तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
एक कृषक कल तक थे लेकिन अब शहरी मजदूर बने।
सृजक जगत के कहलाते थे, वो कैसे मजबूर बने?
वे बतलाते जीवन गाथा, पीड़ा से घिर जाता हूँ।
कितने दुख संत्रास सहे हैं, ये लिख दूँ, फिर आता हूँ।
कर्तव्यों के नव बंधन को तोड़ तुम्हारे पास प्रिये,
तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
कौन दिशा में कितने पग अब कैसे-कैसे है चलना?
अर्थजगत के नए मंच पर, कैसे या कितना…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2017 at 2:00pm — 23 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on January 26, 2017 at 10:00am — 3 Comments
2122 2122 212
देखिये सबको रिझातीं टोपियाँ
नाच कितनों को नचातीं टोपियाँ।1
आपकी धोती कहाँ महफूज है?
फाड़कर कुर्ते बनातीं टोपियाँ।2
जो नहीं सोचा कभी था आपने
रंग वैसे भी दिखातीं टोपियाँ।3
पीठ पर दे हाथ वे पुचकारतीं
पेट में ख़ंजर चुभातीं टोपियाँ।4
दोस्ती का दे हवाला हर बखत
दुश्मनी फिर-फिर निभातीं…
Added by Manan Kumar singh on January 26, 2017 at 9:51am — 6 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on January 26, 2017 at 12:44am — 4 Comments
2122 2122 212
गीत पहले प्यार के मधु छंद सा
नीरजा के झर रहे मकरंद सा
नाव पर संगीत मांझी का मुखर
लोक को देता सुनायी मंद सा
है वही ब्रज और गोकुल की गली
नहीं दिखता किन्तु नंदन-नंद सा
छुप गया जो बांस के पीछे वहाँ
बादलों की ओट में है चंद सा
है मृगी बेचैन, व्याकुल भीत भी
बीहड़ों में कुछ दिखा है फंद सा
देवता सब हो गए है कैद अब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 25, 2017 at 8:00pm — 5 Comments
1212 1212 1212 1212
फँसा रहे बशर सदा गुनाह ओ सवाब में
हयात झूलती सदा सराब में हुबाब में
बची हुई अभी तलक महक किसी गुलाब में
बता रही हैं अस्थियाँ छुपी हुई किताब में
जहाँ जुदा हुए कभी रुके वहीं सवाल हैं
गुजर गई है जिन्दगी लिखूँ मैं क्या जबाब में
लिखें जो ताब पर ग़ज़ल सुखनवरों की बात अलग
वगरना लोग देखते हैं आग आफ़ताब में
फ़िज़ूल में ही अब्र ये छुपा रहा है चाँद को
जमाल हुस्न का कभी न छुप सका…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 25, 2017 at 11:00am — 13 Comments
2122 2122 212
दिल से जब नाम-ए ख़ुदा जाता रहा
दरमियानी मो’जिजा जाता रहा
ख़ुद पे आयीं मुश्किलें तो, शेख जी
क्यूँ भला हर फल्सफ़ा जाता रहा
जो इधर थे हो गये जब से उधर
कह दिये , हर वास्ता जाता रहा
अब ख़बर में वाक़िया कुछ और है
था जो कल का हादसा जाता रहा
गर हुजूम –ए शहर का है साथ , तो
जो किया तुमने बुरा जाता रहा
आँखों में पट्टी, तराजू हाथ में
जब दिखे, तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 25, 2017 at 8:18am — 27 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on January 24, 2017 at 6:28pm — 7 Comments
ये अश्क ...
नहीं होता
चेहरा
दुःख का
कोई
नहीं होती उम्र
मौत की
कोई
ज़िन्दगी
खुशियों का
आसमां नहीं
ग़मों की
धूप है
ज़िन्दगी की धूप में
ख़ुशी तो बस
छाया का नाम है
पल भर का सुकून है
फिर गमों की
दास्तान है
यादों के
खंज़र हैं
कुछ आँखों से
बाहर हैं
कुछ आँखों के
अंदर हैं
कह गए
बह के
और
कुछ अभी
दिल में…
Added by Sushil Sarna on January 24, 2017 at 6:18pm — 6 Comments
दर्द जो नातवां से उठता है
शोर वो आस्तां से उठता है
गीत भी देख लो छुपे भीतर
दर्द दिल में जहां से उठता है
नाम की भूख ने बदल डाला
क्यूँ धुंआ अब यहाँ से उठता है
प्यार बांटो सदा जमाने में
बोल सच्चा फुगां से उठता है
उम्र बीती समझ नहीं आया
रोज झगड़ा बयां से उठता है
जिंदगी आज बन्दगी 'तन्हा'
नाम उसका ही जां से उठता है....
.
मुनीश 'तन्हा'.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by munish tanha on January 24, 2017 at 5:30pm — 5 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 24, 2017 at 9:52am — 15 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on January 23, 2017 at 1:30pm — 7 Comments
‘रिमझिम के तराने लेके आई बरसात.. याद आये किसी की वो पहली मुलाक़ात’ ---गाना बज रहा था बिजनेसमैन आनंद सक्सेना साथ साथ गुनगुनाता जा रहा था रोमांटिक होते हुए बगल में बैठी हुई पत्नी सुरभि के हाथ को धीरे से दबाकर बोला- “सच में बरसात में लॉन्ग ड्राइव का अपना ही मजा होता है”.
“मिस्टर रोमांटिक, गाड़ी रोको रेड लाईट आ गई” कहते हुए सुरभि ने मुस्कुराकर हाथ छुड़ा लिया|
अचानक सड़क के बांयी और से बारिश से तरबतर दो बच्चे फटे पुराने कपड़ों में कीचड़ सने हुए नंगे पाँव से गाड़ी के पास आकर बोले…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 23, 2017 at 10:56am — 31 Comments
Added by नाथ सोनांचली on January 23, 2017 at 9:13am — 10 Comments
अँगड़ाई ले रही प्रात है,
कुहरे की चादर को ताने।
ओढ़ रजाई पड़े रहो सब,
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
तपन धरा की शान्त हो गयी,
धूप न जाने कहाँ खो गयी।
जिन रवि किरणों से डरते थे,
लपट देख आहें भरते थे।
भरी दुपहरी तन जलता था,
बड़ी मिन्नतों दिन ढलता था।
लेकिन देखो बदली ऋतु तो,
आज वही रवि लगा सुहाने।
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
गमझा भूले मफ़लर लाये,
हाथों में दस्ताने आये।
स्वेटर टोपी जूता मोजा,
हर आँखों ने इनको…
Added by डॉ पवन मिश्र on January 22, 2017 at 8:30pm — 11 Comments
नियति चक्र में
परिवर्तन निश्चित अंकित है,
होना है, हो कर रहता है...
समय प्रबल है
जोड़-तोड़ से कब बंधता है
बहना है, प्रतिपल बहता है...
आँख मींचते
आवरणों को क्यों पकड़ा है ?
छोड़ो इनको, हट जाने दो,
धुंध सींचते
संबंधों के रिसते बादल
गर्जन करके छट जाने दो,
मकड़जाल में
अपने मन के फँसे रहे तो
फिर क्या होगा? कुछ तो सोचो !
भीतर-बाहर
परिवर्तन तो करना होगा
जमी सोच की परतें…
Added by Dr.Prachi Singh on January 22, 2017 at 8:00pm — 10 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on January 22, 2017 at 3:05pm — 14 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on January 21, 2017 at 7:04pm — 13 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 21, 2017 at 5:00pm — 9 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 21, 2017 at 9:30am — 16 Comments
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