बहर - 2122, 2122, 2122, 212
प्रेम का मै हू पुजारी, प्रेम मेरा आन है ।
प्रेम का भूखा खुदा भी, प्रेम ही भगवान है ।।
वासना से तो परे यह, शुद्ध पावन गंग है ।
जीव में जीवन भरे यह, प्रेम से ही प्राण है ।।
पुत्र करते प्रेम मां से, औ पिता पु़त्री सदा ।
नींव नातो का यही फिर, प्रेम क्यो अनुदान है ।।
बालपन से है मिले जो, प्रेम तो लाचार है ।
है युवा की क्रांति देखो, प्रेम आलीशान है ।।
गोद में तुम तो रहे जब , मां पिता कैसे…
Added by रमेश कुमार चौहान on February 10, 2014 at 7:30pm — 1 Comment
मैं तेरी याद को सीने में चल दिया लेकर,
मेरा भी दिल था जो तूने मसल दिया लेकर।
किसी के वास्ते खुद को तबाह कर लेना,
खुदा किसी को न अब तू ये हौसला देना।
सज़ा मैं कौन से जुर्मों की जाने सहता हूँ,
किसी हुजूम में रहकर भी आज तन्हा हूँ।
क्यों मेरे दिल का ठिकाना बदल दिया लेकर,
मेरा भी दिल था जो तूने मसल दिया लेकर।
न जाने आग में कब तक जला करूँगा मैं,
यूँ किस तरह से भला और जी सकूँगा मैं।
मिटाऊंगा…
ContinueAdded by इमरान खान on February 10, 2014 at 6:43pm — 4 Comments
2122 2122 2122 212
बंदरों को फिर मिला शायद मसलने के लिये
फूल ने मंसूबा कल बान्धा था खिलने के लिये
बह के पानी की तरह अब दूर तक वो जायेगा
दर्द को मैने रखा था कल पिघलने के लिये
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 10, 2014 at 6:30pm — 16 Comments
जागो प्यारे भोर में मन में ले विश्वास
आस जगाती जिन्दगी करना है कुछ ख़ास /
करना है कुछ ख़ास मन में जगा लो चाहत
करो वक्त पे काम मिले तनाव से राहत
सरिता कहे पुकार नहीं मुश्किल से भागो
पड़े बहुत हैं काम भोर हुई अभी जागो //
..................................................
...........मौलिक व अप्रकाशित...........
Added by Sarita Bhatia on February 10, 2014 at 4:37pm — 13 Comments
परती धरती और पहली बारिश
बारिश की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और चमेली की खुषबू को संध्या अपने नथूनों में ही नही महसूस कर रही थी बल्कि अपनी संदीली काया के रोम रोम में सिहरन सा महसूस कर रही थी। बेहद तपन के बाद बारिष के मौसम की तरह वह अपने अंदर आये इस बदलाव से वह अंजान नही थी। पर उम्र के इस…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 10, 2014 at 2:00pm — 1 Comment
सूरज
जब छाए मन में निराशा,
तब सोचो उस सूरज को,
जो रोज डूबता है पर,
उगता फिर नई सुबह है ।
नई ऊर्जा ,नए उत्साह से,
बाँटता है खुशी अपनी,
मिट जाए दुनिया का अंधकार,
प्रकाश इसीलिये फैलाता है ।
तेज आभा ,प्रसन्न मुख ,
मजबूती की शिक्षा देते हैं,
खड़े हो जाओ,डटकर के,
कर्म का पाठ पढ़ाता है ।
न हारो और न रुको…
ContinueAdded by akhilesh mishra on February 10, 2014 at 1:00pm — 7 Comments
दें बिदाई आज तुम्हे, है परीक्षा की घड़ी ।
सीख सारे जो हमारे, तुम्हरे मन में पड़ी ।।
आज तुम्हे तो दिखाना, काम अब कर के भला ।
नाम होवे हम सबो का, हो सफल तुम जो भला ।।
हर परीक्षा में सफल हो, दे रहे आशीष हैं।
हर चुनौती से लड़ो तुम, काम तो ही ईश है ।।
कर्म ही पूजा कहे सब, कर्म पथ आगे बढो ।
जो बने बाधा टीलाा सा, चीर कर रास्ता गढ़ो ।।
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मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on February 10, 2014 at 8:00am — 12 Comments
हमारी अंटार्कटिका यात्रा – 12 वह अनोखा आतिथ्य
पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि रोमांचकारी 58 घंटे की समाप्ति के बाद हम सभी सुरक्षित अपने स्टेशन के अंदर थे. अगले दिन से ही हम लोग फिर से मंसूबे बनाने लगे रूसी स्टेशन जाने के लिए. सौभाग्य से दो दिन बाद मौसम कुछ अनुकूल होता दिखने लगा. हमने बाहर जाकर अपनी गाड़ियों का हाल देखा तो दंग रह गए. पिस्टन बुली के ऊपर ढेर सारा बर्फ़ तो था ही, भीतर भी पाऊडर की तरह बर्फ़ के बारीक कण हर कोने में…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on February 10, 2014 at 3:03am — 9 Comments
उनके आते ही यहाँ,खिले ह्रदय में फूल!
