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February 2015 Blog Posts (174)

घनघोर घटायें छायीं हैं, देखो न इनमे खो जाना

घनघोर घटायें छायीं हैं, देखो न इनमे खो जाना ,

बड़ी तेज चली पुरवाई है,देखो न इनमे खो जाना !!

 

पिया ,  क्यूँ रूठे हो मुझसे,

मुझे आज है तुमको मानना,

पिया  निकल पड़ी हूँ घर से,

अपने दफ्तर का पता बताना !!

 

जिद करती हो जैसे बच्चे,

जाओ मुझे नहीं  घर आना,

थोडा दूर  रहो अब मुझसे ,

मेरी कीमत का पता लगाना !!

 

माना भूल हो गयी  मुझसे,

अब माफ़ भी कर दो जाना,

कितना प्रेम करती हूँ तुमसे,

मुझे आज…

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Added by Hari Prakash Dubey on February 17, 2015 at 11:04am — 17 Comments

मुखौटे ओढ़कर अब तो - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

1222     1222  1222 1222

*****************************

बुरे  की  कर  बुराई  अब (बुरे को अब बुरा कह कर)  बुराई  कौन  लेता  है

यहाँ  रूतबे  के  लोगों  से  सफाई कौन लेता है

 ***

हँसी अती है लोगों को किसी की आँख नम हो तो

किसी  की  पीर  हरने  को  बिवाई  कौन  लेता है

 ***

सभी  हम्माम  में नंगे किसे क्या  फर्क पड़ता अब

जमाना  भी  न   देखे   जगहॅसाई   कौन   लेता है

 ***

मुखौटे ओढ़कर अब तो दिलो का राज रखते सब

सच्चाई …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2015 at 11:00am — 18 Comments

मिट्टी के खिलौने

मन बच्चा है बहलाने को 

मिट्टी के खिलौने बनायें 

किसी के सिर पर रखकर चोटी 

किसी के माथे तिलक लगायें 

किसी के मुँह पर लगा के दाढ़ी

किसी को सुन्दर साड़ी पहनायें 

किसी के सिर पर रखकर टोपी 

किसी के सिर पगड़ी पहनायें 

 

काश मानव हों मिट्टी के खिलौने 

 

मौला, पंडित ,फादर…

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Added by Sarita Bhatia on February 17, 2015 at 10:30am — 15 Comments

समुद्र में मछली

समुद्र में मछली

ट्रेन से उतरकर उसने चिट को देखा और बोला –“थैंक्यू भईया |”और फिर हम दोनों पुरानी दिल्ली स्टेशन के विपरीत गेटों की तरफ सरकने लगे |मुझे दफ्तर पहुंचने की जल्दी थी|फिर भी एक बार मैंने पलटकर देखा पर स्टेशन की भीड़ में,दिल्ली के इस महासमुद्र में वो विलुप्त हो चुका था |

दफ्तर पहुंचते ही बॉस ने मुझें मेरे नए टारगेट की लिस्ट थमा दी और मैं एक सधे हुए शिकारी की तरह अपने सम्भावित कलाइन्ट्स के प्रोफाइल पढ़ते हुए निकल पड़ा |

शालनी बंसल पेशे से अध्यापिका हैं |दो साल…

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Added by somesh kumar on February 17, 2015 at 10:30am — 4 Comments

देह का सागर जल गया

मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया

वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी
वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी
देह का सागर जल गया

पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक
समय के हाथ से सावन फिसल गया

लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी
वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी
आस का संबल गल गया

मौलिक अप्रकाशित
अजय कुमार शर्मा

Added by ajay sharma on February 16, 2015 at 11:00pm — 11 Comments

विरासत (लघुकथा)

अब्बाजान के गुजरने के बाद मेरे हिस्से में जो विरासत आयी उसमें पुरानी हवेली के साथ बाबाजान की चंद ट्राफियाँ और मेडल भी थे जिन्हे अब्बुजान हर आने जाने वाले को बड़े शौक से दिखाते थे। मगर हमारे ख्वाबो की शक्ल अख्तियार करती नयी हवेली की सुरत से ये निशानियाँ बेमेल ही थी लिहाजा 'ड्राईंग रूम' से 'स्टोर रूम' का रास्ता तय करती हुयी ये निशानियाँ, जल्दी ही कबाड़ी गफ़ूर चचा की अल्मारियो की शान बन गयी।..........

