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अभी आई है पतझड़ ये बहार कभी तो आएगी(गजल)/सतविन्द्र कुमार राणा

1222 1222 1222 1222



अभी आई है पतझड़ ये बहार कभी तो आएगी

खिलेंगे फूल खुशियों के सुकूँ देकर ही जाएगी।



जुदाई सह नहीं पाया हुआ था दर्द सीने में

उसे ही याद है रक्खा वही जीना सिखाएगी।



जो जोड़ी चोर ने दौलत नहीं कुछ काम है आई

छुपाने की रही कौशिश दिखाई तो फ़ँसाएगी।



बड़े अरमान से चाहा, जिसे पूजा,जिसे माना

नहीं यह जान पाए थे वही हमको सताएगी।



लगाया जोर था जिसको बड़ी ऊपर ले जाने में

नहीं अच्छी बनी सीढ़ी तुझे नीचे… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 20, 2016 at 4:18pm — 7 Comments

ग़ज़ल ( किस ने फूंके नशेमन तमाम )

ग़ज़ल

---------

212 -212 -2121 /212

उसपे वारा है जीवन तमाम ।

जिस में मौजूद हैं फ़न तमाम ।

सख़्त लहजे का अंजाम है

हो गए तुझ से बद ज़न तमाम ।

उनको देखूंगा जब तक नहीं

दिल की होगी न धड़कन तमाम।

अबतो आ जाओ बन कर बहार

उजड़ा उजड़ा है गुलशन तमाम ।

किस को सौंपें क़यादत भला

रहबरों में हैं रहज़न तमाम ।

पूछना है तो बिजली से पूछ

किस ने फूंके नशेमन तमाम ।

इश्क़ तस्दीक़ आसाँ…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on November 20, 2016 at 2:25pm — 10 Comments

उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो (ग़ज़ल)

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

 

उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।

सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।

 

शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।

न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।

 

वो दोहों को ही दुनिया मानता है,

कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।

 

समझदारी है उससे दूर जाना,

अगर हो बैल कोई मरखना तो।

 

जिसे मशरूम का हो मानते तुम,

किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।

 

न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’

किसी दिन गर यही…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 19, 2016 at 10:08pm — 10 Comments

गजल (बह्रे मीर )

  2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2

इंसानी फितरत के जलवे दिन ये कैसे आये हैं

सन्नाटा गलियों में छाया संगीनों के साये हैं

 

चप्पे-चप्पे पर दिखता है आतुर सैनिक का पहरा

धरती की रक्षा करने की शत-शत कसमे खाये हैं

 

कुछ तो अजगुत कहता है यह सघन सुरक्षा का घेरा

क्या फिर से तारामंडल में घन संकट के छाये हैं

 

पोथी लेकर भोली बाला घूम रही वीराने में

अक्षर ने शब्दों से मिल कर गीत सुहाने गाये हैं  

 

खौल रहा है खून वतन…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2016 at 7:27pm — 4 Comments

और फिर से इक दफ़ा-पंकज मिश्र

और फिर से इक दफ़ा इस, दिल ने धोख़ा दे दिया
सो रहा था, बेवफ़ा का, नाम सुनकर जग गया

और फिर से इश्क़ ने, तूफ़ान की सौगात दी
और हमने यूँ किया की, आज जी भर रो लिया

और फिर से इक दफ़ा हम प्रश्न लेकर हैं खड़े
दोस्ती कैसे निभेगी बोल मेरे साथिया

और फ़िर से इक दफ़ा मिलने वो आये हैं मग़र
हम कफ़न में और वो पर्दानशीं उफ़ ये हया

और फिर से इक दफ़ा पत्थर से गङ्गा बह चली
वत्स कुल में इक भगीरथ फिर हुआ पैदा नया

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 19, 2016 at 4:22pm — 8 Comments

है यही पाथेय मेरा // रवि प्रकाश

है यही पाथेय मेरा

एक नन्हा सा अकेला

पल कि जिसमें एक मैं हूँ एक तुम हो

दूर तक कोई नहीं है

और भीतर झिलमिलाते कोटि दीपक

टिमटिमाते हैं सितारे और सूरज भी दमकते

फूटते निर्झर सहस्रों

अति सघन हिमरेख गल कर बह निकलती,

चाह कर भी छुप न पाती

हैं उमंगें दो दिलों की

देह आगे और आगे ही सरकती

चाहती अस्तित्व का अंतिम सिरा

छू कर पिघलना,

देखते हैं नैन ऐसे

आ गया हो ज्वार जैसे

और फिर यूँ बंद होते

लाज में लिपटे अचानक

दूर परबत के शिखर… Continue

Added by Ravi Prakash on November 19, 2016 at 2:24pm — 6 Comments

बकरे की अम्मा

बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती ।

आखिर वे लोग आ पहुंचे तो बकरे की अम्मा रोने लगी “देखिये आराम से … ज़्यादा तकलीफ़ तो नहीं होगी न … बड़े प्यार से पाला है …”

“आप चिंता न करें हमारे कसाई हाई स्किल्ड हैं …” वे बोले ।

“फ़िर भी …” वह विनती करने लगी ।

“देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को वोट का अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …”

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Mirza Hafiz Baig on November 19, 2016 at 9:06am — 8 Comments

मुद्रा के तज़ुर्बे (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

कालाधन भ्रष्टाचार की नोटबंदी रूपी दीवार की आड़ लिए हुए सफ़ेद धन की गुलाबी मुद्रा को शर्माते-मुस्कराते देख कर बोला- "तुम्हें आना ही होगा एक दिन मेरे ही पास!"

