एक सुनहरी आभा सी छायी थी मन पर
मैं भी निकला चाँद सितारे टांके तन पर
इतने में ही आँधी आयी, सब फूस उड़ा
सब पत्ते, फूल, कली, पेड़ों से झड़ा, उड़ा
धूल उड़ी, तन पर, मन पर गहरी वह छाई
मन अकुलाया, व्याकुल हो आँखें भर आई
सरपट भागें इधर उधर गुबार के घोड़े
जैसे चित के बेलगाम से अंधे घोड़े
कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई
कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई
छप्पर, बाग, बगीचे, सब थे सहमे बिदके
मैं भी देखूँ इधर उधर सब ही थे…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 31, 2013 at 10:00pm — 31 Comments
खुशियाँ लाया तीज है , गाएं गीत मल्हार
आंगन पींगों से सजे , झूलें कर श्रृंगार||
झूलें कर श्रृंगार ,ओढ के लाल चुनरिया
चूड़ियाँ हरी लाल , पहन झूमती गुजरिया||
आया श्रावण माह ,माँ ने पीहर बुलाया
मिले प्रेम उपहार, तीज है खुशियाँ लाया||
******************
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Sarita Bhatia on July 31, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
आकाश में काली घटा छाई,
आज फिर तुम्हारी याद आई।
लगा तुमने जैसे मुझे छू लिया,
जब चली झूमकर ये पुरवाई।
मन्द -मन्द चली शीतल पवन,
मन में जल उठी विरह-अगन।
मन को शीतल करने के लिए
वर्षा में भिगोया मैंने अपना तन।
नन्हीं-नन्हीं -सी बूँदें,ये जल की,
और मेरे विरह की ये जलन बड़ी।
अब तो आकर मुझे लगा लो अंग,
बस यही सोच रही मैं खड़ी -खड़ी।
जाने कब साकार होगी ये कल्पना,
कब होगा पूरा मेरा सुन्दर सपना?
है जो मुझसे अभी तक पराया-सा,…
Added by Savitri Rathore on July 31, 2013 at 7:30pm — 2 Comments
इक दिया तुमने जलाया होता
तम जरा सा ही हटाया होता
हिन्द में रहते सभी हिंदी हैं
भेद मजहब का मिटाया होता
साथ जीने में मजा आता है
पाठ सबको ये पढ़ाया होता
गर खता हमसे हुई माफ़ करो
वाकया गुजरा भुलाया होता
कुछ खुदा की यूं इबादत करते
रोते बच्चे को हसाया होता
चीरते हो बस मही का सीना
गुल से आँचल भी सजाया होता
दूध जिस माँ का पिया है तुमने
कर्ज कुछ उसका…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on July 31, 2013 at 6:30pm — 12 Comments
श्याम खुद को बहुत खुशकिस्मत मान रहा था | बात थी भी ऐसी, वो भयानक रात और दो दिन तक मची तबाही का मंजर एक पल के लिए भी तो उसकी आँखों से नहीं हटा था | जहाँ-तहां लाशे बिछी हुई थी और हर तरफ चीख पुकार |
श्याम अपनी पत्नी सुनीता चार बच्चो का पेट पालने के लिए एक खच्चर के सहारे खच्चर में माल ढोने का काम करता है और हर साल यात्रा सीजन में केदारनाथ परिवार सहित केदार बाबा की शरण में पहुँच जाता था | जहाँ पत्नी फूल प्रसाद बेचा करती है, और बच्चे होटल में बर्तन धोने का का काम और वो खुद खच्चर…
Added by दिव्या on July 31, 2013 at 4:29pm — 7 Comments
अनंत मनोभाव जब,
शब्द से क्यों मौन हो ?
तुम मेरी कौन हो ?
किंचित मुझे भी ज्ञान है,
किंचित जो तुमसे ज्ञात हो,
अनुत्तरित सा प्रश्न ये,
उत्तरित हो जाय, कि
आभास से समीपता,
पर दृष्टि से क्यों गौण हो ?
लगता मुझे कि ब्रह्म-सी,
नेत्र-शक्ति से परे,
अनुभवीय मात्र हो !
आत्मदर्शनीय, किन्तु
बाह्य हींन गात्र हो !
सत्य क्या ? पता नही,
किन्तु, कुछ अनुमान है…
ContinueAdded by पीयूष द्विवेदी भारत on July 31, 2013 at 4:04pm — 4 Comments
Added by Sumit Naithani on July 31, 2013 at 4:00pm — 10 Comments
ओ मेरी नायिका
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मोहिनी अदाएं,
मारक निगाहें,
कामिनी काया...
