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बिगडती बात ( गजल )

१२२२    /    १२२२   /  १२२२   /   २२२ 

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जमी जो बर्फ रिश्तों पे  पिघल जाये तो अच्छा है 

बिगड़ती बात बातों से सँभल जाये तो अच्छा है 

 

हमारी याद जब आये शहद यादों में घुल जाये

छिपी जो दिल में कडवाहट निकल जाये तो अच्छा है  

 

तमन्ना  चाँद पाने की बुरी होती नही लेकिन

जमीं से देखकर ही दिल बहल जाये तो अच्छा है

 

मुकद्दर में मुहब्बत के लिखी हैं ठोकरें ही जब 

गमों से पेशतर ये दिल सँभल जाये तो अच्छा…

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Added by Sachin Dev on September 26, 2016 at 3:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल को ढूँढने, चलिए चलें खेतों में गाँवों में (ग़ज़ल)

1222   1222   1222   1222

न जाने धूल कब से झोंकता था मेरी आँखों में!

जो इक दुश्मन छुपा बैठा था मेरे ख़ैरख़्वाहों में!

भटकते फिरते थे गुमनाम होकर जो उजालों में!

हुनर उन जुगनुओं का काम आया है अंधेरों में!

फ़क़त इक वह्म था,धोखा था बस मेरी निगाहों का,

अलग जो दिख रहा था एक चेहरा सारे चेहरों में!

हक़ीक़त के बगूलों से हुए हैं ग़मज़दा सारे,

हुआ माहौल दहशत का,तसव्वुर के घरौंदों में!

ख़ता इतनी सी थी हमने गुनाह-ए-इश्क़…

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Added by जयनित कुमार मेहता on September 26, 2016 at 5:19pm — 9 Comments

ग़ज़ल - जिंदगी है ढ़लान पर भाई

2122 1212 22

आज मुद्दा ज़ुबान पर भाई ।

गोलियां क्यूँ जवान पर भाई ।।



उठ रहीं बेहिसाब उँगली क्यूँ ।

इस लचीली कमान पर भाई ।।



कुछ वफादार हैं अदावत के।

तेरे अपने मकान पर भाई।।



बाल बाका न हो सका उनका।

खूब चर्चा उफान पर भाई ।।



मरमिटे हम भी तेरी छाती पर।

चोट खाया गुमान पर भाई ।।



बिक रही दहशतें हिमाक़त में ।

उस की छोटी दुकान पर भाई ।।



गीदड़ो का फसल पे हमला है ।

बैठ ऊँचे मचान पर भाई ।।



यार… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on September 27, 2016 at 12:34am — 4 Comments

तरही ग़ज़ल/सतविन्द्र कुमार

बह्र :2212  2212  2212  2212



खलती रही अब तक हमें जिस साज की आवाज़ ही

अब कान में घुलती हुई अपनी तरफ हैं खींचती।





अब खा रहे हैं काग वो खाना किसी के श्राद्ध में

आते नहीं इंसान को गुरबत में जिसके ख़्वाब भी।



जो बेचते हैं भूख जनता को दिखा कर रोटियां

वो खुद सियासत में मजे से खा रहे हैं शीरनी।





दीपक बिकें तो फिर गरीबो का बने त्यौहार कुछ

बिजली से जगमग हो रही चारों तरफ दीपावली।





करके सितम इंसान पर तू जान क्यूँ है… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 29, 2016 at 2:00pm — 18 Comments

भाई साहब सबकी अर्थी, बस कन्धों पर जानी है-----इस्लाह के लिए ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2

माटी माटी जुटा रही पर जीवन बहता पानी है

स्वार्थ लिप्त हर मनुज हुआ कलयुग की यही कहानी है



मन की आग बुझे बारिश से, सम्भव भला कहाँ होगा

तुम दलदल की तली ढूंढते ये कैसी नादानी है



भौतिकता तो महाकूप है मत उतरो गहराई में

दर्पण कीचड़ युक्त रहा तो मुक्ति नहीं मिल पानी है



बीत गया सो बीत गया क्षण, बीता अपना कहाँ रहा

हर पल दान लिए जाता है समय शुद्ध यजमानी है



स्वर्ण महल अवशेष न दिखता हस्तिनापुर बस कथा रहा।

बाबर वंश… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 29, 2016 at 5:41pm — 21 Comments

ग़ज़ल:हसरतें बाँध लें बेडियाँ करके । (आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' )

212  212  212   22

ज़िन्दगी को मिरे रायगाँ करके,    

चल दिये रंज को मेहमाँ करके,.