"अभी या रात के अँधेरे में!"

"जब मौक़ा मिले तभी; मैं तुम में या तुम मुझ में समा जाओगी!"

"लोकतंत्र के इस बुढ़ापे में भी!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा।

"हाँ, काले को सफ़ेद और सफ़ेद को काले में बदलने के तज़ुर्बे का यही तक़ाज़ा है!" कालेधन ने आत्मविश्वास के साथ कहा।

उसने कालेधन का हाथ थामा और स्वयं के वजूद को भूल सी…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 18, 2016 at 11:30pm — 8 Comments

चोर(लघु कथा)

गाँव में चोरों का प्रकोप बढ़ रहा था। लोग परेशान थे।आये दिन किसी-न-किसी घर में चोरी हो जा रही थी। ग्राम प्रधान ने नई योजना बनाई। पूरा गाँव स्थिति से निपटने को तैयार था।रात चढ़े कालू सेठ के घर चोर पहुँचे।घर का मौन उन्हें ज्यादा मुखर लगा,कालू सेठ का चिर परिचित खर्राटा जो सुनने को नहीं मिला। वे भागने लगे।पूरा गाँव होहकारा देकर पीछे पड़ गया। पर चोर तो चोर थे।निकल गए दूर तक,चोरोंवाले गाँव की तरफ।प्रधान जी के नेतृत्व में उनके गाँव का जत्था आगे बढ़ता जा रहा था।पर यह क्या? थोड़ा ही आगे जाने पर वे…

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Added by Manan Kumar singh on November 18, 2016 at 6:30pm — 4 Comments

प्यार हमें तो बस करना है(ग़ज़ल)/सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र ए मीर
22 22 22 22

प्यार हमें तो बस करना है
साथ ही जीना औ मरना है।

दुनिया जो जी चाहे करले
बिल्कुल भी नहीं डरना है।

जिसने लूटा अब तक सबको
उसका घर तो नहीं भरना है।

कष्ट मिलें अब तक जनता को
उन सबको मिलकर हरना है।

राणा साथ जरूरी सबका
अब गर्दिश से गर तरना है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 17, 2016 at 9:00pm — 4 Comments

ममता की डोर--

"अरे जल्दी घर आओ. माँजी वापस आ गयी हैं| मैंने पूछा भी लेकिन कुछ कहा नहीं उन्होंने", पत्नी का फोन सुनते ही उसका माथा ठनका|

"ठीक है, तुम देखो, मैं जल्दी आता हूँ", कहकर उसने फोन रख दिया| उसको भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक माँ घर क्यों आ गयी| अभी तीन महीने पहले ही तो उनको वृद्धाश्रम में छोड़ कर आया था|

इसी उधेड़बुन में डूबा हुआ वह जल्दी जल्दी घर पहुंचा| पत्नी भी अंदर कुछ परेशान खड़ी थी, एक तो वैसे ही नोट बंदी के चलते हालत पतली थी, उसपर माँ भी आ गयी|

"माँ, सब ठीक तो है वहाँ", और क्या…

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Added by विनय कुमार on November 17, 2016 at 8:06pm — No Comments

तृषित नज़र .....

तृषित नज़र .....

तृषित नज़र अवसन्न अधर

मौन भाव  सब  हुए  प्रखर

नयन घटों की  हलचल में

मधु  पल सारे  गए बिखर

तृषित नज़र अवसन्न अधर 

मौन भाव  सब  हुए  प्रखर 

देह दिगम्बर  रैन   निहारे

बिंब चुंबन के  देह  सँवारे

प्रेम बंध सब  चूर  हो  गए

स्वप्न  वात  में   गए बिखर 

तृषित नज़र अवसन्न अधर 

मौन भाव  सब  हुए  प्रखर 

निर्झर बन बही विरह वेदना

अमृत पल कुछ रहे  शेष न

श्वास श्वास से…

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Added by Sushil Sarna on November 17, 2016 at 5:33pm — 4 Comments

जब बात समझ में आएगी- गीत

देखो तुम भी गुनगुनाओगे जब बात समझ में आएगी

देखो तुम भी मुस्कुराओगे जब बात समझ में आएगी



कोई भी अकेला कैसे करे, इस अंधियारे से सबको दूर  

तुम साथ चले ही आओगे, जब बात समझ में आएगी



गर लक्ष्य बड़ा  हो जीवन में, देनी  पड़ती है क़ुरबानी

खुशियों के दीप जलाओगे, जब बात समझ में आएगी



हर काम सही से हो जाए, क्यूँ  रखते लोगों से उम्मीद

अपने भी फ़र्ज़ निभाओगे, जब बात समझ में आएगी



इस वक़्त अगर ना बन पाए इस तब्दीली का इक हिस्सा 

आगे चलकर…

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Added by विनय कुमार on November 17, 2016 at 3:32pm — 8 Comments

मुल्क भी हैरान है ऐसा मदारी देखकर...