गजगामिनी, ऐश्वर्या,
गर्विता, हंसिनी,
हिरणी, सुगंधिता,
रमणी, अलंकृता,
मंजरी, प्रगल्भा, ....
क्या क्या कहूं तुझे.
मेरे प्रेम भाव का अवलम्ब,
अपने सौन्दर्य और यौवन से
मुझमें रति भाव जगाने वाली,
और अपनी अनुपस्थिति में
नित प्रतिदिन के कामों से विमुख कर
अपनी ही स्मृतियों के कानन में
मुझे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2013 at 3:32pm — No Comments
महिमा पैसो की
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पर पैसो के मैने तो देखे नही ।
फिर क्यू वो कही पे ठहरता नही ॥
पकडते है दोनो हाथो से सभी ।
पर पकड मे किसी के वो आता नही ॥......... फिर क्यू वो कही पे ठहरता नही ॥…
ContinueAdded by बसंत नेमा on July 31, 2013 at 3:30pm — 2 Comments
रात के ग्यारह बजे मैं और मेरे दोस्त रदीफ़ भाई भोपाल से दिल्ली एअरपोर्ट पहुंचे! रदीफ़ भाई को जो रोज़े पे थे कल सुबह ‘सहरी’ करनी थी सो लिहाज़ा हम पहाड़गंज के एक ऐसे होटल में रुके जहाँ सुबह के तीन बजे खाना मिल सके. होटल पहुंचते- पहुंचते रात के बारह से ज़्यादा बज गए. सामान कमरे में रख मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की और चल पड़ा जो पास ही था- अपने कॉलेज के दिनों की कुछ यादों से गर्द झाड़ता हुआ. कुछ भी क्या बदला था- वही ढाबों की लम्बी कतार, जगह-जगह उलटे लटके तंदूरी चिकन की झालरें, तो कहीं शुद्ध…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2013 at 9:26am — 2 Comments
उमर भर साथ तू शामिल रही परछाइयों में,
सहा जाता नहीं है दर्द-ए-दिल तन्हाइयों में,
जरा सी बात पे रिश्ता दिलों का तोड़ते हैं,
उतर पाते नहीं जो प्यार की गहराइयों में,
भला इन्सान कोई दूर तक दिखता नहीं है,
बुराई घुल रही तेजी से है अच्छाइयों में,
जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,
जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,
निगाहों को दिखाकर ख्वाब ऊँचें आसमां का,
गिराते लोग हैं धोखे से गहरी खाइयों…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 30, 2013 at 8:30pm — 22 Comments
शब्दों के घेरे
घेर लेते है मुझे
किसी चिड़िया की
मानिंद आ बैठते हैं
हृदय रूपी वृक्ष द्वार पर
कल्पनाओं की टहनी पर
फुदक फुदक कर
बनाते है नई रचनाये
गीत कवित्त कविताएं
कल्पनाओं की उड़ान
को देते हैं हर बार
नए पंख लगा बैठते
हर बार टहनी टहनी
मेरे नए जीवन की
हर सुबह को देते
एक सूरज नया । ............ अन्न्पूर्णा बाजपेई
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by annapurna bajpai on July 30, 2013 at 2:00pm — 11 Comments
जब कभी अम्न की तदबीर नई होती है॥
हर तरफ जंग की तस्वीर नई होती है॥
ख़त्म कर देती है सदियों की पुरानी रंजिश,
वक़्त के हाथ में शमशीर नई होती है॥
पहले होते हैं यहाँ क़त्ल धमाके…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on July 30, 2013 at 1:37am — 8 Comments
वास्ता बस यूँ कि
यादें आती रहें जाती रहें
इसी बहाने कभी यूँही कह
मुस्कुरा लिया करेंगे
गुज़रती बेहाल सी
रफ़्तार भरी ज़िन्दगी में भी
इसी बहाने कभी यूँही कह
दो घड़ी थम जाया करेंगे
दुखती आँखों पर भी
थोड़ा रहम हो जायेगा
इसी बहाने कभी यूँही कह
आंखे मूंद तुम्हें
देख लिया करेंगे
खोलती नहीं दुपट्टे की
वो गांठ चुभती है जो
ओढ़ने में….इसी बहाने
