घनघोर घटायें छायीं हैं, देखो न इनमे खो जाना ,
बड़ी तेज चली पुरवाई है,देखो न इनमे खो जाना !!
पिया , क्यूँ रूठे हो मुझसे,
मुझे आज है तुमको मानना,
पिया निकल पड़ी हूँ घर से,
अपने दफ्तर का पता बताना !!
जिद करती हो जैसे बच्चे,
जाओ मुझे नहीं घर आना,
थोडा दूर रहो अब मुझसे ,
मेरी कीमत का पता लगाना !!
माना भूल हो गयी मुझसे,
अब माफ़ भी कर दो जाना,
कितना प्रेम करती हूँ तुमसे,
मुझे आज…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on February 17, 2015 at 11:04am — 17 Comments
1222 1222 1222 1222
*****************************
बुरे की कर बुराई अब (बुरे को अब बुरा कह कर) बुराई कौन लेता है
यहाँ रूतबे के लोगों से सफाई कौन लेता है
***
हँसी अती है लोगों को किसी की आँख नम हो तो
किसी की पीर हरने को बिवाई कौन लेता है
***
सभी हम्माम में नंगे किसे क्या फर्क पड़ता अब
जमाना भी न देखे जगहॅसाई कौन लेता है
***
मुखौटे ओढ़कर अब तो दिलो का राज रखते सब
सच्चाई …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2015 at 11:00am — 18 Comments
मन बच्चा है बहलाने को
मिट्टी के खिलौने बनायें
किसी के सिर पर रखकर चोटी
किसी के माथे तिलक लगायें
किसी के मुँह पर लगा के दाढ़ी
किसी को सुन्दर साड़ी पहनायें
किसी के सिर पर रखकर टोपी
किसी के सिर पगड़ी पहनायें
काश मानव हों मिट्टी के खिलौने
मौला, पंडित ,फादर…
Added by Sarita Bhatia on February 17, 2015 at 10:30am — 15 Comments
समुद्र में मछली
ट्रेन से उतरकर उसने चिट को देखा और बोला –“थैंक्यू भईया |”और फिर हम दोनों पुरानी दिल्ली स्टेशन के विपरीत गेटों की तरफ सरकने लगे |मुझे दफ्तर पहुंचने की जल्दी थी|फिर भी एक बार मैंने पलटकर देखा पर स्टेशन की भीड़ में,दिल्ली के इस महासमुद्र में वो विलुप्त हो चुका था |
दफ्तर पहुंचते ही बॉस ने मुझें मेरे नए टारगेट की लिस्ट थमा दी और मैं एक सधे हुए शिकारी की तरह अपने सम्भावित कलाइन्ट्स के प्रोफाइल पढ़ते हुए निकल पड़ा |
शालनी बंसल पेशे से अध्यापिका हैं |दो साल…
ContinueAdded by somesh kumar on February 17, 2015 at 10:30am — 4 Comments
मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया
वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी
वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी
देह का सागर जल गया
पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक
समय के हाथ से सावन फिसल गया
लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी
वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी
आस का संबल गल गया
मौलिक अप्रकाशित
अजय कुमार शर्मा
Added by ajay sharma on February 16, 2015 at 11:00pm — 11 Comments
अब्बाजान के गुजरने के बाद मेरे हिस्से में जो विरासत आयी उसमें पुरानी हवेली के साथ बाबाजान की चंद ट्राफियाँ और मेडल भी थे जिन्हे अब्बुजान हर आने जाने वाले को बड़े शौक से दिखाते थे। मगर हमारे ख्वाबो की शक्ल अख्तियार करती नयी हवेली की सुरत से ये निशानियाँ बेमेल ही थी लिहाजा 'ड्राईंग रूम' से 'स्टोर रूम' का रास्ता तय करती हुयी ये निशानियाँ, जल्दी ही कबाड़ी गफ़ूर चचा की अल्मारियो की शान बन गयी।..........
अब्बुजान की पहली बरसी थी। हम बिरादरी के साथ, अब्बु के इंतकाल के बाद पहली बार आयी नजमा आपा…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on February 16, 2015 at 5:00pm — 17 Comments
2122 2122 2122 2122
कौन सागर को मथेगा, और सागर कौन होगा
हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा
कौन पर्वत से लिपट के पूँछ-मुँह बांटे किसी को
सब की बरक़त चाहता हो, ऐसा विषधर कौन होगा
चिलमनों से झाँक के सारे नज़ारे देखते हैं
आज सड़कों पे उतरने घर से बाहर कौन होगा
आज ज़िंदाँ की सलाखें सोचतीं हैं देख कर ये
सर परस्ती सब को हासिल, आज अंदर कौन होगा
ये ज़मीं तो चाहती है सब बराबर ही रहें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 16, 2015 at 10:00am — 24 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२२
दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं
कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं
प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं
पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं
हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं
घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं
वोदका पीजिए आप, हम तो
दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं
वो तो शैतान है जिसके बंदे
क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं
आज भी हम समय की नदी में
बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 15, 2015 at 11:42pm — 28 Comments
Added by Samar kabeer on February 15, 2015 at 10:30pm — 16 Comments
Added by दिनेश कुमार on February 15, 2015 at 7:47pm — 17 Comments
तुम चलाओ गैंती-फावड़ा
काटो पत्थर, बनाओ नाली
दिन है तो सूरज को घड़ी मानो
और रात है तो गिनते रहो एक-एक प्रहर
कुत्ते कब भौंके
सियार कब चीखे
मुर्गे ने कब बांग दी
यही है तुम्हारी नियति....
