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ग़ज़ल : जो सरल हो गये

बहर : २१२ २१२

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जो सरल हो गये

वो सफल हो गये

 

जिंदगी द्यूत थी

हम रमल हो गये

 

टालते टालते

वो अटल हो गये

 

देख कमजोर को

सब सबल हो गये

 

भैंस गुस्से में थी

हम अकल हो गये

 

जो गिरे कीच में

वो कमल हो गये

 

अपने दिल से हमीं

बेदखल हो गये

 

देखकर आइना

वो बगल हो गये
---------------

(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 4, 2013 at 9:48pm — 26 Comments

दीवार

शहर के बड़े चैराहे पर

जो बड़ी दीवार है

उसके पास से गुजरते हुए

अक्सर मन होता है

लिख दूं उस पर

‘लोकतंत्र’

लाल स्याही से।

 

एक बड़ा लाल चमकता हुआ

‘लोकतंत्र’

जो दूर से साफ चमके।

 

जब भी होता हूं वहां

कांव कांव करता एक कौआ

आ बैठता है दीवार पर

मानो आहवाहन करता हो

‘आंव, आंव

लिख दो इस दीवार पर

जग जाएं पशु, पक्षी, लोग

ढूंढकर निकाली जा सके

फाइलों और योजनाओं…

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Added by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 8:00pm — 27 Comments

सुप्रभात दोहे 2.

सुबह सुहानी आ गई  ,लेकर शुभ सौगात |

अधर पर मुस्कान लिए, प्यार बसे दिन रात||

पूरे हों सपने सभी ,रहो न उनसे दूर |

गम का ना हो सामना ,ख़ुशी मिले भरपूर||

तारे सारे छुप गए ,आई प्यारी भोर |

आँगन खुशिओं से भरे ,मनवा नाचे मोर||

सुखद सन्देश जो मिले ,अधर आय मुस्कान| 

खुशिओं से हो वास्ता ,मिले हमेशा मान||

पुष्प सी मुस्कान लिए ,रहो हमेशा पास |

होना ना उदास कभी क्योंकि आप हो ख़ास||

रविवार का दिवस अभी ,करलो…

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Added by Sarita Bhatia on July 4, 2013 at 4:00pm — 11 Comments

प्रकृति का विनाश

सोचता है मनुष्य

खुदगर्ज होकर

नहीं है बङा कोई उससे

हरा सकता है वह

अपने तिकङमबाज दिमाग से

प्रकृति को भी

भरोसा होता है उसे बहुत ज्यादा

अपने तिकङमबाज मस्तिष्क पर

समर्थन भी कर देती है

उसकी इस सोच का

शुरुआती सफलताएँ

नहीं सोचता वह ये

होते हैं प्राण प्रकृति में भी

होती हैं भावनाएँ प्रकृति में भी

करता जाता है मनुष्य

प्रकृति का विनाश

अपनी तिकङमों से

अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु।



प्रकृति होती है नारी स्वरुपा…

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Added by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on July 4, 2013 at 2:00pm — 12 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
अनसुलझे प्रश्न // डॉ० प्राची

प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन 

कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण 

अटल काल पर

पदचिन्हों की थाप छोड़ता 

बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...

अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर

देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा 

मृगमारीची सम

अनजाना - जाना पहचाना... 

खामोशी से, मन ही मन

अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को 

फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...

वो,

अलमस्त मदन 

अस्पृष्ट वदन 

गुनगुन गाये ऐसी…

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Added by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 1:00pm — 43 Comments

पांच दोहे - लक्ष्मण लडीवाला

एकाकीपन साँझ का, मन विचलित करजाय 

इस पड़ाव पर उम्र के , बनता कौन सहाय |

 

सुन्दर हर पल वह घडी,अनुपम सा उपहार 

साँस साँस की हर लड़ी,करती जैसे प्यार |

 

होठ छुअन अहसास ही, मुग्ध मुझे करजाय,

संयम त्यागा स्वपन में, चंचल मन भटकाय |

 

बहका बहका दिख रहा, खुद का ही व्यवहार

जैसे सब कुछ ख़त्म है, मन मेरा लाचार | 

 

मेरे जीवन में बसे, रूप  धरा  श्रृंगार,

पोर पोर में बह रही, बनी सतत रसधार |

 

-लक्ष्मण…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 4, 2013 at 12:30pm — 21 Comments

नाद- लय की ये नदी फिर सूखती क्यों है ?

नाद- लय की ये नदी, फिर सूखती क्यों है?

निःशब्द बहती चेतना, फिर डूबती क्यों है?



है अधूरी जिंदगी ,सारे सवालों के जवाब 

वो पहाड़े याद कर, फिर भूलती क्यों है ?



जब पवन जल अग्नि, आकाश धरती से 

है जन्म लेती मूरतें, फिर टूटती क्यों है ?



