जब आत्मग्लानि
पार कर जाती है
पीड़ा की पराकाष्ठा
तब मैं हीनभावनाग्रस्त
विचारता हूँ...
शाश्वत रुपी मौत...
मन को कई तर्कों से
कर देता हूँ आश्वाषित
कि जीवन की सार्थकता
मात्र जीवंतता से ही नहीं परिभाषित
कि हर विडंबना का अंत
मात्र मृत्यु से ही है सम्बंधित
कि अनंत के पार मिलूंगा तुम्हें
कि मृत्यु उपरान्त भी
रहूँगा तुम्हारा प्रतीक्षित...
कि अंत के उपरांत भी
रहूँगा सदा तुम्हारा ......
पर जब करना चाहता हूँ…
Added by अभिवृत अक्षांश on March 25, 2014 at 5:30am — 1 Comment
ध्यान से देखो
वो पॉलीथीन जैसी रचना है
हल्की, पतली, पारदर्शी
पॉलीथीन में उपस्थित परमाणुओं की तरह
उस रचना के शब्द भी वही हैं
जो अत्यन्त विस्फोटक और ज्वलनशील वाक्यों में होते हैं
वो रचना
किसी बाजारू विचार को
घर घर तक पहुँचाने के लिए इस्तेमाल की जायेगी
उस पर बेअसर साबित होंगे आलोचना के अम्ल और क्षार
समय जैसा पारखी भी धोखा खा जाएगा
प्रकृति की सारी विनाशकारी शक्तियाँ मिलकर भी
उसे नष्ट…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 24, 2014 at 11:51pm — 11 Comments
कुत्ते का बच्चा
गया मर,
एड़ियाँ रगड़,
किसे फिकर,
काली चमकती सड़क,,
चलती गाड़ियाँ बेधड़क,
बैठा हाकिम अकड़,
कलफ़ कड़क,
सड़क पर किसका हक़?
क्यों रहा भड़क?
किसके लिए बनी
काली चमकती सड़क?
कुत्ता कितना कुत्ता है
चला आता है,
धुल भरी पगडंडियां
गाँव की
छोड़कर.
.. नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on March 24, 2014 at 4:58pm — 16 Comments
Added by Poonam Shukla on March 24, 2014 at 4:52pm — 10 Comments
11212 11212 11212 11212
हुये रोशनी के प्रतीक जो , वो अँधेरों से हैं घिरे हुये
ये कहो नही, जो कहे अगर, तो ये जान लें कि गिले हुये
न ही दर्द की कोई जात है, न ही शादमानी की कौम है
ये सियासतों की है साजिशें , जो हैं बांटने को पिले…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 24, 2014 at 11:00am — 19 Comments
मौसम हुआ सुहावना ,उपवन उपवन नूर
ग्लोबल वार्मिंग का असर अब गर्मी है दूर |
समझो प्यारे ध्यान से मौसमी यह बिसात
सुबह होती धूप अगर शाम हुई बरसात |
पारा बढ़ता जा रहा लेकिन बढ़ी न प्यास
फागुन के अब मास में श्रावण का अहसास |
फागुन बीता ओढ़ के रजाई और शाल
वोटर का पारा बढ़ा देख सियासी चाल |
मौसम का बदलाव ये कर ना दे बेहाल
सेहत के खजाने को रखना सब संभाल…
Added by Sarita Bhatia on March 24, 2014 at 10:23am — 10 Comments
2122 2122 2122
***
आदमी को आदमी से बैर इतना
भर रहा अब खुद में ही वो मैर इतना
*
दुश्मनो की बात करनी व्यर्थ है यूँ
अब सहोदर ही लगे है गैर इतना
*
चादरें छोटी मिली हैं किश्मतों की
इसलिए भी मत पसारो पैर इतना
*
दे रहे आवाज हम हैं बेखबर तुम
कर रहे हो किस जहाँ में सैर इतना
*
किस तरह आऊं बता तुझ तक अभी मैं
गाव! उलझन दे गया है नैर इतना
*
झूठ होते हैं सियासत के …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 24, 2014 at 8:30am — 20 Comments
हर चूहा चालाक है, ढूँढे सही जहाज
डगमग दिखा जहाज ग़र, कूद भगे बिन लाज
सजी हाट में घूमती, बटमारों की जात
माल-लूट के पूर्व ही, करती लत्तमलात
नाटक के इस…
Added by Saurabh Pandey on March 24, 2014 at 12:30am — 19 Comments
एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले ....
पत्थरों में खौफ़ का मंज़र भरे बैठे हैं हम |
आईना हैं, खुद में अब पत्थर भरे बैठे हैं हम |
हम अकेले ही सफ़र में चल पड़ें तो फ़िक्र क्या,
अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |
जौहरी होने की ख़ुशफ़हमी का ये अंजाम है,
अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |
लाडला तो चाहता है जेब में टॉफी मिले,
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम…
Added by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 12:00am — 15 Comments
सौतेली माँ
जब मैं छोटा था
भूख से तड़पता था
लेकिन अब –
वो हर वक्त पूछती है
बेटा खाना खाओगे !
.
पुजारिन
करबध्द खड़ी है
न जाने कब से ?