तुम चलाओ छेनी-हथौड़ी
तुम्हारे लिए बन नहीं सकतीं
ऐसी यांत्रिक घड़ियाँ
जिनमे काम के घंटों का हिसाब हो
और आराम के पल का ज़िक्र हो...
तुम लिखो कविता-कहानी
फट जाए चाहे
माथे की उभरी नसें
फूट जाए ललाई…
Added by anwar suhail on February 15, 2015 at 7:30pm — 7 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on February 15, 2015 at 11:25am — 8 Comments
“मम्मी मैं किटी पार्टी में जा रही हूँ , आप हेमा को कह दो वह विवान को दूध दे देगी ...वैसे भी विवान मेरे पास नहीं उसी के पास रहता है |” अपने लहराते हुए बालों को झटका देते हुए फाल्गुनी ने कहा ||स्टाइल में रहना, फैशनेबल कपड़े पहनना, सहेलियों के बीच अपनी सुन्दरता की प्रशंसा सुनना, यही तो मनपसंद कार्य है फाल्गुनी का | जन्म तो दिया बच्चे को मगर ममता नहीं लुटा पाई |
इसके विपरीत हेमा जो कि अपने से अधिक चिंता करती है घर परिवार की...अपनी जेठानी के पुत्र पर जान से भी अधिक स्नेह लुटाती है मगर…
ContinueAdded by डिम्पल गौड़ on February 14, 2015 at 3:30pm — 14 Comments
दिल से दिल के तार जुड़े संतूर जहाँ में बजते हैं
छंद पहेली गीत ग़ज़ल जब दूर जहाँ में सजते हैं
रुनझुन-रुनझुन घुंघरू आहट का संदेशा लाती है
ताल मिलाती धड़कन से मगरूर जहाँ में लगते है
अंतस मन मेल हुआ दिलबाग रूमानी गुलशन है
रुखसार गुलाबी होंठ शबाबी नूर जहाँ में लगते हैं
हया लबों पे खेल रही है नज़र नज़ाकत शानी है
कोयल किस्से कहती है मशहूर जहाँ में लगते हैं
नैन नख्श नखरों पे है नायाब नवेली नज्म अदा
फिदा फ़साने पर आनंद वो चूर जहाँ में लगते…
ContinueAdded by anand murthy on February 14, 2015 at 2:59pm — 8 Comments
॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥
कहने से नहीं
समझाने से नहीं
कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे
कौन रोक सकता है
बातें
कर्तव्यों को छोड़
केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब
ज़हर धीमा हो अगर
अमृत तो नहीं कह सकते न
संस्कारों की भूमि में
रिश्ते दिनों से मानयें जायें
ये दिन , वो दिन
अफसोस होता है
पता नहीं क्यों
रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में
राधा-कृष्ण-मीरा को ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 14, 2015 at 8:55am — 16 Comments
तुम साहसी हो,
मैं यह मानकर चला,
इसी भाव को,
हृदय में धारण कर,
प्रेम पथ पर आगे बढ़ा,
भावी जीवन का स्वप्न सजोयें,
परिवार, समाज, दुनिया से लड़ा,
पर देखो आज शर्मिन्दा खड़ा हूँ ,
स्वयं की नजरों में गिरा पड़ा हूँ ,
मुझे प्यार किया तुमने, पर कह ना सकीं,
मेरा जीवन होम हुआ, पर भंग न तुम्हारा मौन हुआ !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित
Added by Hari Prakash Dubey on February 14, 2015 at 8:52am — 16 Comments
क्या तुम्हें मालूम है
मुझे हरवक्त तुम्हें ,मेरे साथ होने का
अहसास रहता है
कि कहीं दूर से ही तुम मुझे कोई सहारा दे रही हो
मगर अबकी बार तुमसे मिलकर
मेरा वह अहसासों भरा विश्वास टूटता नजर आया
क्या तुम खुदको मुझसे दूर ले जाना चाहती हो
या दूर ले जा चुकी हो
बहुत दूर
मुझे तुम्हारी हर राहे मुकाम पर
जरूरत होगी
उस वक्त एक सूनापन
मेरे चेतन को अवचेतन करेगा
मेरे सोचने की शक्ति क्षीण हो जायेगी
मेरा शरीर सुन्न होने लगेगा
मेरी…
Added by umesh katara on February 14, 2015 at 7:30am — 12 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on February 14, 2015 at 1:30am — 20 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२
फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता, रुक जाना
ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना
उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते
एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना
दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको
ख़तरनाक है यूँ पानी खारा रुक जाना
तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो
नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना
पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में
अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2015 at 10:32pm — 17 Comments
पहाड़ और पीठ
एक
पहाड़,
सिर्फ पीठ होता है
मुह होता तो बोलता
पहाड़ के पैर भी नही होते
हाथ भी
वरना वह चलता
कुछ करता या,
उठता बैठता भी
पहाड़, अपनी पीठ पर
लाद लेता है तमाम जंगल नदी नाले,
हरी भरी झील भी
सड़क और बस्तियां भी
और कुछ नही बोलता
क्यों कि,
पहाड़ सिर्फ पीठ है
और पीठ कुछ नही बोलती
दो,
पीठ,
पहाड़ नही होती
पर लाद लेती है पहाड़
पीठ के भी मुह नही होता
पहाड़ की तरह होती है एक…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 13, 2015 at 12:24pm — 9 Comments
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