जान कर भी जो कभी, लौट कर आया नहीं

ये बावरी तृष्णा उसे, फिर ढूँढती क्यों है ?



खूब रोता दिल…

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Added by dr lalit mohan pant on July 4, 2013 at 1:00am — 11 Comments

तरही ग़ज़ल (अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं)

हम अपने प्यार का लहजा बदल के देखते हैं 
तुम्हारी तर्ज़े अदा में भी ढल के देखते हैं 
.
तुम अपनी तल्ख़ ज़ुबां में जो शीरिनी लाओ 
तो हम भी क़ैदे अना से निकल के देखते हैं 
.
वो  दौर और था जब रूह की गिज़ा थी ग़ज़ल 
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं  
.
दिखाई देता था छप्पर ही ख़्वाब में हमको 
तुम आ गये हो तो सपने महल के देखते हैं 
.
हवा के दोस पे नामा ये कैसा है…
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Added by Sushil Thakur on July 4, 2013 at 12:30am — 8 Comments

मुक्तक ~

व्यस्तता ,ज़िंदगी ,खेद है ,

आपका तो वचन ,वेद है,

हैं मधुर आप,हम खुरदुरे 

मित्र ,हम में यही भेद है !

*

दर्द के पुष्प आओ तजें,

हर्ष के पुष्प ही अब सजें,

एक स्मिति अधर पर धरें 

नेह की बांसुरी से बजें !

*

उनको दिखना है अब ,नहीं न ,

छुपते रुस्तम दिखे,कहीं न ,

मुक्त आकाश में…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 3, 2013 at 10:47pm — 6 Comments

सूखे गुल की दास्ताँ.!

अश्क आँखों में औ

तबस्सुम होठो पे है



सूखे गुल  की दास्ताँ

अब बंद किताबो में है



बीते वक़्त का वो लम्हा

कैद मन की यादों में है



दिल  में दबी है चिंगारी

जलती शमा रातो में है



चुभन है यह विरह की  

दर्द कहाँ अल्फाजों में है



नश्वर होती  है  रूह

प्रेम समर्पण भाव में है



अविरल चलती ये साँसे

रहती जिन्दा तन में है



खेल है यह तकदीर का

डोर…

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Added by shashi purwar on July 3, 2013 at 10:30pm — 8 Comments

चुप तो बैठे हैं हम मुरव्वत में - वीनस

एक ताज़ा ग़ज़ल ...



चुप तो बैठे हैं हम मुरव्वत में

जाएगी जान क्या शराफत में

 

किसको मालूम था कि ये होगा

खाएँगे चोट यूँ मुहब्बत में

 

पीटते हैं हम अपनी छाती…

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Added by वीनस केसरी on July 3, 2013 at 9:30pm — 40 Comments

कि इश्क सुन तिरे हवाले ताज करते हैं

कि इश्क सुन  तिरे हवाले ताज करते हैं
कि प्यार कल भी था तुझी से आज करते हैं

हुकूमतों का शोख़ रंग यह भी है यारों
कि हम जहाँ नहीं दिलों पे राज करते हैं

बहुत लगाव है हमें वतन की मिटटी से
इसी  पे जान दें इसी पे नाज़ करते हैं

नरम दिली नहीं समझते देश के दुश्मन
चलो कि आज हम गरम मिज़ाज करते 

मिरे वतन के फौज़ियों सलाम है मेरा
 तुझी से मान है तुझी पे नाज़ करते हैं 

संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित

Added by sanju shabdita on July 3, 2013 at 9:00pm — 24 Comments

पुराना जब जाता है ....

ये सच है पुराना जाता नहीं 

तो नया आता नहीं 

पर पुराना जब 

टूट कर जाता है 

तो उसे बहुत याद आता है

कल तक जिस टहनी पर 

वह इतना इतराता था 

इतना ईठलाता था 

आज बेबस पड़ा है 

सड़कों पर आ खड़ा है 

जरा सी हवा आई 

और उड़ा ले गई 

कल तक जो हवा अपने 

आँचल सहलाती थी 

आज वही हवा 

उसे दर-बदर कर रही है

तकदीर बदलते 

देर नहीं लगती 

कल तक हरा

आज धूप मे पड़ा 

खड़खड़ा रहा…

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Added by Amod Kumar Srivastava on July 3, 2013 at 9:00pm — 6 Comments

!!! अभिनव प्यार !!!

!!!  अभिनव प्यार  !!!

 

प्रिया! जब तुम भूली,

तो मैं क्या लिखता ?

जब तुम थीं सब मेंरा था,

मैं याद भला क्या करता ?..... प्रिया! जब......



अब तुम नहीं पर प्यार तेरा,

मुझे बार बार दोहराता।

मैं भूल चला जीवन के पथ को,

स्मृति रोशन क्या करता ?...... प्रिया! जब...