मीरा की तरह
और , कन्हैया –
किसी राधा के साथ
रास रचाने
निकल गए हैं ।
--- मौलिक एवं अप्रकाशित ---
Added by S. C. Brahmachari on March 23, 2014 at 8:00pm — 8 Comments
( महाप्रभु चैतन्य के जीवन चरित्र को पढ़ते – पढ़ते जब उनका निर्वाण पक्ष पढ़ रही थी तभी उनकी माँ और पत्नी के वियोग से मेरी आँखें भर आयीं और मन में कुछ भाव प्रस्फुटित हुए उन्हीं को शब्दबंध करने का एक छोटा – सा प्रयास है ये
ContinueAdded by ANJU MISHRA on March 23, 2014 at 4:30pm — 8 Comments
भारतीय किसान
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जय जवान जय किसान
जग का नारा झूंठा
भाग्य किसान कैसा तेरा
प्रभू भी तुझसे रूठा
लेकर हल खेत में
नंगे पाँव तू जाए
मखमली कालीन पे
वणिक विश्राम पाए
भरता सगरे जग का पेट
खुद है भूखा सोता
बिके फसल तेरी जब
कर्जा कम न होता
हाय रे किस्मत तेरी
कैसा भाग्य अनूठा
जय जवान जय किसान
जग का…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 23, 2014 at 3:30pm — 20 Comments
फकत वोटों की खातिर झूठे वादे करने वालों को
सबक सिखलाएंगे अब के छलावे करने वालों को ...
नहीं गुमराह होंगे हम किसी की बातों में आ कर
न गद्दी पर बिठाएंगे तमाशे करने वालों को...
गरीबी,भुखमरी,बेरोजगारी से लड़ेंगे वो
चलो हम हौसला देवें इरादे करने वालों को ...
चुनावी वायदे अपने कभी पूरे नहीं करते
बहाना चाहिए कोई बहाने करने वालों…
Added by Ajay Agyat on March 23, 2014 at 3:00pm — 9 Comments
निःश्वसन
उच्छ्वसन
सब देह-कर्म, यह अवगुंठन
मोह-पाश के बंधन तुम
बस तुम! तुम ही तुम
व्यक्त हाव
अव्यक्त भाव
नेह-क्लेश, अभाव-विभाव
रूप-गंध के कारण तुम
बस तुम! तुम ही तुम
सम्मुख हो जब
विमुख हुए, तब
मनस-पटल की चेतनता सब
अनुभूति-रेख में केवल तुम
बस तुम! तुम ही तुम
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on March 23, 2014 at 11:30am — 30 Comments
अरुण से ले प्रकाश तू
तिमिर की ओर मोड़ दे !
मना न शोक भूत का
है सामने यथार्थ जब
जगत ये कर्म पूजता
धनुष उठा ले पार्थ ! अब
सदैव लक्ष्य ध्यान रख
मगर समय का भान रख
तू साध मीन-दृग सदा
बचे जगत को छोड़ दे !
विजय मिले या हार हो
सदा हो मन में भाव सम
जला दे ज्ञान-दीप यूँ
मनस को छू सके न तम
भले ही सुख को साथ रख
दुखों के दिन भी याद रख
हृदय में स्वाभिमान हो
अहं को पर, झिंझोड़ दे !…
Added by विवेक मिश्र on March 23, 2014 at 4:00am — 17 Comments
उत्तुंग शृंखलाओ को
चीर कर
रफ्ता रफ्ता
उतरती चली आती है
सदा ही अवनत
मचलती लहराती वो
करती धरा का आलिंगन
सहर्ष ..... वलयित हो
मुसकाती
बढ़ती जाती निरंतर
सागर की बाँहों मे
समा जाने को विकल
अद्भुत निरखता सौम्य रूप
कुछ उच्छृंखल
राह के अवरोध समेट
तरण तारिणी
सागर से मिलन की
मधुर बेला मे
पूर्ण समर्पण लखता
अहा ! क्या ही अद्भुत
विहंगम दृश्य.......
धारा का जलध…
ContinueAdded by annapurna bajpai on March 23, 2014 at 12:00am — 15 Comments
चुपके-चुपके चैत ने, घोला अपना रंग।
और बदन की स्वेद से, शुरू हो गई जंग।
पल-पल तपते सूर्य की, ऐसी बिछी बिसात।
हर बाज़ी वो जीतकर, हमें दे रहा मात।
लू लपटों ने कर लिया, दुपहर पर अधिकार।
दिन भर तनकर घूमता, दिनकर…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 22, 2014 at 10:00pm — 15 Comments
जिंदगी जब से सधी होने लगी
जाने क्यूँ उनकी कमी होने लगी
डूब कर हमने जिया है काम को
काम से ही अब ख़ुशी होने लगी
हारना सीखा नहीं हमने यदा
दुश्मनो में खलबली होने लगी
नेक दिल की बात करते है चतुर
हर कहे अक से बदी होने लगी
चाँद पूनम का खिला जब यूँ लगा
यादें दिल की फिर कली होने लगी
------- शशि पुरवार
मौलिक और अप्रकाशित
Added by shashi purwar on March 22, 2014 at 9:30pm — 11 Comments
2122 1122 1122 22
अब्र चाहत के जहाँ दिल से करम करते हैं
ऐसी झीलों में मुहब्बत के कँवल झरते हैं
मजहबी छीटें रकाबत के जहाँ पर गिरते
उन तड़ागों के बदन मैले हुआ करते हैं
बस गए हैं जो बिना खौफ़ विषैले अजगर
वादियों में वो सभी आज जह्र भरते हैं
मस्त भँवरों की शरारत की यहाँ अनदेखी
फूल पत्तों पे चढ़ी दर्द भरी परते हैं
सौदे बाजों की बगल में हुई आहट सुनकर
धीमे-धीमे…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 22, 2014 at 9:00pm — 12 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता
भटक जाता परिंदा, गर ख़ुदा, रहबर नहीं होता
कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है
दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता
बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़लूम को कैसे
यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता
मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू
सदा सच बोलता है जो कभी अफ़सर नहीं होता
ये पीली पत्तियाँ, पत्ते हरे आने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2014 at 8:00pm — 28 Comments
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