बाँह के इस क़फ़स से उड़े, अब क्या?

हसरतें बाँध लें बेडियाँ करके,

बेबसी आदमी की कहाँ ठहरे,

 रास्ते पर रहे आशियाँ करके,

पैर के धूल पर वक़्त मेहरबाँ,

धूल उड़ने लगे आँधियाँ करके,

लज़्ज़तें कुछ नहीं, दर्द ओ आंसू,

ये मिले फासले दरमियाँ करके,

वक़्त यूँ ही गुज़रता रहा…

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Added by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on October 2, 2016 at 1:00pm — 4 Comments

कविता - "उत्कर्ष"/अर्पणा शर्मा

“उत्कर्ष“

एक टिमटिमाते, बुझते तारे का उत्कर्ष,

देख लोग, होते चमत्कृत,

लेकिन वे बूझने में असमर्थ,

उसका नैपथ्य में छिपा,

गहन, सतत संघर्ष,

रुपहली चमक के पीछे छिपे,

कालिमा के सुदीर्घ, लंबे वर्ष,

फिर भी आशाओं से परिपूर्ण,

बाधाएँ, चुनौतियाँ पार कर,

उत्साहित, प्रसन्नचित्त, प्रकाशमान सहर्ष,

प्रोत्साहन देता अनूठा, गांभीर्य शब्द संघर्ष,

छिपा गूढ इसमें तात्पर्य,

ड़टे रहो कर्तव्यपथ पर “ संग + हर्ष",

अब दूर कहीं मुसकुराता है,…

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Added by Arpana Sharma on October 4, 2016 at 5:41pm — 6 Comments

ताटंक छंद आधारित गीत

माता तेरा बेटा वापस, ओढ़ तिरंगा आया था।

मातृ भूमि से मैंने अपना, वादा खूब निभाया था।



बरसो पहले घर में मेरी, गूंजी जब किलकारी थी।

माता और पिता ने अपनी हर तकलीफ बिसारी थी

पढ़ लिख कर मुझको भी घर का,बनना एक सहारा था

इकलौता बेटा था सबकी मैं आँखों का तारा था

केसरिया बाना पहना कर ,भेज दिया था सीमा पे

देश प्रेम का जज़्बा देकर ,इक फौलाद बनाया था



सोते सोते प्राण गँवाना, मुझे नहीं भाया यारो

कायर दुश्मन की हरकत पर ,क्रोध बहुत आया यारो

शुद्ध रक्त…

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Added by Ravi Shukla on September 20, 2016 at 8:30pm — 20 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
यार, ठीक हूँ, सब अच्छा है ! (नवगीत) // --सौरभ

लोगों से अब मिलते-जुलते

अनायास ही कह देता हूँ--

यार, ठीक हूँ..

सब अच्छा है !..

 

किससे अब क्या कहना-सुनना

कौन सगा जो मन से खुलना

सबके इंगित तो तिर्यक हैं

मतलब फिर क्या मिलना-जुलना

गौरइया क्या साथ निभाये

मर्कट-भाव लिए अपने हैं

भाव-शून्य-सी घड़ी हुआ मन

क्यों फिर करनी किनसे तुलना

 

कौन समझने आता किसकी

हर अगला तो ऐंठ रहा है

रात हादसे-अंदेसे में--

गुजरे, या सब

यदृच्छा है !

 

आँखों में कल…

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Added by Saurabh Pandey on September 15, 2016 at 5:30pm — 23 Comments

सृष्टि का सबसे मधुर फिर गीत हम गाते सनम-----ग़ज़ल, पंकज मिश्र

2122 2122 2122 212



काश तेरे नैन मेरी रूह पढ़ पाते सनम।

दर ब दर भटकाव से ठहराव पा जाते सनम।।



इक दफ़ा बस इक दफ़ा तुम मेरे मन में झाँकते।

देखकर मूरत स्वयं की मन्द मुस्काते सनम।।



धड़कनों के साथ अपनी धड़कनें गर जोड़ते।

इश्क़ का अमृत झमाझम तुमपे बरसाते सनम।।



हाथ मेरे थाम कर चुपचाप चलते दो कदम।

प्रीत का जिंदा नगर हम तुमको दिखलाते सनम।।



खुद से अब तक मिल न पाए हो तो बतलाऊँ तुम्हें।

लोग कहते शेर मेरे तुझसे मिलवाते… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 16, 2016 at 9:50pm — 13 Comments

पुनर्नवा ( लघुकथा)

“चलो भैया घर नहीं चलना है क्या?”

