तन्हा- तन्हा, चुपके चुपके
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Added by Sonam Saini on July 8, 2013 at 9:30pm — 11 Comments
किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।
कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।
यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।
बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।
न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,
ये शायर शय से सारी, इन दिनों…
Added by Arvind Kumar on July 8, 2013 at 4:30pm — 11 Comments
भारत की अस्मत लुटने तक क्यूँ सोते हो सत्ताधारी
भाषण में झूठे वादों से
अपने नापाक इरादों से
तुम ख्वाब दिखाके उड़ने के
खुद बैठे हो सैयादों से
बस नोट, सियासी इल्ली बन, तुम बोते हो सत्ताधारी
भारत की अस्मत लुटने तक क्यूँ सोते हो सत्ताधारी
हर ओर मुफलिसी फांके हों
यूँ रोज ही भले धमाके हों
कागज़ पे सुरक्षा अच्छी है
इस पर भी खूब ठहाके हों
पहले तो खेल सजाते हो फिर रोते हो सत्ताधारी
भारत की अस्मत लुटने तक…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 8, 2013 at 3:30pm — 7 Comments
Added by Drshorya Malik on July 8, 2013 at 10:30am — 6 Comments
जगह जगह मधुशाला देखी , नल का पानी बंद मिला
अंधी नगरी चौपट राजा , किससे शिकायत किससे गिला
दिया दाखिला सब बच्चों को ,
मिली पढ़ाई मात्र नाम की ,
कंप्यूटर मिल रहे खास को ,
बिजली पानी नही आम की ,
आँखो पर पट्टी है या फिर सबको दी है भंग पिला
गूंगे गाये गीत मान के
बहरे सुन सुन कर इतराएँ
अंधों भी उत्सुक हैं ऐसे
महज इशारों मे बौराएँ
बंदर सारे खेल कर रहे ""अजय" मदारी रहा खिला
मौलिक और…
ContinueAdded by ajay sharma on July 7, 2013 at 11:30pm — 9 Comments
221 2121 1221 212
बेख़ौफ़ सारी उम्र निकल जाये इस तरह
गिरने की बात हो न, संभल जाए इस तरह
तूफ़ान भी चले तो चरागा जला करे
दोनों ही अपनी राह बदल जाए इस तरह
हर सिम्त जिंदगी रहे, पुरजोश बारहां
जो मौत का भी होश,बदल जाए इस तरह
फैले कहीं जो बाहें तो बच्चों सा दौड़कर
मिलने को हर इक शख्स मचल जाए इस तरह
आंसू किसी की आँखों का, हर आँख से बहे
इस शहर की फ़ज़ा भी बदल जाये इस तरह…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on July 7, 2013 at 10:40pm — 12 Comments
Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 7, 2013 at 8:00pm — 4 Comments
कुछ शहनशाहों के तख़्त
कुछ ऊँचे पर्वतों के शिखर
कुछ ऊँचें अटार
कुछ ऊँचें लोग अपने कद से भी बहुत ऊँचे
आम आदमी पहुँच नहीं पाता उन तक
और सिर झुकाए निराश है
पर देखो
लाख किरकिराती है
किसी को फूटी आँख नहीं सुहाती है
फिर भी धूल बही जाती है बेफिक्री में
बिना दुःख और मलाल के
और होता भी है यह है कि
आदी कैसी भी हो
अंत उसके सुपुर्द होता है .... ~nutan~
मौलिक अप्रकाशित
Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on July 7, 2013 at 5:30pm — 2 Comments
तू तो वह पल है
जिसे मैंने पाला है
जिसको मैंने जिया है
जिसने मुझे रुलाया
और
हँसाया भी है
मुझे, तुमसे मिलाया भी है
और मुझको, मुझसे भी मिलाया है
पद दिया
मान दिया
सम्मान दिया
कभी अर्श पे
कभी फर्श पे
बैठाया ....
मगर पल का क्या
पल की आदत है
बीत जाना
तो वो पल था
जो छोड़ गया
ये पल है
कल ये भी न होगा
पल का क्या
पल की तो आदत है
बीत जाना ....
"मालिक व अप्रकाशित "
Added by Amod Kumar Srivastava on July 7, 2013 at 5:00pm — 5 Comments
Added by Kavita Verma on July 7, 2013 at 2:24pm — 7 Comments
स्वर्ग है फिर आपका क्या काम?
अमरनाथ गुफा हो, बद्रीनाथ, केदारनाथ, मान सरोवर, आदि प्राकृतिक स्थल की यात्रा हो...हर व्यक्ति लौटकर एक ही जवाब देता है......क्या स्वर्ग है. क्या देव भूमि है ...समझ में नहीं आता जब वो देव भूमि है, स्वर्ग है...तो आप वहां क्यों जा रहे हैं? देवों की पवित्र भूमि पर आप धरतीवासी कदम रखकर उनकी भूमि को अपवित्र क्यों कर रहे हो? क्या वहां जाने वाले सभी शुद्ध मन, विचार के होते हैं? क्या जिंदगी में दो नंबर का धन कमाने वाले भ्रष्ट आचरण के लोग वहां जाने से परहेज करते हैं?…
ContinueAdded by dinesh solanki on July 7, 2013 at 9:22am — 6 Comments
२१२२ २१२२ २१२ १२
हाथ मिला के जो हमे तन्हा जता गया
साथ मन में चल रहा था वो बता गया
उस को केसे में दयालु मेरे दिल लिखूँ
जेसे वो भगवान बन दुनिया सता गया
फिर चलेंगे तो हमारी होगी कहानी
फिर क्या वो राह हम से कर खता गया
राह कब उस शहर की तरफ मुझे ले गई
राहबर जिस का जाते हुए दे पता गया
दरख्त बूढ़े पै बैठा तन्हा पक्षी मगर
जिंदगी का सच्च राही को बता…
ContinueAdded by मोहन बेगोवाल on July 7, 2013 at 8:00am — 1 Comment
ग़ज़ल
आईनों से मिले थे बड़ी हसरत में,
हम और कोई निकले शिनाख्त में।
क्या आज फिर शह्र में लहू बरसा है?
