मुक्तछंद कविता सम जीवन,
तुकबंदी की बात कहाँ है ||
लय, रस, भाव, शिल्प संग प्रीति |
वैचारिक सुप्रवाह की रीति ||
अलंकार से कथ्य चमकता |
उपमानों से शब्द दमकता ||
यगण-तगण जैसे पाशों से,
होता कोई साथ कहाँ है |
मुक्तछंद कविता सम जीवन,
तुकबंदी की बात कहाँ है ||
अनियमित औ स्वच्छंद गति है |
भावानुसार प्रयुक्त यति है ||
अभिव्यक्ति ही प्रधान विषय है |
तनिक नहीं इसमें संशय है ||
ह्रदयचेतना से सिंचित ये,
ऐसा यातायात कहाँ है |
मुक्तछंद…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 5, 2012 at 8:38am — 12 Comments
रो रोकर हार गया काजल
हार गये बिछुए कंगना
समझा दो तुम ही तुम बिन
अब कैसे जिएगा ये अंगना
कैसे आयें प्राण कहो अब नथ,बिंदियाँ और लाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में
सब देखें छत चढ़ चढ़ चन्दा,
पर मेरा चन्दा रूठ गया
दिल का बसने वाला था जो
कितना पीछे छूट गया
कैसे रंग रहे होली में कैसी चमक दिवाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में
जनम जनम की कसमें सारी
इक क्षण में ही तोड़ चले
तुम क्या जानो अंखियों से…
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 4, 2012 at 9:44pm — 5 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 4, 2012 at 5:30pm — 5 Comments
===========ग़ज़ल=============
बह्र मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ महजूफ
वज्न- २ २ १ - २ १ २ १ - १ २ २ १ - २ १ २
चेह्रा है आपका या हसीं माहताब है
ये नाजुकी बदन की बड़ी लाजबाब है
गोरा बदन है ऐसे के छू लें तो सुर्ख हो…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on November 4, 2012 at 4:50pm — 6 Comments
मजदूर व्यापारी कामगार
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 4, 2012 at 2:52pm — 13 Comments
वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते
लव-कुश की बाल -लीलाओं का आनंद प्रभु संग में लेते .
जब प्रभु बुलाते लव -कुश को आओ पुत्रों समीप जरा ,
घुटने के बल चलकर जाते हर्षित हो जाता ह्रदय मेरा ,
फैलाकर बांहों का घेरा लव-कुश को गोद उठा लेते !
वैदेही सोच रही मन में यदि प्रभु यहाँ मेरे होते !!
ले पकड़ प्रभु की ऊँगली जब लव-कुश चलते धीरे -धीरे ,
किलकारी दोनों…
Added by shikha kaushik on November 3, 2012 at 11:30pm — 9 Comments
सबसे मिलना तो इक बहाना है
कौन अपना है अजमाना है
मै कोई ख्वाब आँखों में सजाता ही नहीं
इल्म होता जो बिखर जाना है
Added by ajay sharma on November 3, 2012 at 11:00pm — 3 Comments
मोटी-चमड़ी पतला-खून ।
नंगा भी पहने पतलून ।
भेंटे नब्बे खोखे नोट -
भांजे दर्शन अफलातून ।
भुना शहीदी दादी-डैड
*शीर्ष-घुटाले लगता चून ।
*सिर मुड़ाना / चोटी के घुटाले
पंजा बना शिकंजा खूब-
मातु-कलेजी खाए भून ।
मिली भगत सत्ता पुत्रों से
लूटा तेली लकड़ी-नून ।
दस हजार की रविकर थाल
उत फांके हों दोनों जून ।
Added by रविकर on November 3, 2012 at 5:00pm — 10 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 3, 2012 at 2:30pm — 9 Comments
काव्यगोष्ठी , परिचर्चा
कभी किसी विषय का विमोचन ,
आये दिन होते रहते
कविता पाठ के मंचन .
बाज़ न आते आदत से
ये कवियों की जो जात है .
वाह -वाह क्या बात है !
वाह -वाह क्या बात है !
इन्हें आदत है बोलने की
ये बोलते जायेंगे ,
हमारा क्या है , हम भी
सुनेंगे , ताली बजायेंगे .
पल्ले पड़े न पड़े , कोई फर्क नहीं
बस ढiक का तीन पात है .
वाह -वाह क्या बात है !
वाह -वाह क्या बात है !