अब्बुजान की पहली बरसी थी। हम बिरादरी के साथ, अब्बु के इंतकाल के बाद पहली बार आयी नजमा आपा…

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Added by VIRENDER VEER MEHTA on February 16, 2015 at 5:00pm — 17 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122      2122      2122  

कौन सागर को मथेगा, और सागर कौन होगा

हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा

 

कौन पर्वत से लिपट के पूँछ-मुँह बांटे किसी को

सब की बरक़त चाहता हो, ऐसा विषधर कौन होगा

 

चिलमनों से झाँक के सारे नज़ारे देखते हैं

आज सड़कों पे उतरने घर से बाहर कौन होगा

 

आज ज़िंदाँ की सलाखें सोचतीं हैं देख कर ये

सर परस्ती सब को हासिल, आज अंदर कौन होगा

 

ये ज़मीं तो चाहती है सब बराबर ही रहें…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 16, 2015 at 10:00am — 24 Comments

ग़ज़ल : कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

बह्र : २१२ २१२ २१२२

 

दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं

कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

 

प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं

पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं

 

हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं

घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं

 

वोदका पीजिए आप, हम तो

दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं

 

वो तो शैतान है जिसके बंदे

क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं

आज भी हम समय की नदी में

बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं

----------

(मौलिक एवं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 15, 2015 at 11:42pm — 28 Comments

ग़ज़ल

आशिक़ों की आँखो का रुख़ बदलने लगता है

जब किसी जवानी का चाँद ढलने लगता है



इब्तिदा ख़ुशामद से इल्तिजा से होती है

और फिर ये होता है,नाम चलने लगता है



सब्र की नसीहत भी काम कुछ नहीं करती

जब किसी की चाहत में दिल मचलने लगता है



हमने दिल को ले जाकर उस जगह पे रख्खा है

जिस जगह पे ख़्वाहिश का दम निकलने लगता है



जब भी मैं अंधेरों से हमकलाम होता हूँ

इक चराग़ सा मेरे दिल में जलने लगता है



आख़िरत के बारे में जब भी सोचता हूँ मैं

रूह… Continue

Added by Samar kabeer on February 15, 2015 at 10:30pm — 16 Comments

ग़ज़ल -- राम नहीं रावण देखा है

राम नहीं रावण देखा है

कलियुग का सज्जन देखा है



माली के ही हाथों उजड़ा

ऐसा भी उपवन देखा है.



काँप गया हूँ भीतर तक मैं

जबसे ये दर्पण देखा है



ढूँढ़ रही है बूढ़ी आँखें

क्या तुमने बचपन देखा है ?



हमने घर के बँटवारे में

रोता ये आँगन देखा है.



दिल का मोर खुशी को तरसे

इसने कब सावन देखा है



दूर कहीं अब धरती के संग

हम ने नील गगन देखा है



धनवानों का अक्सर मैंने

निर्धन अन्तर्मन देखा… Continue

Added by दिनेश कुमार on February 15, 2015 at 7:47pm — 17 Comments

ये कैसी नियति

तुम चलाओ गैंती-फावड़ा 

काटो पत्थर, बनाओ नाली 

दिन है तो सूरज को घड़ी मानो 

और रात है तो गिनते रहो एक-एक प्रहर

कुत्ते कब भौंके 

सियार कब चीखे

मुर्गे ने कब बांग दी 

यही है तुम्हारी नियति....

तुम चलाओ छेनी-हथौड़ी 

तुम्हारे लिए बन नहीं सकतीं 

ऐसी यांत्रिक घड़ियाँ 

जिनमे काम के घंटों का हिसाब हो 

और आराम के पल का ज़िक्र हो...

तुम लिखो कविता-कहानी 

फट जाए चाहे 

माथे की उभरी नसें 

फूट जाए ललाई…

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Added by anwar suhail on February 15, 2015 at 7:30pm — 7 Comments

आज़ाद कोई नहीं , सब डोर से बंधे हैं --- डॉ o विजय शंकर

बंधे सब डोरियों से हैं,

ये अलग बात है कि

किसकी डोर , मूलतः , किसके हाथ है ।

कोई अपनी डोरी में बस थोड़ी सी ढील चाहता है,

अपने साथ वाले की डोर बस थोड़ी टाइट चाहता है ।

किसी की खींच ली गई , किसी को ढील मिल रही है ,

किसी की फंस गई है , उनकी फंसी थी,निकल गई है ।

अब किसी को क्या कहें , जिस के हाथ अपनी डोर है ,

वही उसे दबाए बैठा है ।



चाहतें ऐसी ऐसी , उसकी डोर मेरे हाथ आ जाए ,

मेरी डोर काश यहाँ से छूटे , उसके पास पहुँच जाए

उनके तो हाल ही… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 15, 2015 at 11:25am — 8 Comments

अधूरी आस (कहानी )

“मम्मी मैं किटी पार्टी में जा रही हूँ , आप हेमा को कह दो वह विवान को दूध दे देगी ...वैसे भी विवान मेरे पास नहीं उसी के पास रहता है |” अपने लहराते हुए बालों को झटका देते हुए फाल्गुनी ने कहा ||स्टाइल में रहना, फैशनेबल कपड़े पहनना, सहेलियों के बीच अपनी सुन्दरता की प्रशंसा सुनना, यही तो मनपसंद कार्य है फाल्गुनी का | जन्म तो दिया बच्चे को मगर ममता नहीं लुटा पाई |

इसके विपरीत हेमा जो कि अपने से अधिक चिंता करती है घर परिवार की...अपनी जेठानी के पुत्र पर  जान से भी अधिक स्नेह लुटाती है मगर…

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Added by डिम्पल गौड़ on February 14, 2015 at 3:30pm — 14 Comments

दिल से दिल के तार................................