पूर्ण अंधकार में इक जुगुनू,

इस झिलमिल जीवन को-

या अपनों से भूले रिश्तों का,

पथ प्रदर्शन क्या करता ?....... प्रिया! जब...

इस अभिनव प्यार संग,…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 3, 2013 at 7:52pm — 17 Comments

कुछ झोपड़ों को रोंद के जो घर बना रहा

कुछ झोपड़ों को रोंद के जो घर बना रहा

इस दौर में वो सख्स ही मंजिल को पा रहा

 

जितना नहीं है पास में उतना लुटा रहा

कितना अमीर है ग़मों में मुस्कुरा रहा 

 

अपनी ही गलतियों के हैं कांटे चुभे हमें

वरना सफर तो जिन्दगी का गुलनुमा रहा

 

कहने का शौक औ जुनूं उसका न पूछिए

बेबह्र भी कही ग़ज़ल वो गुनगुना रहा

 

शायद शहद झड़े है उसकी बात से यहाँ

इक झुण्ड मक्खियों सा क्यूँ ये भिनभिना रहा  

 

जब मुल्क में…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 3, 2013 at 5:46pm — 7 Comments

सुप्रभात दोहे 1.

सुप्रभात दोहों से मैं, करती हूँ आगाज |

अधर पर मुस्कान लिए,सरिता बोले आज||

नई सवेर ले आए ,रोज सुखद सन्देश |

पूरी हो हर कामना ,संकट हरे गणेश||

आये कोई विघ्न ना ,सर पर रखना हाथ|

पूरी करना कामना ,हे नाथों के नाथ||

चूम उठाया भोर ने ,ख़ुशी से झूमा दिल| 

सुबह संदेश आपका ,गया जैसे ही मिल||

बन जायेंगे आपके, सारे बिगड़े काम |

थके बिन बढते रहना, मन में धारे राम||

सुबह सुहानी ले आई बरसात की फुहार |…

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Added by Sarita Bhatia on July 3, 2013 at 3:30pm — 9 Comments

बदी की राह से अब तो निकाल दे मुझको

बदी की राह से अब तो निकाल दे मुझको

खुदाया जब भी दे रिज्के हलाल दे मुझको

नहीं मैं राई को पर्वत, न तिल को ताड़ कहूं

ज़ुबान  साफ़ औ' सादा  ख़याल दे  मुझको .

तेरे लिए भी ये आसां नहीं है फिर भी कभी

तू आके चुपके से हैरत में डाल दे मुझको

जुनूने इश्क़ कहीं कुफ्र तक न पहुँचा दे

तू अपने गोशाये दिल से निकाल दे मुझको

मुझे भी पी के बहकना कभी गंवारा नहीं

मगर जो गिरने पे आऊँ, संभाल दे…

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Added by Sushil Thakur on July 3, 2013 at 3:00pm — 12 Comments

हमसफ़र मेरा

बिछड़ा था हमसफ़र मेरा

अप्रैल की गर्मियों में 
मिले  न अब तक, 
उसके कोई निशान 
न आयी उसकी कोई चिट्ठी -खबर !!
.
गर्मियों से बरसात तक 
मिले जो राह में पदचिह्न मुझे 
उन पदचिह्नों को देख कर 
जाने कितनी बार अश्क बहाये  
कितनो के आगे रोया  
कही देखा है हमसफ़र मेरा !! 
.
उम्र के साथ अब ढल रही है नज़रे 
और थक रहा है बदन मेरा 
मगर मेरी…
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Added by Sumit Naithani on July 3, 2013 at 2:00pm — 12 Comments

नियमों की सरहदें

नियमों की सरहदें

 

उलझी हुई मानवीय अपेक्षाओं से अनछुआ

तुम्हारे लिए मेरा काल्पनिक अलोकित स्नेह

किसी सांचे में ढला हुआ नहीं था,

और न हीं वह पिंजरे में बंद पक्षी-सा

कभी सीमित या संकुचित था लगा।

 

एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हम

दो उन्मुक्त पक्षिओं-से थे,

कभी तुम चली आई उड़ कर पास मेरे,

और मैं गद-गद हो उठा, और कभी मैं

हर्षोन्माद में आ बैठा डाल पर तुम्हारी।

 

शैतान हँसी की हल्की-सी फुहार…

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Added by vijay nikore on July 3, 2013 at 1:00pm — 27 Comments

कुछ दोहे राहत के नाम ~~

उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,

अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !



राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,

इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय !



भटक रहे विपदा पड़े, ढूंढ रहे हैं ठांव ,

ये अपने सरकार जी कब बांटेंगे छाँव ?



विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,

भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !



श्रेय कौन ले जाएगा मची हुई है होड़,

जोड़-तोड़ के खेल…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 2, 2013 at 11:15pm — 18 Comments

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