साथी के स्वर सुन,सोच में डूबा मदन, चौंक कर बोला, “हाँ हाँ चलो भाई निकलतें हैं”

सब अपनी-अपनी साईकिल लेकर बढ़ चले, तो साथ ही काम करने वाला राघव, अपनी साईकिल मदन के आगे लगाकर बोला,

“चलिए दद्दा हम भी चलते हैं”

“जिनसे नाता था वो तो कब का छोड़ गए... तू कौन से जन्म रिश्ता निभा रहा है, रे?” साईकिल पर बैठते हुए उसने कहा.

साईकिल बढ़ाते हुए राघव बोला, “दद्दा, उम्र में छोटा हूँ, आपसे कहने का हक तो नहीं है. मगर...”

“पता है तू क्या कहेगा... मगर…

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Added by Seema Singh on August 22, 2016 at 9:00am — 26 Comments

ग़ज़ल....ख्वाब सारे अनमने हैं

​2122        2122        2122
बेदिली के अनवरत ये सिलसिले हैं
इसलिये तो ख्वाब सारे अनमने हैं

बाद मुद्दत के सफ़र आया वतन तो
थे बशर बिखरे हुये घर अधजले हैं

बादलों औ बारिशों ने साजिशें कीं 
भूख की संभावनायें सामने हैं

अस्ल ए इंसानियत मजबूत रक्खो
हर कदम पे ज़िन्दगी में जलजले हैं

इस शहर में चीखने से कुछ न होगा
गूंगी जनता शाह भी बहरे हुये हैं

(​मौलिक एवं अप्रकाशित)

बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 27, 2016 at 12:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल ( अंजाम तक न पहुंचे )

ग़ज़ल ( अंजाम तक न पहुंचे )

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मफऊल-फ़ाइलातुन -मफऊल-फ़ाइलातुन

आग़ाज़े इश्क़ कर के अंजाम तक न पहुंचे ।

कूचे में सिर्फ पहुंचे हम बाम तक न पहुंचे ।

फ़ेहरिस्त आशिक़ों की देखी उन्होंने लेकिन

हैरत है वह हमारे ही नाम तक न पहुंचे ।

उसको ही यह ज़माना भूला हुआ कहेगा

जो सुब्ह निकले लेकिन घर शाम तक न पहुंचे ।

बद किस्मती हमारी देखो ज़माने वालो

बाज़ी भी जीत कर हम इनआम तक न…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on September 1, 2016 at 10:17pm — 12 Comments

एक तुम्हारे होने से / कविता

साक्षी है सिंधू मन मेरा एक तुम्हारे होने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से



ऊँची काली दीवारें थाह पता कोई ना जाने

जीने -मरने में भेद मिटा संत्रासों के ढोने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से .......



उलट-पुलट है यह जग सारा पुरवाई भी व्याकुल है

लहरों की उछ्वासित साँसों को क्या मलाल अब खोने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से ........



लय की अनंतता में अंतर्मन का रमकर रमना

नित्य-निरंतर… Continue

Added by kanta roy on August 2, 2016 at 10:26am — 20 Comments

रस्म ए उलफ़त की बात करते हैं

रस्म ए उलफ़त की बात करते हैं

हम मुहब्बत की बात करते हैं



वहशते ग़म के साथ रहके भी

हम मसर्रत की बात करते हैं



जो इशारे हैं उनकी आँखों के

सब शरारत की बात करते हैं



ज़िक्र होता है वस्ल का जब भी

वो क़यामत की बात करते हैं



पूछता है जो कोई हाले दिल

उसकी रहमत की बात करते हैं



दिल में क्या है बयां नहीं करते

बस सियासत की बात करते हैं



क्यूँ डरें इश्क़ में ज़माने से

हम बग़ावत की बात करते हैं



जो लुटेरे थे… Continue

Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on July 17, 2016 at 1:56am — 12 Comments

