आओ देखें कविता अपनी
रंग-बिरंगी -सजी हुयी -है
कितनी प्यारी -
मुझको -तुमको लगता ऐसे ...
जैसे भ्रमर की कोई
कली खिली हो
भर पराग से उमड़ पड़ी हो
तितली के संग -
खेल रही हो मन का खेल !!
चातक की चंदा
निकली हो आज -
पूर्णिमा-धवल चांदनी
धीरे -धीरे आसमान में
सरक रही हो
पास में आती
मोह रही हो सब का मन !!
बिजली ज्यों बादल का दामन
छू-आलिंगन कर
चमक पड़ी…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on December 4, 2013 at 7:30pm — 10 Comments
अपनी आवारा कविताओं में -
पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन ,
हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध ,
पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ मैं !
लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम -
तो देह लिखता हूँ !
जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना !
और जब -
मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -
कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा !
आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है…
ContinueAdded by Arun Sri on December 4, 2013 at 1:13pm — 18 Comments
Added by Vindu Babu on December 4, 2013 at 12:30pm — 30 Comments
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
2122 1212 22
बात क्या है जो रात भारी है,
इश्क है या कोई बिमारी है,
जान लेती रही हमेशा पर,
याद तेरी बहुत दुलारी है,
मौत से डर के लोग जीते हैं,
जिंदगी ये ही सबसे प्यारी है,
हुस्न कातिल सही सुनो लेकिन,
सादगी फूल सी तुम्हारी है,
हाथ खाली ही लेके जायेगा,
जग से राजा भले भिखारी है....
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by अरुन 'अनन्त' on December 4, 2013 at 11:30am — 29 Comments
२२१२ १२१२ २२१ १२२
दम भूख से हैं तोड़ते मासूम जमीं पर
पीकर शराब मस्ती में तू झूम जमी पर
बच्चे मनाते फुलझड़ी बिन रो के दिवाली
पीकर तुझे लगे मची है धूम जमी पर
अम्बार फरजी डिग्रियों के तूने लगाए
लटका के अब गले में इन्हें घूम जमी पर
दो बूँद अश्क जो गिरे आँखों से यूं तेरी
सारे शहर में उग गए मशरूम जमी पर
सड़कों पे गर पिया तो पोलिश का भी है पंगा
बनवा ले झुरमुटों में ही कोई रूम जमी…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on December 4, 2013 at 11:06am — 24 Comments
नीरसता में बदलता, नाशवान सुख-भाग,
सुख दुख में सम भाव रह,भौतिक सुख है रोग |
भौतिक सुख है रोग, अर्थ जीवन का जाने
खुद का हो उद्देश्य, कृपा हम प्रभु की माने |
कह लक्ष्मण कविराय, भरे मन में समरसता,
स्वच्छ करे मन भाव, तब न होगी नीरसता ||
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 4, 2013 at 9:30am — 11 Comments
एक बार हमें भी लगा कि हमें शायर बनना चाहिये हमने शुरुआत की, हमने शुअरा को पान खाते देखा तो हमें लगा यह भी शायर बनने के लिये ज़रूरी है सो हमने शुरुआत यहीं से की l
आनन फानन कुछ अशआर लिख मारे और छपवाने के लिये मशहूर अखबार के दफ़्तर गये जहाँ हमें हमारी शख़्सियत को देखते हुये संपादक से मिलने का सौभाग्य मिला l
संपादक महोदय ने ऊपर से नीचे तक हमें देखा और हमारे हाथ से लेकर हमारी रचनाये पढ़ने के बाद संपादक महोदय ने कुछ कहने की भी जहमत नही उठाई, वो अपने मनहूस लैपटॉप पर कोई फिल्म…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 4, 2013 at 9:00am — 28 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on December 4, 2013 at 7:00am — 25 Comments