कोयल भी गानें लगी,पवन हुआ अनुकूल!!
मंद मंद चलने लगी,देखो प्रेम बयार!
कानों में आ कह रही,कर लो थोड़ा प्यार!!
अधरों के पट खोलकर,की है ऐसी बात !!
शब्द शब्द में बासुँरी,फिर मधुमय बरसात!!
कह न सका जब मैं उन्हें,तुम हो मन के मीत!
शायद तब से कवि बना,लिख लिख गाता गीत!!
फिर से मै घायल हुआ,पता नहीं वह कौन!
मुझे व्यथित करके सदा,हो जाती है मौन!!
बजा बाँसुरी प्रेम की,डालो…
Added by ram shiromani pathak on February 9, 2014 at 5:30pm — 24 Comments
क्या तुम्हें उपहार दूँ,
प्रिय प्रेम के प्रतिदान का.
तुम वसंत हो, अनुगामी
जिसका पर्णपात नहीं.
सुमन सुगंध सी संगिनी,
राग द्वेष की बात नहीं.
शब्द अपूर्ण वर्णन को
ईश्वर के वरदान का.
विकट ताप में अम्बुद री,
प्रशांत शीतल छांव सी,
तप्त मरू में दिख जाए,
हरियाली इक गाँव की.
कहो कैसे बखान करूँ
पूर्ण हुए अरमान का.
मैं पतंग तुम डोर प्रिय,
तुम बिन गगन अछूता…
ContinueAdded by Neeraj Neer on February 9, 2014 at 4:41pm — 33 Comments
तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से
ऐ परिंदे!
हिलोर आ जाती है
स्थिर,अमूर्त सैलाब में
और...
छलक जाता है
चर्म-चक्षुओं के किनारों से
अनायास ही कुछ नीर.
हवा दे जाते हैं कभी
ये पर तुम्हारे
आनन्द के उत्साह-रंजित
ओजमय अंगार को,
उतर आती है
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,
अमृत की तरह.
विखरते हैं जब
सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग,
तेरे आ बैठने…
ContinueAdded by Vindu Babu on February 9, 2014 at 2:00pm — 32 Comments
2122 2122 2122 2122
राज की बात कहता हूँ समझ अब तक न तू पाया ।
सुकूँ देकर किसी को ही आदमी ने सुकूँ पाया ।
दौलतें शोहरतें जिनको कमानी हैं क़मा लें वो ,
मुझे इतना बहुत है जो किसी के दिल को छू पाया ।
बढ़ाये हाथ जब मैंने किसी को थाम लेने को ,
ख़ुशी का सिलसिला दिल में अचानक ही शुरू पाया ।
यहाँ हर शै से हर शै का एक अनबूझ रिश्ता है ,
जब दिल में चुभा काँटा तो आँखों में लहू आया ।
ढूँढ़ने ज़िन्दगी का राज मै…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on February 9, 2014 at 11:30am — 8 Comments
लो ....
