुंह मिट्ठू बन जाना, बढ़िया है



नई सियासत में तबदीली आई है,

आग लगा कर आग बुझाना, बढ़िया है



हत्या करना बीते युग की बात हुई,

अब दुश्मन की साख मिटाना, बढ़िया है



अगर कोख में बिटिया अब तक जिंदा है,

खूब पढ़ाना, ख़ूब बढ़ाना, बढ़िया… Continue

Added by Balram Dhakar on August 18, 2017 at 8:30pm — 18 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४९

बहरे रमल मुसद्दस सालिम;

फ़ाएलातुन/ फ़ाएलातुन/फ़ाएलातुन;

2122/2122/2122)

.

झाँक कर वो देख ले अपनी ख़ुदी में

ऐब दिखता है जिसे हर आदमी में 

 

पास आकर दूरियों का अक्स देखा

ग़ैर जब होने लगा तू दोस्ती में

 

यूँ नहीं मरते हैं हम सादासिफ़त पे

रंग सातों मुन्शइब हैं सादगी में

 

इक पसेमंज़र-ए-ज़ुल्मत है ज़रूरी

यूँ नहीं दिखती हैं चीज़ें रौशनी में

 

आ तुझे भी इस्तिआरों से सवारूँ

लफ्ज़ के…

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Added by राज़ नवादवी on August 18, 2017 at 2:30pm — 14 Comments

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