कन्हैया यूँ न मुस्काओ दीवाना होश खो देगा ।
कि खुद डूबेगा मस्ती में वो तुमको भी डुबो देगा ।
दीवाने को नही मालुम तेरी मुस्कान का जादू ।
जो देखेगा छटा मुख की तो हो जाये न बेकाबू ।
फिर तो होके वो पागल तुम्हारे पीछे दौड़ेगा ।
कन्हैया यूँ न मुस्काओ दीवाना होश खो देगा ।
ये करुणा से भरी आँखें पिलाती प्रेम का प्याला ।
के उस पर माधुरी तेरी घोल दे कौन सी हाला ।
गिरेगा लड़खड़ाकर जब तुम्हें बदनाम कर देगा ।
कन्हैया यूँ…
Added by Neeraj Nishchal on December 4, 2013 at 6:26am — 18 Comments
(२१२२ १२१२ २२)
एक बीमार की दवा जैसे
तुम मेरे पास हो ख़ुदा जैसे |
साँस-दर-साँस ज़िन्दगी का सफ़र
और तुम आखिरी हवा जैसे |
उनकी आँखों में बस मेरा चेहरा
आइनों से हो सामना जैसे |
रूह ! बेकार है बदन तुझ बिन
इक लिफ़ाफ़ा है बिन पता जैसे |
आपकी मुस्कुराहटों की कसम
हो गया जन्म दूसरा जैसे |
- आशीष नैथानी 'सलिल'
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on December 3, 2013 at 11:30pm — 21 Comments
कुछ तो बात रही होगी ही ,वरना तुमसे रूठा क्यूँ है
हाथों में हर दम रहता था , वही खिलौना टूटा क्यूँ है
तुमने तो लिखा था मुझको सारी कसमें हैं उससे ही
अब वो कसमें कोरी कैसे , अब वो बोलो झूंटा क्यूँ है
हर पन्ने पर नाम लिखा था हर पंक्ति मे ज़िक्र था उसका
ज़िल्द बची क्यूँ उस क़िताब की , आख़िर वो ही छूटा क्यूँ है
जिसका मन मंदिर था तेरा , मूरत थी आराधन वंदन
जिसकी ख़ातिर व्रत रखे थे , वही प्रसाद अब जूठा क्यूँ है
जिससे ही…
ContinueAdded by ajay sharma on December 3, 2013 at 10:30pm — 2 Comments
नदी पर काठ का एक छोटा किन्तु मजबूत सेतु बना था I उसके नीचे माधवी झाड़ियो से रंग-बिरंगे फूल चुन रही थी I अचानक उसने विटप की ओर देखा और कहा - ' हमारे तुम्हारे गाँव के बीच यही एक नदी है जिस पर यह सेतु है I इसका मतलब समझे ?'
'नहीं----' विटप ने हंसकर कहा I
'बुद्धू ---- दो दिलो को ऐसा ही सेतु आपस में मिलाता है I ' -माधवी ने फूलो का ढेर लगाते हुए कहा ' और----- वह सेतु है विवाह i ' माधवी ने थोडा रूककर फिर कहा -' विटप, वहा सेतु पर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2013 at 9:30pm — 18 Comments
खबर क्या है किसी को कल की
ज़िन्दगी ठहरी फ़क़त दो पल की
एक से ही हैं गम हमारे
एक सी ही तो खुशियाँ
दिल से दिल के दरमयाँ
फिर क्यूँ इतनी है दूरियाँ
तमन्ना किसे है आखिर ,किसी ताजमहल की
ज़िन्दगी ठहरी फ़क़त दो पल की .............
आ चल दो पल हम
जरा दिल से रो लें
नफ़रत के हर निशाँ
आँसुओं से धो लें
ओढ़ माँ का आंचल
दो पल को हम सो लें
जिन्दगानी हो कहानी ,यक नए पहल की
ज़िन्दगी ठहरी फ़क़त दो पल की…
Added by Kedia Chhirag on December 3, 2013 at 4:00pm — 9 Comments
- दोहावली -
संग हरि किये हरि हुये, दानव ,दानव संग
किंतु न मानव बन सके, कर मानव के संग
कह सुन खाली मन करें, बचे न कोई बात ।
मन को उजला कीजिये, जैसे उजली रात ।।
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 3, 2013 at 2:30pm — 23 Comments
1221 1221 1221 121
हमेशा राह में नदियों, बिछे पत्थर नहीं होते
मिला वनवास जिनको हो, उनके घर नहीं होते
.
किसी से बावफा तो, किसी से बेवफा क्यों दिल
कभी इन सवालों के, कोई उत्तर नहीं होते
.