ये क्या मौसम बदलते ही
तुमने रिश्तों का स्वेटर
खोल दिया ...
एक एक फंदे
जो तुमने चढ़ाये थे
इतने जतन से
अचानक ही
उन्हे उतार दिया ....
इतने जल्दी तुम
भी बदल गए
इस मौसम की तरह
चलो ....
ऐसा करना
मेरी यादों की सलाईयों को
सहेज कर रख लेना
फिर कभी ठंड आएगी
और उस सलाईयों
पर अहसासों के ऊन से
फिर रिश्तों का स्वेटर
बना लेना ...
किसी…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on February 8, 2014 at 9:15pm — 10 Comments
आस बांधे खड़ा था
धूप से तन जल रहा था
जेष्ठ भी तो तप रहा था
आस थी बरसात की
प्यास थी एक बूंद की
आ गिरेगी शीश पर
तृप्त होगी देह तब
यह सोच कर उत्साह मन में हो रहा था
घन-घटा चहूँ ओर छाती जा रही थी
मलय शीतल उमड़-घुमड़ के बह रही थी
मेघ घिर-घिर आ रहे थे
मोर भी संदेश मीठा दे रहे थे
हर्ष दिल में हो रहा था
आनंद से छोटे बड़े सब घूमते
बाल मन से थे धरा को चूमते
एक दूसरे से मिल रहे जैसे गले
उल्लास…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on February 8, 2014 at 4:30pm — 6 Comments
दोहा-----------बसन्त
आम्र वृक्ष की डाल पर, कोयल छेड़े तान।
कूक कूक कर कूकती, बन बसंत की शान।।1
वन उपवन हर बाग में, तितली रंग विधान।
चंचल मन उदगार है, प्रीति-रीति परिधान।।2
क्षितिज प्रेम की नींव है, कमल भवन, अलि जान।
दिन भर गुन गुन गान है, सांझ ढले रस पान।।3
मन मन्दिर है प्रेम का, जिसमें रहते संत।
विविध रंग अनुबंध में, खिल कर बनों बसंत।।4
पुरवार्इ मन रास है, सकल बहार उजास।
किरनें जल…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 7, 2014 at 9:30pm — 9 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 7, 2014 at 7:52pm — 13 Comments
उमा-उमा मन की पुलकन है
शिव का दृढ़ विश्वास
मिले अब !
सूक्ष्म तरंगों में
सिहरन की
धार निराली प्राणपगी है
शैलसुता तब
क्लिष्ट मौन थी …
Added by Saurabh Pandey on February 7, 2014 at 6:30pm — 44 Comments
Added by anwar suhail on February 7, 2014 at 4:04pm — 5 Comments
डरना कैसा मौत से, यह तो सच्ची यार
धोखा देती जिन्दगी , मौत निभाए प्यार /
मौत निभाए प्यार , साथ है लेकर जाती
सबक जिंदगी रोज, नया हमको सिखलाती
नेक मौत का काम, सबकी पीर को हरना
सरिता कहे पुकार, मत तुम मौत से डरना //
.....................................................
................मौलिक व प्रकाशित ...........
Added by Sarita Bhatia on February 7, 2014 at 10:02am — 16 Comments
कवि
कौन कहता है
मैं कवि हूँ और वह नहीं ?
मैं पेट भर खाने के बाद
बरामदे की गुनगुनी धूप में बैठा हूँ
प्रकृति दर्शन के लिए –
वह,
भूखे पेट
एक कटी पतंग की डोर थामने
आसमान की ओर बेतहाशा भागा जा रहा है
मगर,
आसमान है कि
उससे दूर हटता जा रहा है –
बादल, क्षितिज और
एक कटी पतंग को
अपनी नीलिमा की ओढ़नी में छुपाकर,
कविता की लकीर खींचता हुआ !!!
(मौलिक तथा अप्रकाशित रचना)
Added by sharadindu mukerji on February 6, 2014 at 10:52pm — 10 Comments
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