बढ़ते कदम (लघुकथा)

अगला कदम उठाते ही उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे सैकड़ों टन का भार उसके पैरों पर रखा हो, वह लड़खड़ा उठा और उसने अपने साथी के कंधे का सहारा लिया, लेकिन साथी भी बहुत थका हुआ था, वह डगमगा गया, बर्फ के पर्वत पर चढ़ते हुए सेना के उन दोनों जवानों ने तुरंत एक-दूसरे को थाम लिया|

 

उसके साथी ने उसकी बांह को जोर से पकड़ते हुए कहा, "सोलह घंटों से चल रहे हैं, अब तो पैर उठाने की ताकत भी नहीं बची..."

"लेकिन चलना तो है ही...", उसने उत्तर दिया

"क्यों न कुछ खा लिया जाये?"…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 19, 2016 at 12:30pm — 22 Comments

पडौसी देश के नाम [ कुण्डलियाँ छंद ]

मेरे घर की आग में,,सेंक रहा है हाथ

दूत बने शैतान के , देता उनका साथ

देता उनका साथ ,लगा मति पर  है ताला

ड्रेगन धुन पर नाच ,करे होकर बेताला

जग पर जाहिर आज ,सभी मंसूबे तेरे

छोड़ लगाना आग ,बाज आ भाई मेरे

 

 

छोड़ें ढुलमुल रीत को ,अब उँगली लें मोड़

रोग पुराना हो रहा ,खोजें दूजा तोड़

खोजें दूजा तोड़ ,नहीं अब मीठी गोली

बातें जफ्फी खूब ,खूब समझाइश हो ली

हमको सकता बाँट ,ख़्वाब उसका ये तोड़ें

सच में हों गंभीर ,महज…

Continue

Added by pratibha pande on July 21, 2016 at 12:30pm — 22 Comments

सावन गीत (उल्लाला छंद)/सतविन्द्र कुमार

क्यों अब तक सोये पड़े, सुनों पवन संगीत जी

झम झम झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।



उमस बढ़ी जब जोर से,जिस्म पसीना सालता

दम घुट-घुट कर आ रहा,मुश्किल में ये डालता

राहत औ ठंडक मिले,सो बरखा से प्रीत जी

झम झम झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।



धान-कटोरा सूखता,बिन पानी के मेल से

कृषक सभी उकता गए,लुक-छिप के इस खेल से

बादल अब जाओ बरस,करो नहीं भयभीत जी

झम झम झम बूँदें गिरें,गर्मी बनती शीत जी।



सावन भी यह टीसता, बिन बरखा के साथ के

अब… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on July 17, 2016 at 12:00pm — 4 Comments

दुश्मन नए मिले.

२२१  २१२१ १२२१ २१२

 

जब छीनने छुडाने के साधन नए मिले

हर मोड़ पर कई-कई सज्जन नए मिले

 

कुछ दूर तक गई भी न थी राह मुड़ गई

जिस राह पर फूलों भरे गुलशन नए मिले

 

काँटों से खेलता रहा कैसा जुनून था

उफ़! दोस्तों की शक्ल में दुश्मन नए मिले

 

जितने भी काटता गया जीवन के फंद वो  

उतने ही जिंदगी उसे बंधन नए मिले

 

अपनों से दूर कर न दे उनका मिज़ाज भी  

गलियों से अब जो गाँव की आँगन नए…

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Added by Ashok Kumar Raktale on July 18, 2016 at 2:00pm — 19 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो ( गिरिराज भंडारी )

2122   1122    1122   22 /112

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तुम जो चाहो तो ये गिर्दाब, किनारा लिख दो

डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो

 

कैसे उस चाँद को धरती पे उतारा लिख दो

कैसे आँगन में हुआ खूब नज़ारा लिख दो

 

खटखटाने से कोई दर न खुले, तो दर पर 

बारहा मैने तेरा नाम पुकारा लिख दो

 

जंग अपनो से भला कैसे कोई कर लेता

ख़ुद को जीता, तो कहीं मुझको ही हारा लिख दो 

 

हो यक़ीं या कि न हो तुम तो लिखो सच अपना   

दश्ते…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 9:30am — 59 Comments

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