ये निठल्ले , निकम्मे कवि
बे बात के ही पड़ते…
Added by praveen singh "sagar" on November 3, 2012 at 2:00pm — 7 Comments
वचन दिया जो तुमने प्रीतम
जीवन भर साथ निभाने का
पवित्र अग्नि को साक्षी मान
परिस्तिथियों से ना घबराने का
साथ फेरों का बंधन दे
अपना बनाया मेरा मन
हर ख़ुशी कर, मुझे अर्पण
प्रेम की ज्योति चित जगा
कदम मिलाकर चलूंगी में भी
बन संगनी तेरी हमदम
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
तुझे निहारूं
लम्बी उम्र की दुआ मैं मांगूं
नेत्र में तेरा अक्स बना
तुझे मैं चाहूं उम्र भर
हर पल और जीवन…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on November 3, 2012 at 1:07pm — No Comments
पापा मम्मी आप भी आओ
उन पुरानी गलिओं से फिर
ख्याल अपने दिल तक आये
आँगन में थे खिलते उन कलियों से
सवाल अपने दिल तक आये
दौरते आते सारे किस्से
कोई बैठकर मुझे सुनाओ
आँखे तरस रही दर्शन को
पापा मम्मी आप भी आओ
गहरी जाती उन घाटीयों से
संकराति गूंजे घूम रही हैं
चट्टानों पे रेत की बूंदे
अब भी मानो झूम रही हैं
भूलते जाते उन पन्नो से
पुरानी कुछ गजलें सुनाओ …
Added by AJAY KANT on November 3, 2012 at 12:27pm — 3 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 3, 2012 at 11:23am — 2 Comments
जब कभी मेरी बात चले
ख़्वाब में भी कोई ज़िक्र चले
मेरे हमदम मेरे हमराज़
यूं ही खामोश रहो
शायद ही कभी
ठिठुरते हुए बिस्तर पे
कभी चांदनी बरसे
या फिर झील के ठहरे हुए पानी में
कभी लहरे मचले
जब कभी आँखों के समंदर में
कोई चाँद उतरे
मेरे हमदम मेरे हमराज
यूं ही खामोश रहो…
Added by Gul Sarika Thakur on November 2, 2012 at 10:05pm — 9 Comments
गीत:
उत्तर, खोज रहे...
संजीव 'सलिल'
*
उत्तर, खोज रहे प्रश्नों को, हाथ न आते।
मृग मरीचिकावत दिखते, पल में खो जाते।
*
कैसा विभ्रम राजनीति, पद-नीति हो गयी।
लोकतन्त्र में लोभतन्त्र, विष-बेल बो गयी।।
नेता-अफसर-व्यापारी, जन-हित मिल खाते...
*
नाग-साँप-बिच्छू, विषधर उम्मीदवार हैं।
भ्रष्टों से डर मतदाता करता गुहार है।।
दलदल-मरुथल शिखरों को बौना बतलाते...
*
एक हाथ से दे, दूजे से ले लेता है।
संविधान बिन पेंदी नैया खे लेता…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 2, 2012 at 5:56pm — 7 Comments
मौत भी अब तो बहाने बनाने लगी है दोस्तों
देखकर उनको ये भी नखरे दिखाने लगी है दोस्तों
हार जाना ही था शायद हिम्मत को मेरी
किस्मत भी मुझको चिढाने लगी है दोस्तों
क्या थी जिन्दगी और क्या हो गई है
रौशनी भी अब डराने लगी है दोस्तों
खो गये मेरे ख्वाब इस शहर में न जाने कहाँ
हकीक़त ही बस अब भाने लगी है दोस्तों
हो गई दोस्ती मेरी गमो से कुछ यूँ
खुशियाँ अब मुझको रुलाने लगी है दोस्तों
कहो तुम ही अब अंजाम-ए-जिन्दगी क्या हो…
Added by Sonam Saini on November 2, 2012 at 1:55pm — 12 Comments
मूक हो गई
रांगा माटी
नीरव नभ
अनुनाद
रम्य तपोवन
गुमशुम-गुमशुम
झर गए पारिजात
कासर घंटे
ढाक सोचते
ढूंढ रहे
वह नाद
भरे-भरे मन
प्राण समेटे
भींगे सारी रात
कमल-कुमुदिनी
मौन मुखर हैं
कहां भ्रमर
कहां दाद
पंकिल पथ पर
हवा पूछती
कैसे ये संघात
जाओ अपने
देश को पाती
यह पता
कहां आबाद
अपनी…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on November 2, 2012 at 1:28pm — 3 Comments
विवाह : एक दृष्टि
द्वैत मिटा अद्वैत वर...
संजीव 'सलिल'
*
रक्त-शुद्धि सिद्धांत है, त्याज्य- कहे विज्ञान।
रोग आनुवंशिक बढ़ें, जिनका नहीं निदान।।
पितृ-वंश में पीढ़ियाँ, सात मानिये त्याज्य।
मातृ-वंश में पीढ़ियाँ, पाँच नहीं अनुराग्य।।
नीति:पिताक्षर-मिताक्षर, वैज्ञानिक सिद्धांत।
नहीं मानकर मिट रहे, असमय ही दिग्भ्रांत।।
सहपाठी गुरु-बहिन या, गुरु-भाई भी वर्ज्य।
समस्थान संबंध से, कम होता सुख-सर्ज्य।।
अल्ल गोत्र कुल आँकना, सुविचारित…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 2, 2012 at 11:08am — 3 Comments
गीत:
समाधित रहो ....
संजीव 'सलिल'
+
चाँद ने जब किया चाँदनी दे नमन,
कब कहा है उसी का क्षितिज भू गगन।
दे रहा झूमकर सृष्टि को रूप नव-
कह रहा देव की भेंट ले अंजुमन।।
जो जताते हैं हक वे न सच जानते,
जानते भी अगर तो नहीं मानते।
'स्व' करें 'सर्व' को चाह जिनमें पली-
रार सच से सदा वे रहे ठानते।।
दिन दिनेशी कहें, जल मगर सर्वहित,
मौन राकेश दे, शांति सबको अमित।
राहु-केतु ग्रसें, पंथ फिर भी न तज-
बाँटता रौशनी, दीप होता…
Added by sanjiv verma 'salil' on November 2, 2012 at 10:06am — 8 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on November 1, 2012 at 8:26pm — 10 Comments
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