कभी यूँही कह तुम्हें
महसूस कर लिया…
ContinueAdded by Priyanka singh on July 29, 2013 at 10:50pm — 15 Comments
1.धार तू,मझधार तू,सफ़र तू ही,राह तू,
घाव तू,उपचार तू,तीर भी,शमशीर भी।
जाने कितने वेश है,दर्द कितने शेष हैं,
गा चुके दरवेश हैं,संत ,मुर्शिद,पीर भी।
ध्वंस किन्तु सृजन भी,भीड़ तू ही,विजन भी,
छंद है स्वच्छन्द किन्तु,गिरह भी,ज़ंजीर भी।
भाग्य से जिसको मिला,उसे भी रहता गिला,
पा तुझे बौरा गए,हाय,आलमगीर भी॥
2.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,
कुछ ग़ज़लों…
Added by Ravi Prakash on July 29, 2013 at 8:00am — 9 Comments
बेजान कमरे में
टूटी खटिया पे लेटा
करवट लेते हुए
आँखों के पूरे सूनेपन के साथ
कभी कभी खिड़की के
बाहर देखता हूँ
कैसी है दुनियां
क्या वैसी ही है
जैसी पहले हुआ करती थी
दर्द के समंदर में
निस्पंद जड़ सा
सोचता रहा
अपने ही अपने नहीं रहे
ये गुमशुदी का जीवन कब तक
एक चिंता जाती
तो दूसरी उत्पन्न
देखता रहता हूँ
सजीव कंकाल सा
इधर उधर
बस जिंदा हूँ
औपचारिक
राम शिरोमणि…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on July 28, 2013 at 8:00pm — 16 Comments
देख कर सावन को
आँखे भर आती हैं
क्या पता सावन भी
किसी की याद मे रोता होगा
मेरी ही तरह करता होगा
इंतज़ार किसी का ….
टूट जाने पर वादा
मेरी ही तरह रोता होगा
क्या पता सावन भी
सावन में किसी के लिए
तरसता होगा ………
करके वादा गया होगा कोई
लौट कर आऊंगा उस महीने में
जिसमे बरसात होगी ……
ऐ मेरे चाहने वाले
अब तो तुमसे
बरसात में ही मुलाक़ात होगी
टूटता होगा वादा तो
दिल भी टूट जाता होगा
दर्द के…
Added by Sonam Saini on July 28, 2013 at 11:30am — 7 Comments
नव निशा की बेला लेकर,
साँझ सलोनी जब घर आयी।
पूछा मैंने उससे क्यों तू ,
यह अँधियारा संग है लायी॥
सुंदर प्रकाश था धरा पर,
आलोकित थे सब दिग-दिगंत।
है प्रकाश विकास का वाहक,
क्यों करती तू इसका अंत॥
जीवन का नियम यही है,
उसने हँसकर मुझे बताया।
यदि प्रकाश के बाद न आए,
गहन तम की काली छाया॥
तो तुम कैसे जान सकोगे,
क्या महत्व होता प्रकाश का।
यदि विनाश न हो भू पर,
तो कैसे हो…
ContinueAdded by Pradeep Bahuguna Darpan on July 28, 2013 at 11:00am — 6 Comments
बादल
बादल अंधे और बहरे होते हैं
बादल नहीं देख पाते रेगिस्तान का तड़पना
बादलों को नहीं सुनाई पड़ती बाढ़ में बहते इंसानों की चीख
बादल नहीं बोल पाते सांत्वना के दो शब्द
बादल सिर्फ़ गरजना जानते हैं
और ये बरसते तभी हैं जब मजबूर हो जाते हैं
सागर
गागर, घड़ा, ताल, झील
नहर, नदी, दरिया
यहाँ तक कि नाले भी
लुटाने लगते हैं पानी जब वो भर जाते हैं
पर समुद्र भरने के बाद भी चुपचाप पीता…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 27, 2013 at 10:00pm — 5 Comments
नीरज, बहुत दिन बाद आए
जेठ में भी
बादल दिख गए
पर तुम नहीं दिखे
हमारा साथ कितना पुराना
जब पहली बार मिले थे
तभी लगा था
पिछले जनम का साथ
करम लेखा की तरह
अनचीन्हा नहीं था
तुम्हारे न रहने पर
बहुत अकेला होता हूँ
किसी के पास
समय नहीं
समय क्या
कुछ भी नहीं
दूसरों के लिए
दिन काटे नहीं कटता
तुम नहीं थे
मैं जाता था बतियाने
पेड़…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 27, 2013 at 8:30pm — 18 Comments
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