एक करतब दूसरे करतब से भारी देखकर

मुल्क भी हैरान है ऐसा मदारी देखकर,

 

जिनके चेहरे साफ दिखते हैं मगर दामन नहीं

शक उन्हें भी है तेरी ईमानदारी देखकर,

 

उम्रभर जो भी कमाया मिल गया सब खाक में

चढ गया फांसी के फंदे पर उधारी देखकर,

 

मुल्क में हालात कैसे हैं पता चल जाएगा

देखकर कश्मीर या कन्याकुमारी देखकर,

 

सर्द मौसम है यहां तो धूप भी बिकने लगी

हो रही हैरत तेरी दूकानदारी देखकर,

 

इस…

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Added by atul kushwah on November 16, 2016 at 5:00pm — 16 Comments

ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222



वफ़ा की सब फिजाओं में हमारा जिक्र आएगा ।

घिरी काली घटाओं में हमारा जिक्र आएगा ।।



पुराने खत जला देना बहुत मायूस कर देंगे ।

खतों की वेदनाओं में हमारा जिक्र आएगा ।।



खुदा से पूछ लेना तुम खुदा तस्लीम कर लेगा ।

खुदा की उन दुआओं में हमारा जिक्र आएगा ।।



बहारें जब भी आएँगी तेरी दहलीज़ पे अक्सर ।

महकती सी हवाओं में हमारा जिक्र आएगा ।।



कोई तारीफ़ में तेरे अगर कुछ शेर कह जाये ।

तो उसकी भी अदाओं में हमारा जिक्र… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on November 16, 2016 at 9:15am — 4 Comments

आहुति – लघुकथा -

आहुति – लघुकथा -

गोविंदी को आज चार दिन हो गये बैंकों के चक्कर काटते हुए। हज़ार हज़ार  के चार नोट लेकर घूम रही थी। ना कोई सुनने वाला, ना कोई मदद करने वाला। तीन साल के इकलौते बच्चे को पड़ोसिन के सहारे छोड़ कर आती थी। एक एक पैसे को मुँह ताक रही थी। उसका मर्द ठेके पर मजदूरी करता था।  एक दिन भी नागा करना परिवार पर आर्थिक बज्रपात होता। घर खर्च चलाना दूभर हो रहा था। मगर आज गोविंदी कुछ मन में ठान कर आई थी। बैंक की लाइन में लगे हुए लोगों से बड़ बड़ा रही थी,

"भाई, कोई ऐसी तरक़ीब बताओ जिससे आज…

Continue

Added by TEJ VEER SINGH on November 15, 2016 at 6:43pm — 11 Comments

सफ़र (कविता)

सफ़र

सोचा जब भी
सफ़र कर लूँ
शुद्ध हवा खा लूँ
पहाड़ो के बीच
किसी झरने के करीब
एक डेरा डाल लूँ
ख्वाबों में बादल
आने लगे ।
उमड़ते घुमड़ते एहसास
छू रहे थे बादल
पहाड़ों के शिखर को
हलके से झांक रहा था रवि
नर्म मुलायम मखमली चादर
डेरे के पास शर्मा रही थी
जो रवि को देख पुल्लकित
हो खिल गयी
और मैं इस सफ़र
का आनंद ले रही थी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 15, 2016 at 5:50pm — 4 Comments

डबडबाई आँखें

कभी हँसते कभी रोते समय की कानों में आहट

अरमानों की उतरती-चढ़ती लम्बी परछाइयाँ

आकारहीन अँधेरे में अंधों की तरह

अभी भी हम एक-दूसरे को खोजते हैं

इस खोज में तेरे आँसुओं ने मुझको

बहुत दिया

इतना दिया कि मुझसे आज तक 

झेला नहीं गया

काँपती परछाइयों में तुम आई, हर बार

मन का पलस्तर उखड़ गया

स्वर तुम्हारे, कभी स्वर मेरे रुंधे हुए

खोखले हुए

तुमको, कभी मुझको सुनाई न दिए

पर सुन लेती हैं…

Continue

Added by vijay nikore on November 15, 2016 at 3:08pm — 10 Comments

इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )

इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )

कितना
इठलाती थी
शोर मचाती थी
मोहल्ले की
नींद उड़ाती थी

आज
उदास है
स्पर्श को
बेताब है
आहटें

शून्य हैं


अपनी शून्यता के साथ
एक विधवा से
अहसासों को समेटे
झूल रही है
दरवाज़े पर
अकेली
सांकल

शायद
इस घर से
इस घर को
घर बनाने वाला
चला गया है
इक
बज़ुर्ग


सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 1:39pm — 14 Comments

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