दिल से दिल के तार जुड़े संतूर जहाँ में बजते हैं

छंद पहेली गीत ग़ज़ल जब दूर जहाँ में सजते हैं

रुनझुन-रुनझुन घुंघरू आहट  का संदेशा लाती है

ताल मिलाती धड़कन से मगरूर जहाँ में लगते है

अंतस मन मेल हुआ दिलबाग रूमानी गुलशन है  

रुखसार गुलाबी होंठ शबाबी नूर जहाँ में लगते हैं

हया लबों पे खेल रही है नज़र नज़ाकत शानी है

कोयल किस्से कहती है मशहूर जहाँ में लगते हैं

नैन नख्श नखरों पे है नायाब नवेली नज्म अदा

फिदा फ़साने पर आनंद वो चूर जहाँ में लगते…

Continue

Added by anand murthy on February 14, 2015 at 2:59pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥ ( गिरिराज भंडारी )

॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥

कहने से नहीं

समझाने से नहीं

कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे

कौन रोक सकता है

बातें

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब

 

ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न

 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें

ये दिन , वो दिन

अफसोस होता है

 

पता नहीं क्यों

रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में

राधा-कृष्ण-मीरा को ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 14, 2015 at 8:55am — 16 Comments

भंग न तुम्हारा मौन हुआ

तुम साहसी हो,

मैं यह मानकर चला,

इसी  भाव  को,

हृदय में धारण कर,

प्रेम पथ पर आगे बढ़ा,

भावी जीवन का स्वप्न सजोयें,

परिवार, समाज, दुनिया से लड़ा,

पर देखो आज शर्मिन्दा खड़ा हूँ ,

स्वयं की नजरों में गिरा पड़ा हूँ ,

मुझे प्यार किया तुमने, पर कह ना सकीं,

मेरा जीवन होम हुआ, पर भंग न तुम्हारा मौन हुआ !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित

Added by Hari Prakash Dubey on February 14, 2015 at 8:52am — 16 Comments

अतुकांत कविता

क्या तुम्हें मालूम है

मुझे हरवक्त तुम्हें ,मेरे साथ होने का

अहसास रहता है

कि कहीं दूर से ही तुम मुझे कोई सहारा दे रही हो

मगर अबकी बार तुमसे मिलकर

मेरा वह अहसासों भरा विश्वास टूटता नजर आया

क्या तुम खुदको मुझसे दूर ले जाना चाहती हो

या दूर ले जा चुकी हो

बहुत दूर

मुझे तुम्हारी हर राहे मुकाम पर

जरूरत होगी

उस वक्त एक सूनापन

मेरे चेतन को अवचेतन करेगा

मेरे सोचने की शक्ति क्षीण हो जायेगी

मेरा शरीर सुन्न होने लगेगा

मेरी…

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Added by umesh katara on February 14, 2015 at 7:30am — 12 Comments

वैलेंटाइन डे

जिंदगी को सब प्यार करते है ,

इसलिए नहीं कि वह हमें जीने का मौक़ा देती है ,

बल्कि इसलिए कि वह हमें प्यार से जीने का मौक़ा देती है,

प्यार करने , प्यार बांटने और प्यार में रहने का मौक़ा देती है ,

प्यार है तो जिंदगी में कोई बोझ बोझ नहीं है ,

प्यार नहीं है तो जिंदगी से बड़ा कोई बोझ नहीं है ,

हम जिंदगी के लिए जीना नहीं चाहते हैं ,

हम प्यार के लिए जीना चाहते हैं,

हम प्यार के लिए जिंदगी चाहते है ,

इसीलिये हम सब जिंदगी को प्यार करते है .



हैपी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 14, 2015 at 1:30am — 20 Comments

ग़ज़ल : ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

 

फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता, रुक जाना

ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

 

उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते

एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना

 

दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको

ख़तरनाक है यूँ पानी खारा रुक जाना

 

तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो

नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना

 

पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में

अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2015 at 10:32pm — 17 Comments

पहाड़ और पीठ

 

पहाड़ और पीठ



एक



पहाड़,

सिर्फ पीठ होता है

मुह होता तो बोलता

पहाड़ के पैर भी नही होते

हाथ भी

वरना वह चलता

कुछ करता या,

उठता बैठता भी

पहाड़, अपनी पीठ पर

लाद लेता है तमाम जंगल नदी नाले,

हरी भरी झील भी

सड़क और बस्तियां भी

और कुछ नही बोलता

क्यों कि,

पहाड़ सिर्फ पीठ है

और पीठ कुछ नही बोलती



दो,



पीठ,

पहाड़ नही होती

पर लाद लेती है पहाड़

पीठ के भी मुह नही होता

पहाड़ की तरह होती है एक…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 13, 2015 at 12:24pm — 9 Comments

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