अख़बार की सुर्खियाँ हैं दहशत में।
मुफ़लिसी क्या इतनी बुरी चीज़ है? मुफ़लिसी - निर्धनता
आये हैं दोस्त भी मुख़ालफ़त में। मुख़ालफ़त - विरोध
जल्द ही इमारती शह्र उग आएगा,
बो तो दिये गये हैं पत्थर दश्त में। दश्त - जंगल
उसे लगा आस्मां मुझे…
ContinueAdded by सानी करतारपुरी on July 7, 2013 at 3:30am — 1 Comment
Added by कवि - राज बुन्दॆली on July 6, 2013 at 6:19pm — 14 Comments
यूं ही बचपन गया शरारत में
औ' जवानी गयी मुहब्बत में
और जो वक़्त जिंदगी के बचे
वो भी गुज़रे फ़क़त तिजारत में
बादे मुश्किल मिले जो पल वो भी
हो गए रायगाँ शिकायत में
मुफ्लिसों को भला बुरा कहना
है शुमार आज सबकी आदत में
फूल बेलपत्र के अलावा शिव
जान मांगे है अब ज़ियारत में
फ़ासला तू औ' मैं का जब न मिटे
तो मज़ा ख़ाक है मुहब्बत में
गाँव से वो कपास की कतरन
जाके चुनता है शह्रे सूरत…
Added by Sushil Thakur on July 6, 2013 at 5:00pm — 5 Comments
सुन्दरता इसको घेरी है
मादकता इसमें पिरोई है
मीठे में मिश्री जैसा मेरा गाँव
सबसे प्यारा सबसे न्यारा मेरा गाँव
उंच नीच का भेद नहीं है
शहरों जैसा क्लेश नहीं है
फूलों में गुलशन जैसा मेरा गाँव
सबसे प्यारा सबसे न्यारा मेरा गाँव
सुन्दरता तरुओं की प्यारी
मादकता सरसों की सारी …
Added by Devendra Pandey on July 6, 2013 at 2:30pm — 4 Comments
प्रकृति का नर्तन
(उत्तराखण्ड आपदा के संदर्भ में)
हमने भी देखा है,
माथे पर स्वर्ण-टीका लगाये
संध्या को,
शैल-शिखरों पर अभिसार करते हुए.
देवदार कुछ लजीले, कुछ शरमाए
चीड़ चंचल उत्पात करे,
मौन इशारे करते कुछ बहके -
देखा है रात ने,
भँवरे को कमल संग रमन करते हुए.
प्रातः मधुरस लिये भँवरा
गुँजन करता चमन चमन,
इस कान में कुछ स्वर
उस सुमन को देता कुछ मकरंद.
सौगात बाँटता वन उपवन…
Added by coontee mukerji on July 6, 2013 at 12:30pm — 4 Comments
ऊद्धव कन्हैया से जाकर सिर्फ इतना बता दीजियेगा ।
हे कृष्ण प्रेमी जनों की अब कुछ तो खबर लीजियेगा ।
उनकी खातिर दिलों जाँ लुटाया ।
और ज़माने को दुश्मन बनाया ।
उनके पीछे ये दुनिया भुलायी ।
उनकी राहों में पलकें बिछायी ।
उनके बिन बृज में क्या हो रहा है हाल सारा सुना दीजियेगा ।
हे कृष्ण प्रेमी जनों की अब कुछ तो खबर लीजियेगा ।
उनके बिन अपनी हालत न पूछो ।
कैसी है दिल में चाहत न पूछो ।
हम तो मर मर के जीने लगे हैं ।…
Added by Neeraj Nishchal on July 6, 2013 at 8:00am — 4 Comments
मैं क्या लिखूँ
कहाँ से पकड़ू
कहाँ से जोड़ू
न भाव है
न आधार है
अंतहीन है सिलसिला
गुजरता जाता है
सब कुछ इस जहां मे
निराकार है, निराधार है
लालसाए हैं
न ठिकाना है, न ठहरना है
फैले हुये शब्दों के जंजाल
महत्वाकांक्षाएं, मौलिकता
सब दिखावा है
क्या लिखूँ
यह व्यथा की कथा है
शब्दों का सूनापन है
क्या लिखूँ
न भाव हैं ... न ही आधार है…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 6, 2013 at 7:30am — 5 Comments
बता दो क्या कर लोगे
सूरज के ही आगे पीछे रहती है बस धूप,
बता दो क्या कर लोगे
उनका पेट भरेगा, तेरी भांड में जाए भूख ,
बता दो क्या कर लोगे
तेरे ही काँधे पर चढ़कर छोड़ेंगे बन्दूक,
बता दो क्या कर लोगे
बेटा उनका आगे होगा, तुम्ही जाओगे छूट,
बता दो क्या कर लोगे
काला होगा धन उनका जब तेरा पैसा लूट,
बता दो क्या कर लोगे
कुर्सी तेरी वो बैठेंगे, तुम बस देना घूस,
बता दो क्या कर लोगे
मौलिक और…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on July 5, 2013 at 10:00pm — 16 Comments
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