कभी चलके, कभी तर के, जहाँ घूम लेते हैं
परिन्दे जिनके उड़ने को, वदन पे पर नहीं होते
.
चला देते हैं झट खन्जर, नीदों में भी साये पे
ये ना समझो जहन में कातिलों के डर नहीं होते
.
गर जीना हो भोलापन, रहो भीड़ से…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2013 at 11:00am — 11 Comments
अकुला रही सारी मही
किसको पुकारना है सही ।
सोच रही अब वसुंधरा
कैसा कलुषित समय पड़ा
बालक बूढ़े नौजवान
गिरिवर तरुवर आसमान
किसको पुकारना .........
अखंड भारत का सपना
देखा था ये अपना
खंडित हो कर बिखर रहा
न जन मानस को अखर रहा
अकुला रही .................
ढूँढने पर भी अब मिलते नहीं
राम कृष्ण से पुरुषोत्तम कहीं
गदाधर भीम अर्जुन धनु सायक नहीं
गांधी सुभाष भगत से नायक…
ContinueAdded by annapurna bajpai on December 3, 2013 at 11:00am — 10 Comments
परीक्षाएं निकट थीं लेकिन टीचर पिछले कई दिनों से क्लास से गायब थे. पढ़ाई का बहुत हर्जा हो रहा था जिसे देखकर उसे बेहद गुस्सा आता. रह रह कर उसके सामने अपनी विधवा बीमार माँ का चेहरा घूम जाता, जो लोगों के घरों में झाड़ू पोछा कर उसे पढ़ा रही थी. आखिर उस से रहा न गया और वह शिकायत लेकर प्रधानाचार्य के पास जा पहुंचा।
“उस कक्षा में और भी तो विद्यार्थी है, सिर्फ तुम्हें ही शिकायत क्यों है।”
“क्योंकि मैं एकलव्य नहीं हूँ सर।”
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on December 3, 2013 at 10:00am — 24 Comments
चार मुक्तक
1.
झुकाना पड़े सिर मां को ऐसा कारोबार मत कीजिये,
अपने लहू से जिसने पाला उसे लाचार मत कीजिये,
कर सको तो करो ऐसा काम जगत में कि गर्व हो तुम पर,
कोख मां की हो जाये लज्जित ऐसा व्यवहार मत कीजिये,
2.
बरस बीत जाते है किसी के दिल में जगह पाने में,
एक गलत फहमी देर नहीं लगाती साथ छुड़ाने में,
बहुत नाजुक होती है मानवीय रिश्तों की डोर यहां,
नफरत में देर नहीं लगाते लोग पत्थर उठाने में।
3.
हर बात की अपनी करामात होती है,
कभी ये हंसाती तो…
Added by Dayaram Methani on December 2, 2013 at 11:09pm — 8 Comments
ये दीवारें बहुत ऊंची और चौड़ी हैं
कि कोई तांक झांक न कर सके
लेकिन यहां एक खिड़की है
शोर मत करो,ये शरीफों कि वस्ती है
एक औरत जो घूंघट ओड़कर आती है
और घूंघट ओड़कर चली जाती है
एक मोटर इस वस्ती से निकलकर
एक दूसरी वस्ती में जाती है हर रोज
शोर मत करो, ये शरीफों कि वस्ती है
उसके कपड़ॆ बहुत उजले हैं
और महीन भी बहुत हैं
नजदीक न जाओ मैले हो सकते हैं
और महीन रेशों के बीच से
परावर्तित किरणें तुम्हरी आंखों…
ContinueAdded by hemant sharma on December 2, 2013 at 11:00pm — 8 Comments
इक पल मैं हूँ..........
इक पल मैं हूँ इक पल है तू
इक पल का सब खेला है
इक पल है प्रभात ये जीवन
इक पल सांझ की बेला है
इक पल मैं हूँ..........
ये काया तो बस छाया है
इससे नेह लगाना क्या
पूजा इसकी क्या करनी
ये मिट्टी का ढेला है
इक पल मैं हूँ..........
प्रश्न उत्तर के जाल में उलझा
मानव मन अलबेला है
क्षण भंगुर इस जिस्म में लगता
साँसों का हर पल मेला…
Added by Sushil Sarna on December 2, 2013 at 10:00pm — 14 Comments
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